दिवाकर अक्सर मंजूला से मज़ाक में ही सही ,कहता रहता था कि अरे,,तुझे मेरे जैसा कहाँ मिलेगा,,?
सच है ,,उसके जैसा कहाँ मिलेगा,,और ईश्वर न करे उसके जैसा इस जनम में तो क्या ,,,जब तक जनम हो, कभी न मिले,,
ईश्वर दूरी बनाये रखे उससे और उसके जैसों से,,जिसने ज़िन्दगी को पूरी तरह तहस-नहस करके रख दिया,,।सोचते हुए पूनम की आँखें नम हो आयी,,।
एक-एक कर सारी बातें एक चलचित्र की तरह उसकी आँखों के सामने घूम गया,, ।बात करीब सात-आठ साल पहले की है,,दिवाकर से उसकी मुलाक़ात एक संस्था की पार्टी में हुई थी,। मंजूला भी कुछ अलग करने की ख़्वाहिश से वहाँ गयी थी ,,।
इसके पहले तक वो सिर्फ़ एक गृहणी थी,, जिसका जीवन अपने पति ,बच्चों तक ही सीमित थी,,।पार्टी में पहुंच कर सबसे परिचय का सिलसिला शुरु हुआ,,मंजूला बहुत खुशमिज़ाज और हंसमुख महिला थी,,।वो सबसे हँसकर मिल रही थी,,।
इसी दरम्यान एक बहुत ही गंभीर, शालीन व तहज़ीबदार शख़्स से परिचय हुआ,,।
उसकी नालेज और ज्ञान की बातें सुनकर मंजूला भी काफ़ी प्रभावित हुई थी,,।
संस्था के स्थापक ने सब समझाया,,तथा कुछ को पोस्ट भी होल्ड करने को दिया,,
मंजूला की पर्सनालिटी और खुलेपन के कारण उसे भी आफर किया गया,,।पहले तो वो तैयार नहीं हुई क्योंकि वो घर-गृहस्थी के अलावा कुछ न जानती थी।
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खैर,,बहुत कहने पर उसने स्वीकार कर लिया,,।दूसरे दिन घर वापसी थी। मंजूला भी घर आकर अपनी दुनिया में मस्त हो गयी,।
मंजूला कभी-कभार संस्था के काम के बारे में सोचती कि कैसे कर पायेगी,,मगर उसने ख़ुद का हौसला बढ़ाया कि सीखने से क्या नही कर सकता इंसान और वो हमेशा ही कुछ भी सीखने को बहुत उत्सुक भी रहती थी,,।
कुछ दिन यूँ ही बीत गये,,।
एक दिन संस्था के काम के सिलसिले में मंजूला ने दिवाकर से सलाह लेना उचित समझकर मैसेज किया,जिसका उसे बहुत अच्छा रेस्पांस मिला,,।फिर तो ये सिलसिला चल पड़ा,,।मंजूला हर काम दिवाकर से पूछकर ही करती और दिवाकर भी उसे सही सलाह देता रहता था।
दोनो में अब आफिशियल बातों के अलावा अपनी पसंद-नापसंद की बातें भी होने लगी और इस तरह दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी,। मंजूला एक अच्छा मित्र पाकर बहुत खुश थी,,उसके जीवन में शायद इसी की कमी थी जो दिवाकर के रूप में पूरी हो गयी थी।
एक दिन अचानक दिवाकर ने मंजूला से प्रेम का इज़हार कर दिया,,वो हतप्रभ रह गयी क्योंकि ये उम्र क्या प्यार करने की थी,,और उसपर से वो दिवाकर से दस साल बड़ी भी थी,,।
मगर कहते हैं न,,प्रेम करने की कोई उम्र नहीं होती ।ये कभी भी किसी से भी बेवजह हो सकता है,,।और उसपर से दिवाकर जैसा सुलझा हुआ गंभीर और शालीन इंसान,,इस पर तो कोई भी फ़िदा हो जाये,,।पहले तो मंजूला ने ख़ुद को बहुत समझाया और रोका मगर कहते हैं न कि ‘होइहैं वही जो राम रचि राखा’,,या फ़िर कह सकते हैं कि ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’,,,,,।
यही हुआ मंजूला के साथ,,,, उसने तो ईश्वर का तोहफ़ा या किसी जन्म का रिश्ता समझकर इस प्रेम को आत्मा से स्वीकार कर लिया था ,,
वो निष्कपट-निश्छल हृदय वाली किसी के बारे में कुछ ग़लत या बुरा सोच ही नहीं सकती थी,,
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उसे तो ये ईश्वर की बनायी दुनिया बहुत ख़ूबसूरत और सच्ची लगती थी,।वो भी ऐसी ही थी न,,।वक्त बड़े सूकून में बीत रहा था,,।इस बीच दोनों की कई बार मुलाक़ात भी हुई,,।
मगर,,कुछ दिनों से मंजूला महसूस कर रही थी जैसे दिवाकर की वो शालीनतापूर्वक बातें करना,वो बेकरारी,वो प्रेम लुटाने वाली अदा,जिसपर मंजूला फ़िदा थी, कहीं गुम हो रही है,,मंजूला के पूछने पर व्यस्तता की बात कहकर टाल देता था,,अब अक्सर ही या तो उसकी तबियत खराब रहती या व्यस्त होता।
मंजूला इस बात से काफ़ी परेशान रहने लगी,,वो किसी भी तरह दिवाकर को खोना नहीं चाहती थी,उसने सच्चे हृदय से बिना किसी स्वार्थ के प्रेम किया था,,।
एक दिन इसी बात को लेकर मंजूला का दिवाकर से काफी झगड़ा हो गया जिसे उसकी दोस्त, जिसने उस संस्था को नया ही ज्वाइन किया था और दोनो के रिश्ते के बारे में जानती भी थी,,उसने बीच में आकर दोनों को समझाना चाहा,,मगर दिवाकर ने उसकी सहेली से बात करते-करते कुछ इस तरह व्यवहार किया जिससे साफ पता चल रहा था कि वो उसे भी उसी तरह प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था,मगर वो मंजूला की तरह भोली न थी,,तुरंत उसका दिमाग ठनका,,
और उसने मंजूला को खुलकर सारी बातें बतायीं,,,,मंजूला तो जैसे खुले आसमान से अंधेरी खाई में गिर पड़ी,,।
चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आ रहा था,, वो कहीं की न रही,,जिसे उसने ईश्वर की नेमत समझकर स्वीकार किया इतना मान-सम्मान दिया, वही ज़िन्दगी ही बर्बाद कर गया, क्या ऐसा करना उसकी फ़ितरत ही थी और न जाने अब तक कितनों के साथ उसने ऐसा किया हो,,मगर,,
मगर,,अब क्या,,??
अब तो जो होना था ,वो हो चुका था,, ये इतनी पीड़ादायक बात किससे कहे,,क्या कहे,, किसका दोष था,, किसी का दोष न मानकर खुद को कोस रही थी,,अपनी ही नज़र में गिर चुकी थी,,सिर्फ़ दिवाकर को ही अकेला दोषी न समझकर खुद को भी उतनी ही जिम्मेदार समझ रही थी,,।
इतना सब होने के बाद मंजूला ने ईश्वर से माफ़ी माँगी और सबसे दूर होकर ख़ुद को ख़ुद में समेट लिया,,आज भी इस बात को याद कर उसकी आँखें भर जाती हैं ,,आज भी वो दिवाकर को भूली नहीं, उसे यादकर रो पड़ती है,,और सोचने पर मजबूर हो जाती है कि,,,
जाने कैसे लोग इस तरह दोहरे चेहरे लगाकर किसी की ज़िन्दगी से खेलते हैं,,।
#दोहरे_चेहरे
मधु झा