क्या कहा डॉक्टर ने अनु..? विभा जी ने पूछा…
अनु: मम्मी जी..! सब खत्म हो गया… अब मैं अकेले दोनों बच्चों को कैसे पालूंगी..?
विभा जी: क्यों क्या हुआ..? ऐसे क्यों बोल रही हो…?
अनु: मम्मी जी…? कैंसर है उनको और वह भी लास्ट स्टेज…
विभा जी के पैरों तले, मानो ज़मीन खिसक जाती हैं… पर वह अपनी इस टेंशन को छुपाती हुई कहती है… भगवान पर भरोसा रखो अनु..! सब ठीक होगा… भगवान इतने भी निर्दयी नहीं है, जो वह इन छोटे छोटे बच्चों के सर से पिता का साया छीन ले…
इस तरह कुछ दिन बीतते हैं और वह मनहुस घड़ी आ ही जाती है… जब अनु का पति (महेश) दुनिया को अलविदा कह देता है…
महेश एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था… उसकी तनख्वाह ज्यादा तो नहीं थी, पर इतनी तो थी के उनके परिवार का गुजारा हो जाता था… अब महेश के ना रहने से, इस परिवार के गुजर-बसर पर सवालिया निशान बन गया था…
विभा जी और उनके पति (अरुण जी) एक दिन बैठे यही बात कर रहे थे, कि अब इस परिवार का क्या होगा…? इतने सारे लोगों की जिम्मेदारी अब कौन निभाएगा…? पर जिंदगी तो जिंदगी है… बिना संघर्ष इसे जीना नामुमकिन है… कोई आए या कोई जाए… इसे तो चलते ही जाना है… किसी का संघर्ष कम होता है तो किसी का ज्यादा, पर संघर्ष तो होना ही है… वह लोग बैठे इन्हीं सब विचारों में लीन थे, कि तभी अनु आकर उनसे कहती है…
मम्मी जी..! पापा जी..! मैंने एक ठेला खोलने की सोची है… आपको तो पता ही है, मैं राजमा चावल अच्छा बनाती हूं… तो मैं उसी की से शुरुआत करूंगी…
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रक्षक – मीना माहेश्वरी
विभा जी: ठेला..? यह कैसी बातें कर रही हो अनु…? हमारी बहू ठेला चलाएगी..? लोग क्या कहेंगे..? और ना जाने कैसे-कैसे लोग आएंगे ठेले पर… अनु तुम तो पढ़ी लिखी हो… कोई अच्छी जगह नौकरी भी तो कर सकती हो ना..!
अनु: मम्मी जी..! इतने सालों में मैंने नौकरी नहीं कि, आज मुझे अचानक से कौन नौकरी देगा…? चलो मान भी लिया कि नौकरी मिल गई… पर एक नौसिखिया को कोई कितनी तनख्वाह देगा..? और उस तनख्वाह में भी तो गुजारा करना मुश्किल ही होगा…. लोग क्या कहेंगे..? अगर इस वक्त भी हम यही सोचेंगे, तब तो वह दिन दूर नहीं, जब बच्चे और हम एक-एक दाने को तरसेंगे… तब क्या हमें यही लोग खिलाने आएंगे…? नहीं ना..?
विभा जी: ठीक है बेटा…! तुम जैसा सोच रही हो, करो… हम तुम्हारे साथ हैं… तुम बच्चों की चिंता मत करना… वह हमारे साथ घर पर रहेंगे… और हमें क्या करना होगा यह भी बता देना…?
महेश के इलाज के दौरान, घर की लगभग सारी जमा पूंजी भी खत्म हो गई थी…. इसलिए अनु अपने गहनों को बेचकर एक ठेला शुरू करती है…
वह उस ठेले को एक कॉलेज के बाहर लगाती है…. क्योंकि उसके राजमा चावल का स्वाद बिल्कुल घरेलू था, कॉलेज के बच्चों को काफी पसंद आता है… धीरे-धीरे उसके खाने और ठेले के चर्चे फैलने लगते हैं… वह सुबह उठकर राजमा चावल बनाती और फिर उसे बड़े-बड़े बर्तनों में भरकर, ठेले में रखकर कॉलेज तक पहुंचती… उसका यह संघर्ष एक दिन रंग लाता है और फिर धीरे-धीरे ही उसकी घर की आर्थिक स्थिति भी सुधरने लगती है…
बच्चों का अच्छे स्कूल में दाखिला हो जाता है और अनु का ठेला, अब ठेला नहीं एक होटल बन जाता है… जिसमें राजमा चावल के अलावा और भी कई चीजें मिलती है…. जहां के कैसियर अरुण जी होते हैं… इतना बड़ा होटल होने के बावजूद और इतना सारा खाना और कर्मचारी होने के बावजूद, अनु अपने हाथों से राजमा चावल बनाती है… क्योंकि उसके संघर्ष के समय जिन लोगों ने उसका साथ दिया, वह उनको ताउम्र अपने हाथों से बनाए राजमा चावल खिला कर धन्यवाद करना चाहती है….
#संघर्ष
स्वरचित/मौलिक
अप्रकाशित
धन्यवाद
रोनिता कुंडू