रौनक सुबह जब बेटी को स्कूल छोड़ने जा रहा था तब पहली बार सुना “आज छोले-भटूरे बनाना मम्मा”
उसके बाद तो पुरे दिन भर वही बात चलती रही – “चाची आज आपको छोले ही बनाना है सिर्फ़”
“भटूरे मम्मा और पापा बना देंगे, तब तक आप छोटी बाबु को सुला लेना, फिर मिल कर खाएँगे”
शाम को रौनक ऑफिस से लौटा ही था की गाँव से पिताजी ने व्हाटस एप्प पर मैसेज किया “मौसी की बेटी की शादी है, समय निकाल कर आ जाना”
वैसे ए मैसेज दोनों छोटे भाइयों को भी आया था.
पिताजी रहते तो साथ ही हैं लेकिन बीच-बीच में माँ के साथ गाँव चल जाते हैं, बोलते हैं वहाँ की हवा अच्छी है, बात तो उनकी भी सही है – गाँव में आज भी प्रदूषण नहीं के बराबर है.
जब से रौनक ने वो मैसेज पढ़ा है तब से मिज़ाज अच्छा नहीं है, दो घूँट पीने के बाद पानी की बोतल टेबल पर रखते हुए सोफ़े पर पसर कर बैठ गया, न चाहते हुए भी पुरानी बातें याद आने लगी:
माँ, मुझे अच्छे कॉलेज में पढ़ना है
क्यों? इस कॉलेज में क्या दिक़्क़त है?
यहाँ पढ़ाने वाला कोई नहीं
क्यों? इतने बच्चे तो पढ़ते हैं न?
कोई नहीं पढ़ता, सारे घुमते रहते हैं.
यहिं पढ़ो, पैसे नहीं हैं.
क्यों नहीं? पिताजी ठिक ठाक कमाते हैं
तो क्या सारा तुम पर लूटा दें?
मैं तो पढ़ाई के लिए माँग रहा हूँ
बोल दिया न? नहीं है बस…
रौनक रोते हुए घर से बाहर गया था, शाम को वापस आया तो पिताजी ने क्लास लगा दी –
बेशर्म, इतना बड़ा हो कर रोता है?
मैं तो तुम्हें इतना खर्च कर के पढ़ा रहा हूँ, मेरे पिताजी ने तो कुछ भी नहीं दिया था.
“तो आप अपने पिताजी का बदला मुझसे ले रहे हैं क्या?”
रौनक की ए बात घर में कोहराम मचाने के लिए काफ़ी थी, जो पैसे मिल रहे थे उसमें की कटौती होती गई.
मजबूरन रौनक बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा और उन्हीं पैसों से खुद भी ट्यूशन पढ़ने लगा.
मज़े की बात ए थी की उसी कॉलेज के प्रोफ़ेसर ट्यूशन मन लगा कर पढ़ाते और कॉलेज जाते ही स्टाफ़ रुम में बैठ कर बायलॉजी वाली मैडम के बारे में उल्टे-सिधे मज़ाक़ करते.
गलती से कोई विद्यार्थी जा कर बोलता “सर आपके क्लास का टाईम हो गया है” तो वो चीढ कर बोलते “चलो आता हूँ”
जो विद्यार्थी बुलाने जाता उसी को खड़ा कर तब तब सवाल पुछते जब तक वो पुरा बेइज्जत न हो जाता. सारे विद्यार्थी डरने लगे थे स्टाफ़ रूम जाने से.
पिताजी ने मौसा-मौसी को फ़ोन कर बता दिया की रौनक अब बदज़ुबानी करने लगा है, मौसी ने फ़ोन कर रौनक से बात कराने बोला, माँ बोल कर चली गई, रौनक मौसी को बहुत मानता था. फोन पकड़ते ही मौसी ने जली-कटी सुनाना शुरू कर दिया –
“इतना बड़ा हो गया तुझे अभी तक अक़्ल नहीं आई”
“पैसे ले कर आवारगी करनी ही है तो पढ़ाई छोड़ दो”
“मेरे जीजाजी के मेहनत के पैसे क्यों बर्बाद करना चाहते हो?”
“तुम्हें मेरे जीजाजी और दीदी से इतनी दिक़्क़त है तो बोलो मैं उन्हें अपने घर में रखुँगी, रहना तुम अकेले”
मौसा भी बग़ल में ही थे, उधर से बोलने लगे “इस बेशर्म को क्या बोल रही हो?”
“जो बाप से लड़ाई कर ले वो किसी और की इज़्ज़त क्या करेगा?”
रौनक चुपचाप सुनता रहा, बोलता भी क्या?
कैसे बोलता?
पहली बार तो कुछ बोला था उसने अपने मन की, नहीं तो वो बेटा कम नौकर ज़्यादा था – स्कूल जाने से पहले घर की सफ़ाई करता, वापस आने के बाद बाज़ार से सब्ज़ी लाता, गेहूँ ले जाता और पीसा कर आटा ले आता… कभी माँ की तबियत ख़राब हो जाती तो खाना बनाता, बर्तन धोता, छोटे भाइयों को स्कूल भेजता.
यही सब कॉलेज आने के बाद भी चलता रहा.
मौसा भी सरकारी नौकरी में थे, लेकिन थे बहुत हिसाब किताब वाले या सही बोला जाये तो “दुसरे से पैसे ऐंठना” घर में कोई बड़ा खर्च होता तो पिताजी के पास आ जाते पैसे माँगने, लौटाने की बात आती तब माँ कोहराम मचा देती “मेरी बहन गरीब है, कहाँ से लौटाएगी पैसे?”
“तीन बेटी है, दो बेटे हैं” “घर कैसे चलेगा उनका?”
हर बार माँ जीत जाती और पैसे पच जाते, रौनक के झगड़े को साल भर भी नहीं हुए थे की मौसी की दो बेटियों की शादी एक ही लग्न में कर दी गई, माँ पिताजी ने खुब पैसे लुटाए, यह देख रौनक का मन और भी दुखी हो गया “पैसे नहीं थे तो लुटाने के लिए कहाँ से आए?”
मैं नहीं कहता की उनकी बेटी की शादी में मदद नहीं करो लेकिन इस शर्त पर तो बिलकुल भी नहीं की बेटे के पढ़ाई के लिए कुछ नहीं और पैसे पचा लेने वालों के लिए सब कुछ.
माँ को इस बात का इतना बुरा लगा की बात ही बंद कर दी, बात होती तो “खाना रख दिया है, खा लेना” “रासन ख़त्म हो गए हैं, सेठ की दुकान से ले आना” “गेहूँ सुखा कर रख दिया है, पिसा कर ले आना”
जब रौनक इन्टरव्यू देने गया तब भी बात नहीं हुई, नौकरी लगी तब भी नहीं, दुखी हो कर रौनक ने घर आना ही छोड़ दिया, तक़रीबन एक साल नहीं आया तो माँ ने क़सम दे कर बुलाया की “मेरा मरा मुँह देखोगे”
अब उस बात को दस साल से उपर हो गए, अब मौसा भी रिटायर हो गए और पिताजी भी, इस बार पैसे रौनक से ऐंठना था इसलिए किसी बहाने से मौसा बुला रहे थे.
बात समझते ही रौनक का तन बदन ग़ुस्से की आग में जलने लगा, मन तो कर रहा था फ़ोन कर जी भर सुनाए लेकिन खुद को रोकते हुए उसने पिताजी को मैसेज किया “आप के पास बहुत पैसे थे लुटाने को, आपने जी भर कर लुटाया”
“मुझे आज भी याद है मैं कैसे रोया था, मेरी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे, मौसा-मौसी को देने पता नहीं अचानक कहाँ से आ गया”
“मुझे छुट्टी नहीं है, होती भी तो मैं लुटाने नहीं आता”
“आपको लुटाना भी मुबारक और लुटने वाले भी मुबारक”
मोबाइल रखा ही था की पत्नी ने आवाज़ दिया – आ कर मदद किजीए न भटूरे तलने में
मुकेश कुमार (अनजान लेखक)