“ बड़ी अम्मा आज रात आप क्या खाएँगी.. बता दीजिए तो वही बना देंगे ।” खाना बनाने वाली सरला ने लीलावती जी से पूछा
“ क्यों आज क्या स्पेशल है जो मुझसे पूछने आई है… हर दिन जो बनता है वो ही बना दे… जो सब खाएँगे वहीं मैं भी खा लूँगी ।” लीलावती जी ने कहा
” बड़ी अम्मा आज घर के सभी लोग तो बाहर दावत पर जा रहे हैं वो नई बहुरानी आई है ना उनके साथ…और बड़े साहब तो कल से हीमेमसाहेब के साथ उधर गए हुए है।”सरला ने बताया
ये सब सुन कर घर की बड़ी अम्मा यानि की लीलावती जी को बहुत दुख हुआ कि परिवार में कोई भी नहीं जो कभी उनके पास आकरबैठ सकें… बस ये कमरे में खाना पहुँचा कर ज़िम्मेदारी ख़त्म समझते।
“ रहने दे मुझे कुछ नहीं खाना ।” कह लीलावती जी चादर तान सो गई
कभी कभी सोचती बहुत पैसा भी नहीं होना चाहिए…. इसकी लत लग जाए तो इंसान परिवार को भूल बस पैसे के पीछे ही भागने लगताहै…कितना कहा था अपने पति चंद्रशेखर जी को…मत करो इतना लालच … शरीर को भी आराम दो… पर काम के धुन में कभी शरीर कीतरफ़ ध्यान ना दिया…. छोटे भाई बृजलाल के साथ मिलकर कम्पनी को नई ऊँचाई पर ले जाने की धुन में रमते चले गए… शौक के सबसाधन जुटा लिया…बड़ी सी हवेली खड़ी कर ली…
सबके अलग कमरे सब सुविधाओं से सम्पन्न… सब कुछ तो आ गया था इस घर मेंपर नहीं आया था तो एक साथ बैठ कर खाने का वक़्त…. व्यस्तता इतनी बढ़ी की सबने अपने कमरे को ही अपना घर बना लियाथा….लीलावती जी के दो बच्चे एक बेटा एक बेटी वही बृजलाल के एक बेटा और फिर जुड़वां बच्चों में एक बेटा एक बेटी कुल मिलाकरपाँच बच्चे….वो भी अपने में मस्त रहते पर लगभग हमउम्र थे तो घुमना फिरना साथ करते थे…. बेटियों की शादी पहले कर दी गई…
फिरदो बेटों की शादी कर दी पर एक बेटा जो सबसे छोटा था उसकी शादी अभी कुछ दिन पहले ही हुई थी……परिवार में इतने लोगों के होतेहुए जश्न सा लगता था….चन्द्रशेखर जी एक साल पहले गुजर गए थे अब बृजलाल जी घर के मुखिया बन चुके थे ..उनकी पत्नी को भीपार्टी की आदत लगी हुई थी वो भी घर पर टिकती नहीं थी पर लीलावती जी को ऐसा कोई शौक़ नहीं था वो घर पर ही रहना पसंदकरती थी….इसलिए सब उन्हें उनके कमरे में रहना उनकी इच्छा समझते….
कमरे में टीवी पर वो हमेशा भजन सुनती रहती थी पर कुछदिनों से महसूस कर रही थी कि परिवार में वो अकेली सी हो गई है….देवर देवरानी की अपनी अलग दुनिया…बेटा बहू अपने में मस्त रहतेथे बेटी जब मायके आती माँ से मिल भर लेती…. बड़ी अम्मा से स्नेह सबको था पर अपनी दिनचर्या में उनके लिए समय किसी के पासनहीं था यही बात बहुत दिनों से लीलावती जी को दुखी कर रही थी ।
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अचानक दरवाज़े के बाहर कुछ आवाज सुनाई दी… वो अपने सोच पर विराम लगा कान उधर लगा दी
“ अरे ये क्या अम्मा को भी दावत पर ले जाने की सोच रही हो.. वो कहीं नहीं जाती कनु ।” ये लीलावती जी की बहू की आवाज़ थी जोअपनी देवरानी से कह रही थी
“ पर हम सब बाहर जा रहे बड़ी अम्मा को ऐसे अकेले घर में छोड़ कर ये तो सही नहीं है ना भाभी… हमारे घर में तो पूरा परिवार हमेशाकही भी जाता साथ ही जाता है ।” ये .. ये आवाज़ तो नई बहू की लग रही है लीलावती जी सुन कर सोची
तभी कमरे का दरवाज़ा खोल नई बहू कनु बड़ी अम्मा के सामने थी…. सिर पर पल्लू… हाथों में चूड़ा…और चेहरे पर बड़ी अम्मा के लिएबहुत सम्मान
“ अम्मा हम सब के साथ आप भी चलिए ना दावत पर।” कनु ने कहा
“ नई बहू मैं..।” लीलावती जी कुछ बोलती उससे पहले ही उनकी बहू ने कहा,“ मैं कह रही थी ना कनु अम्मा कहीं नहीं जाती।”
“ पर बहू मैं तो जाना चाहती हूँ सबके साथ….अब अकेले नहीं रहा जाता बहू… बहुत अकेलापन लगता है… तुम सब दिन भर एक दूसरे सेमिलते जुलते हो बातें करते हो पर मैं… बस टीवी देख कर समय गुजार लेती…. घर के काम कुछ करने नहीं सब के लिए घर में स्टाफ़ रखेहुए… वो सरला ही है जो बस मेरे कमरे में आकर खाना दे जाती और परिवार वालों के हाल चाल बताती …. माना चलने में थोड़ी लाचारहूँ पर इतनी भी नहीं की परिवार के साथ चार कदम चल ना सकूँ…. आज तो नई बहू ने मुझे बहुत बड़ी ख़ुशी दे दी जो आजतक कभी तुमलोगों ने मुझे ना दी।” कहते हुए लीलावती जी धीरे से पलंग से उतरी और अपनी बहू की ओर देखने लगी जिसका मुँह थोड़ा बना हुआथा
नई बहू कुछ देर को अपनी जेठानी का मुँह देखने लगी कही उसने गलती तो नहीं कर दी…फिर ना जाने क्या सूझा वो बोली,“ चलिए नाभाभी अम्मा को तैयार कर देते हैं …. जब हम अपनी दादी को तैयार करते थे ना तो वो बहुत खुश होती थी।”
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दोनों मिलकर लीलावती जी को तैयार कर बाहर ले आई…
सब बच्चे बड़ी अम्मा को देख आश्चर्य से उछल पड़े… ,“ बड़ी अम्मा आज आप बाहर जाओगी…आपको तो पसंद नहीं ना?”
“ हाँ बेटा पसंद तो नहीं था पर देख रही हूँ पैसे की चकाचौंध में सब मुझे ही भूलते जा रहे हैं कि मैं भी परिवार का हिस्सा हूँ…. जब सबकोइसमें ही ख़ुशी मिलती हैं तो क्यों ना मैं भी इसका हिस्सा बन जाऊँ…।” लीलावती जी ने कहा
“ माँ ऐसे क्यों कह रही हो… हमें लगा तुम्हें अपने कमरे में ही रहना अच्छा लगता है इसलिए कभी पूछने की ज़रूरत नहीं समझे।” बेटे नेकहा
“ बेटा मुझे सच में घूमना फिरना ज़्यादा नहीं पसंद बस यही ख़्वाहिश रही की परिवार साथ बैठ कर खाना तो खाए….लगे तो हमारापरिवार ये है पर सब अपने कमरे में ही सब जुटाने लगे … आज जब सरला ने कहा सब दावत में जा रहे तो लगा मुझे भी ले चलोगे परकोई पूछने तक ना आया जैसे ही नई बहू ने कहा मैं तैयार हो गई…. अब मुझे भी परिवार के साथ उनके हिसाब से रहना है…. अकेले नहींमैं बस तुम सब से थोड़ा समय ही तो चाह रही हूँ…. ये पोते पोती भी दादी के पास फटकते नहीं…।” कहते कहते लीलावती जी की आँखेंछलक उठी
सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे….
“ अब से आप हमारे साथ रहेगी अम्मा..हम सबने समझने में भूल कर दी।” बच्चों ने कहा
दावत वाली जगह पहुँच कर जब बृजलाल और उनकी पत्नी ने लीलावती जी को देखा तो आश्चर्य करने लगे…
“ भाभी आप..।” आश्चर्य से दोनों ने पूछा
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“ हाँ मैं… चन्द्रशेखर क्या गए मैं तो परिवार से अलग ही हो गई….भई मैं भी परिवार का हिस्सा हूँ… सब की ख़ुशियों में शरीक होने काहक मेरा भी है।” कहते हुए लीलावती जी एक कुर्सी पर बैठ गई
दोस्तों कई बार भरे पूरे परिवार में रहते हुए भी कोई इंसान इस कदर अकेला हो जाता है कि समझ नहीं पाता करें तो क्या करे… सबअपने में जब मग्न रहने लगते तो अकेले इंसान को पूछना ज़रूरी नहीं समझते…. ऐसे में जब कोई मौक़ा मिले तो उसे स्वीकार कर ले.. नहीं तो लोग यही समझते रहेंगे कि वो सब आप अपनी इच्छा से कर रहे हैं ।
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धन्यवाद
रश्मि प्रकाश
मौलिक रचना
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