तू मेरा बेटा नहीं, बेटी ही है…  -रोनिता कुंडू

पापा…! यह देखिए मुझे स्कॉलरशिप मिली है… हां… पूरी तो नहीं मिल पाई, पर आधी भी बहुत राहत होगी..

 पीहू ने चहकते हुए कहा…

 पापा (महेश जी): आधी..? उसको लेकर ही तुम इतना उछल रही हो…? और आधा कहां से आएगा, यह भी सोचा है..? देखो पीहू..! मैंने पहले ही कहा था, मेरी हैसियत सिर्फ एक को ही पढ़ाने की है… वैसे भी तुम्हें पर लिखकर करना ही क्या है..? शादी करके ससुराल ही तो जाना है… पर जो अखिल नहीं पढ़ेगा, तो उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और जो उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी, तो हमारा भविष्य में गुजारा कैसे होगा..? मैं क्या हमेशा जवान ही रहूंगा..?

पीहू:   पर पापा… पढ़ना तो, हम दोनों का ही अधिकार है… फिर एक को बिठाकर सिर्फ दूसरे को पढ़ाना… कितना सही है..? जबकि उसे तो कोई स्कॉलरशिप भी नहीं मिली, उसका तो पूरा खर्चा ही आपको उठाना पड़ेगा… पापा..!  मैं भी तो बुढ़ापे में आप लोगों की सेवा कर सकती हूं… आप लोगों की जिम्मेदारी उठा सकती हूं..? 

पापा:   हां.. तो अब तुम दोनों जुड़वा हो… और साथ में ही एक ही कक्षा में हो… इसलिए दोनों के खर्चे एक जैसे ही है … मैंने इतने दिनों तक तुम दोनों को यहां तक पढ़ा लिया, अब इसके आगे की पढ़ाई का खर्च, मैं सिर्फ एक का ही उठा सकता हूं…

 पापा:   और इसलिए, अखिल का आपने तय कर दिया… फिर तो पापा आपको हम में से किसी एक को ही जन्म देना चाहिए था… 

यह कहकर पीहू रोते-रोते वहां से चली जाती है…




पीहू अपने कमरे में बैठी रो रही थी कि, तभी उसकी मां (शांता जी) उसके पास आती है और कहती है… बेटा..! तू बिल्कुल चिंता मत कर.. मैं तुझे आगे पढ़ाऊंगी…

इस कहानी को भी पढ़ें: 

हाय रे ये पार्टी  – पूजा मनोज अग्रवाल

 पीहू अपने आंसू पूछते हुए कहती है… सच में मां….? पर पापा..? 

शांता जी:   पापा कि तू चिंता मत कर…

 पीहू:  पर मां… आधा खर्चा आप कैसे देंगी..?

शांता जी:   तू इन सब की चिंता मत कर… और जाकर अपना फॉर्म भर दे… पैसे तुझे मिल जाएंगे… 

पीहू फिर खुशी-खुशी अपना फॉर्म भर, अपने पढ़ाई में लग जाती है और फिर वह ऐसे करते करते एक बहुत अच्छी नौकरी हासिल कर लेती है… अपनी पढ़ाई पूरी करते और अच्छी नौकरी पाते हुए, उसे कुछ साल बीत जाते हैं और आज कई सालों बाद, जब वह घर आती है… तो अपने पापा के चरण छू कर अपनी नौकरी की बात बताती है और साथ में वह किसी से शादी करने की इजाजत भी मांगती है…

 महेश जी:   देखा शांता..! मैं कहता था ना, लड़कियों को कितना भी पढ़ा लिखा लो… वह हमारे किस काम..? यह देखो, तुम्हारी लाडली.. सब कुछ छोड़ चली… इसके लिए ही तुमने एक दिन मुझसे बगावत कर, अपने सारे गहने बेचे थे.? अरे..! इसे तो अब यह भी नहीं दिखा, के अखिल बेरोजगार बैठा है और पापा बूढ़े हो गए हैं… तो घर की जिम्मेदारी उठा ले… उसकी जगह यह चली जाना चाहती है…




  इतने में अखिल किसी के साथ शादी करके ही घर पर आता है और कहता है… पापा..! मैंने मोना से शादी कर ली है और अब से मैं इसके घर पर ही रहूंगा…

 महेश जी:   पर अखिल… यह सब करने से पहले हमसे एक बार पूछ तो लेते..? और तुम हमें इस उम्र में अकेला छोड़ दोगे..? 

इस कहानी को भी पढ़ें: 

 *छल* –  किरण केशरे

अखिल:  क्या कहूं आपसे पापा..? गरीबी में जीते जीते थक चुका हूं मैं… कम से कम मोना के घर पर तो सारे सुख मिलेंगे… और आप लोगों का क्या है..? पहले भी तो रहते थे ना मेरे बिना…. जब मुझे जबरदस्ती पढ़ने हॉस्टल भेजा था… तो अब क्या दिक्कत है…? 

पीहू:  पापा… लड़का हो या लड़की… अपने फैसले उस पर थोप देना ना ही बच्चों को माता-पिता से दूर करता है, बल्कि अपने लक्ष्य से भी भटकाता है… एक माता-पिता को जितनी उम्मीद अपने बेटे से होती है… उतनी ही बेटी से क्यों नहीं होती…? क्यों वह अपने माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी नहीं बन सकती..?

 शांता जी:   देखिए जी…पीहू को आज आपसे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं… पर फिर भी वह आपसे शादी की इजाजत लेने आई है और आपको पता है… उसने  अपने होने वाले पति को अपनी तनख्वाह का हिसाब कभी नहीं देगी… यह भी कह रखा है…

 महेश जी:   तो क्या अब मेरे इतने बुरे दिन आ गए हैं, कि मैं अपनी बेटी के तनख्वाह पर जिऊं..?

 पीहू:   पापा… क्या आप यही बात अखिल को भी कह पाते..? जो वह आपको अपनी तनख्वाह देता…?




 महेश जब निरुत्तर थे…

 पीहू:   पापा..! बचपन से आज तक आपने हम दोनों में भेदभाव किया है… पर आज अपनी इस बेटी को एक बार अपना बेटा समझ कर ही, अपना कर्तव्य निभाने दीजिए..

इस कहानी को भी पढ़ें: 

भीड़ – श्रीमति पुष्पा ठाकुर

महेश जी:   नहीं… तू मेरी बेटी थी और बेटी ही रहेगी…

 पीहू महेश के पत्थर दिल को आज भी पिघला नहीं पाई, यही सोचकर रोने लगती है… 

महेश जी:   पीहू…तू मेरा बेटा नहीं, बेटी ही है और आज मुझे इसी बात पर गर्व है… काश..! इस फर्क को मैं कभी पनपने ही ना देता… तो शायद तुझे इतनी ठेस कभी ना पहुंचती… माफ कर दे अपने इस पापा को… पता नहीं किस सदी में जी रहा था मैं…?

 फिर पीहू अपने पापा से लिपट कर रोने लगती है…. आज महेश जी इसलिए पीहू की तरफ नहीं थे कि, वह उनकी जिम्मेदारी उठाने की बात कह रही थी… बल्कि इसलिए भी थे कि, पीहू ने आज अपने पापा को गलत भी साबित किया था…। 

धन्यवाद 

स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित

रोनिता कुंडू

Leave a Comment

error: Content is protected !!