मजबूरी…!! -विनोद सिन्हा ‘सुदामा’

बहुत मुश्किल होता है किसी ऐसे सच को स्वीकार करना जो सिर्फ आपसे और आपके व्यक्तित्व से जुड़ा हो और जो कड़वा भी हो और आपको दर्द भी देता हो,मेरे लिए भी एक सच ऐसा था जिसे स्वीकार करना मुश्किल हीं नहीं पीड़ादायक भी था फिर भी स्वीकार कर रखा था मैंने कि मैं एक नाचने वाली की बेटी हूँ जिसे आप सभी अपनी भाषा में “बार डांसर” कहते हैं.!

मेरी माँ शहर के एक बड़े डांस बार में नाचा करती थी,और मेरे बाबा जो रोज शाम होते ही दारू के नशे में चूर हो कर कहीं लुढके रहते थे मेरे जन्म के दो महीने बाद ही मर गयें थें तब से मेरी माँ ने मुझे आप सभी के बीच नाच गा कर ही पाला था ऐसा मेरी माँ बोलती थी!

बचपन में जब मैं मुहल्ले में बच्चों को खेलती देखती तो मेरी भी इच्छा होती कि मैं उनके साथ खेलूँ जब किसी को स्कूल जाते देखती तो मैं भी सोचती कि मैं भी स्कूल जाऊँ,मैं भी पढ़ूँ पर कोई मेरे साथ खेलना तो दूर मेरे पास आना पसंद नहीं करता था और मैं हर पल घुटती तड़पती रहती

जाने कितनी बार अंदर से टूटती कितनी बार घुट घुट मरती.!

मैं थोड़ी बड़ी हो चली थी और कुछ बातों को समझने लगी थी,हर रोज हर शाम अब इक नया मर्द आने लगा था मेरी माँ के कमरे में, जहां बाजुओं पर कसा हुआ हांथ दबी ख़ामोशी से बदन पर से उतारता था कपड़े और वह अपने बल से उसकी देह पर लिखता था अपनी जीत की कहानी पर मेरी माँ उस वक़्त इक वस्तु के सिवाय कुछ नहीं होती सिर्फ एक जिन्दा जानदार वस्तु,दबी दबी आहट से सहमी मैं कभी कभी उन दीवारों के पीछे झाँककर देखने की चेष्टा करती मन घृणा और दर्द से भर जाता जब देखती थी अपनी माँ के मन की क़ब्र में दबी सहमी अपने ज़िस्म के लहू लुहान हिस्सों पर उस आदमी के नाखूनों से नोचे जाने पर उग आये ज़ख्मों को कुरेदते और स्वयं खुद के लहू को पोछती.!!


इतना होने पर भी उस अवस्था में भी दूसरी तरफ बिस्तर पर पड़े उस मर्द के मेरी माँ के जिस्म पर रेंगते हुए हाथ और उसके द्वारा लगाते ठहाके मेरे मन मस्तिष्क को दर्द से भर देती थी.!

और उस समय मैं,माँ और माँ की मजबूरियों पर किसी कोने में बैठ आँसू बहाती रहती थी और सोचती थी क्या यही है मर्द और औरत का रिश्ता या फिर इसे ही मजबूरी कहते हैं पर मुझे मेरे इन सवालों का न उस वक्त जवाब मिल पाया था और न ही आज मिल पाया है और सच कहें तो तब से आज में कोई अंतर भी नहीं आया है,आया है तो बस,तब मिट्टी के ढेर तले मेरी माँ राख बनी दबी दबी सुलगती रहती थी,आज मैं हाड़ मांस का लोथरा बनी प्राणहीन सी गर्म मांस के भार तले दबी कुचली सी पड़ी जलती रहती हूँ,तब मैं माँ की मजबूरियों पर आँसू बहा लेती थी आज मैं खुद की,मेरी माँ अभागन जिंदा भी तो नहीं थी जो आँसू बहाती और बहाती भी या नहीं,कह नहीं सकती क्योंकि उसके आँसू तो कब के सूख गये थें उसकी दर्द से पथराई आँखों में और जबकी कई बार होता है ऐसा कि मैं भी पड़ी रहती हूँ जिंदा लाश सी मगर हर पल पुकारती रहती हूँ मैं मौत को हाँ मौत को और उससे कहती हूँ, कहाँ है तू आ भर ले मुझे अपनी गोद में और ले चल मुझे दूर बहुत दूर,उठा ले मेरा हर बोझ हर उम्मीद,हर रिश्ता,हर चिंता,हर सच,हर झूठ,हर पाप,हर पुण्य,निकाल दे मुझे इस भंवर से,ले चल मुझे दूर उस जहां में जहाँ न समय हो न भाव हो न लोग हो,बस मैं रहूँ शान्त अकेली स्थिर,आजा ले चल मुझे,क्योंकि अब नींद से भी मेरी थकान नहीं मिटती.!!

विनोद सिन्हा ‘सुदामा’

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