पान्डे जी की फैमिली बहुत खुश थी। उनका वर्षों का सपना जो पूरा हुआ था, पॉश कॉलोनी में अपना एक भव्य, आलीशान बंगला बनाने का। सफेद मारबल से लकदक फर्श, नये डिजाइन की टाइलों से चमचमाती दीवारें, अत्याधुनिक व महंगे फर्नीचर से सुसज्जित ड्राईंगरूम व कमरे, बेशकीमती झाड़फानूस व तरह तरह के बल्बों लाइटों से जगमग घर का हर कोना। मित्रों, रिश्तेदारों की प्रशन्सा, वाहवाही से फूले नहीं समा रहे थे पान्डे दम्पति। गृहप्रवेश के बाद वे शिरडी जाने की तैय्यारी करने लगे जहाँ उन्होंने घर बनने की मन्नत के फलस्वरूप साईं बाबा को सोने का मुकुट अर्पित करना था। अब समस्या थी कि “मीनू” का क्या किया जाए?
मीनू उनकी ग्यारह साल की मेड थी जिसे उन्होंने दो माह पहले ही किसी संस्था से लिया था, वो उनके घर का सारा कामकाज करती और वहीं रहती भी थी। प्लेन पे उसकी टिकट क्यों फालतू में खर्च की जाए और किसी के घर छोड़ने का तो मतलब ही नहीं है तो फिर क्यों न उसे घर में ही बन्द करके जाया जाए, दो ही दिनों की तो बात है, यही घर में सबको उचित लगा।
उसी के छोटे कमरे में जिसमें बाथरूम अटैच्ड था, दो दिन के हिसाब से एक बडी़ ब्रेड, एक कटोरी में अचार व एक घडे़ में पानी भरकर रख दिया गया। उसे चिल्लाने व शोर न मचाने की सख्त हिदायत के साथ साथ उस पर ये अनुकम्पा भी प्रकट की गई कि दो दिनों तक उसे कोई काम नहीं है आराम से सारा दिन खाये पिये, सोये मौज करे। उसके कमरे में बाहर से ताला लगाया व घर को भी अच्छी तरह सीलबन्द कर दिया।
वहाँ शिरडी पहुँच कर उन्होंने सोने का मुकुट चढ़ाया, ब्राह्मणों को दान दिया व गरीबों के लिए भन्डारा कराया। सभी लोग उनके धरम करम, दानशीलता व उदारता की प्रशन्सा कर रहे थे व वे आत्ममुग्ध होकर गर्व से फूले नहीं समा रहे थे।
स्वरचित-पूनम अरोड़ा