दीपा के घर उसकी सालों पुरानी सहेली अंजली आयी थी। वैसे भी लॉक डाउन के बाद भी कहाँ कोई किसी के घर आता जाता है। दोनों सहेलियां एक दूसरे के घर की सारी अंदरूनी बातें जानती थीं। जब भी मिलती ढेरों बातों के साथ अपनी दुःखम- सुखम बतियाती। भारतीय परम्परानुसार दीपा पति- पत्नी में अनबन के बावजूद एक छत के नीचे जीने को मजबूर थी। जिंदगी की कई सामान्य चीज़ों व बातों से वह महरूम ही थी।
वक़्त रुकता कहाँ है… वह अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। बच्चे भी बड़े होते रहे। बल्कि अब तो पढ़ने के सिलसिले में अब घर से बाहर रहने लगे थे। सालों से दीपा के घर अंजली के आने की वजह से वह दीपा की पारिवारिक स्थित व उसके प्रति पति का रवैया उसने व उसके पति ने भी देखा था। कई बार तो दीपा
उनलोगों से मध्यस्थता कराकर अपनी किसी पारिवारिक समस्या को सुलझाना चाहती थी। किन्तु सुलझता क्या खाक बल्कि अंजली व उसके पति के सामने ही दीपा का पति उसे जलील करता। बरसों सहते-सहते दीपा की सहनशक्ति भी जवाब दे चुकी थी। वह भी तीखे शब्दों में जवाब देती।
सनकी किस्म का व्यक्ति था दीपा का पति राहुल। अपनी सारी मनमानियों को वह पूजा- पाठ के आवरण में ढकने की कोशिश करता। गांव के किसी स्कूल में उसकी शिक्षक की नौकरी थी। पर वह वहां महीने में चार- पांच बार ही वह जाता। दिनभर घर में रहता। आधा दिन तो वह ढोंगी पूजा- पाठ के आडम्बर में लगाता।
न जाने कितने प्रकार की महंगी पूजा सामग्री वह पूजा गृह के स्लैब पर सजा रखता था। एक प्रकार से कहें तो किचन के समानान्तर उसका पूजा गृह था।
बेहिसाब ख़र्चता वह पूजा तथा धर्म के ढोंग पर। कम से कम साधनों में दीपा एवं बच्चों को जीने को विवश करता था। उसके बाद नाश्ता करने के बाद बस टी. वी या मोबाइल में समय गुजरता। दिनभर घर मे रहने के बावजूद वह घर के किसी काम में कोई मदद नहीं करता। दो- दो बच्चों का पालन- पोषण के बावजूद उन्हें पढ़ाना, होमवर्क कराना, कपड़े धोकर प्रेस करना बल्कि यूँ कहें कि घर की हरप्रकार से देखभाल करना उसका जिम्मा था।
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घर में शांति के लिए वह पति की हर मनमानी सहती जाती। संयुक्त परिवार था उसका। राहुल की सभी भाभियों के अलग- अलग मेड थी जबकि दीपा सारा काम स्वयं करती थी। फिर भी वह व्यक्ति न जाने किस मिट्टी का बना था जो दीपा के समर्पण व सेवा का कोई मोल न करता। कोई भी स्त्री परिवार में अपने समर्पण के बदले कम से कम सम्मान तो चाहती ही है जो दीपा को राहुल नामक व्यक्ति से कभी न मिला। और यह समाज की जगजाहिर बात है कि जिस परिवार में पति अगर पत्नी का सम्मान नहीं करता हो तो उसके घरवाले भी उसे तरह- तरह से प्रताड़ित व नीचा दिखाने का कार्य करते हैं। दीपा को यह सब भी बर्दाश्त करना पड़ता।
अगर दीपा परिवारवालों की ज्यादती या मनमानियों के बारे में राहुल को बताकर उससे निजात दिलाने को कहती तो स्थिति एकदम से बिगड़ जाती। अपने घरवालों के सम्बंध में वह ‘सावन का अंधा’ था जिसे सब हरा ही हरा दिखता। जिस समस्या के सम्बंध में दीपा बात करती वह तो वहीं की वहीं रह जाती बल्कि राहुल उल्टे दीपा को जलील करने लगता तथा अपशब्दों की बौछार लगा देता। मतलब दीपा के समक्ष वह उसके अपनााने के लिए कोई सीधा रास्ता वह रहने ही न देता। मजबूर होकर दीपा कभी- कभी चीखती चिल्लाती। पर कोई रास्ता न निकलता। उल्टा घरवालों की नजर में भी वह दीपा को बुरी बनाने में एक कसर न छोड़ता।
धीरे- धीरे उनके बीच सम्वाद गौण होने लगें। उनके बीच बात किसी बहस या झगड़े को लेकर ही होती। खुद तो वह अपनी भाई भाभियों की गुलामी तो करता ही, दीपा से भी चाहता कि वह उनकी गुलामी करे। आज भी दीपा ने जब अंजली को आये देखा तो उसे लगा कि छत वाली समस्या उसकी मध्यस्थता से दूर करवाये। समस्या यह थी कि ऊपरी मंजिल के आधे हिस्से में राहुल का एक भाई रहता था जो छत का खाली आधे हिस्से में मनमानी ढंग से सारा सामान रख रखा था।
जबकि छत तो सार्वजनिक था। मुश्किल यह थी कि दीपा शाम को टहलती थी जो कि छत पर चलने तक कि जगह न होने से चल न पाती थी। स्वयं वह राहुल के भाई से चीजों को किनारे करने को कहती तो न ही उसका भाई दीपा की बात सुनता बल्कि यह बात जानने के बाद राहुुल दीपा की दुर्गति ही करता। हालांकि उनकी मध्यस्थता से शायद ही कोई मुश्किल दूर हुई हो, लेकिन क्या है न इंसान आशावादिता छोड़ नहीं सकता। वैसे भी दीपा जुझारु किस्म की थी।
न किसी के साथ गलत करती और न ही किसी का गलत बर्दाश्त करती। किन्तु दुर्भाग्यवश बीसों साल से उसे यही सहना पड़ा है। दीपा अंजली से ऊंची आवाज में छत वाली समस्या को सुना रही थी जिससे राहुल भी सुन सके। अब जैसे ही उसने सुना अंजली के सामने ही अपने रौद्र रूप में आ गया और दीपा को अनाप- शनाप और बेतुकी बातें सुनाने लगा-“यह औरत मेरा दिमाग खराब करके रख दी है। चैन से रहने नहीं देती। आजकल मैं खाना खाकर अपना बर्तन भी मांजने लगा हूं।”
दीपा ने इसका प्रतिवाद किया। राहुल झूठी झूठी बातें व इल्जाम लगाने लगा। जबकि यह व्यक्ति पितृसत्ता का इतना बड़ा पोषक था कि एक ग्लास उठाकर यहाँ से वहाँ न रखता था।
कभी जब दीपा काम के थकान से सब्जी फ्री। फ्रीज में रखना भूल जाती तो बाजार से आई हुई सब्जी पड़ी सूखते रह जाती लेकिन वह उठाकर फ्रिज में नहीं रख सकता था। कुछ सालों से वह दीपा के बारे में अपमानजनक बातें व झूठी इल्जाम लगाने जैसी घटिया हरकते बाहर के लोगों से भी करता। तो इसबात पर अंजली ने परिणाम की परवाह न करते हुए कहा -“अगर आप धो भी लेते बर्तन तो क्या गलत हो जाता है। घर का काम केवल पत्नी का ही तो नहीं होता। आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कोई अधर्म कर दिया आपने।”
तभी दीपा ने कहा-“देखा अंजली! जिस समस्या पर बात होनी चाहिए वह सिरे से गायब है और यह व्यति बात को भटका रहा है।” हमेशा से तो यही होते आया है दीपा के साथ।
आज जहां समाज में, देश में स्त्री-पुरुष समानता की बात हो रही है वहाँ ऐसे- ऐसे सामंती सोच वाले पुरुष घरों में हैं जो बर्तन धोने जैसी बात को गुनाह समझ रहे हैं। ऐसी मानसिकता वालों को क्या कहा जाए जो घर में शोषण चक्र चलाते रहते हैं और समाज में सिर पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाकर धर्म की आड़ में अपना असली चेहरा छुपाते हैं।
#जन्मोत्सव
— डॉ उर्मिला शर्मा।