सुन्दर, सुशील और शान्त स्वभाव की होने के बाद भी सुजाता जी को उनकी बहू हिया कभी पसन्द नहीं आ सकी। हिया का दोष मात्र इतना था कि सुजाता जी के इकलौते बेटे अर्णव ने उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर उससे लव मैरिज की थी, जबकि वे अपनी बचपन की सहेली तरुणा की बेटी तन्वी को बहू बनाना चाहती थीं। उनके विरोध करने पर अर्णव ने स्पष्ट कर दिया था,
“मुझे तन्वी जरा भी पसन्द नहीं है मम्मी। उसके और मेरे स्वभाव में ज़मीन-आसमान का फ़र्क भी है। आपकी मर्ज़ी से शादी कर भी लूँ उससे, तो निभा नहीं पाऊँगा, क्लीयर बताये दे रहा हूँ। समझो न आप!”
“अरे क्यों पसन्द नहीं है, इतनी अच्छी लड़की है। ऊपर से माँ-बाप की प्रॉपर्टी की अकेली वारिस। तरुणा की इकलौती बेटी है वो…जैसे तुम हमारे इकलौते बेटे हो!”
“तभी तो पूरी नकचढ़ी है। उसके नखरे झेलना मेरे बस की बात नहीं है मम्मी! फिर..फिर…मुझे हिया पसन्द है, मेरे ऑफिस के पास ही उसका भी ऑफिस है। दो-तीन सालों से हम दोस्त हैं, मुझे उसी से शादी करनी है!”
“ये क्या बोल रहे हो अरु? ऐसा कैसे कर सकते हो तुम! …कब से हम तुम्हें बताते आ रहे हैं कि हमने और तन्वी के पैरेंट्स ने तुम दोनों का…दूसरी किसी लड़की को मैं अपने घर की देहरी नहीं लाँघने दूँगी, साफ बता रही हूँ मैं भी!”
“ओss कम-ऑन मम्मी! इस बात को मैं तो हमेशा मज़ाक समझता आया था…आप लोग सीरियस थे अभी पता चल रहा है मुझे। आपको अगर हिया का अपने घर आना मंजूर नहीं तो कोई बात नहीं, मुझे कम्पनी क्वार्टर दे रही है, हम वहीं शिफ्ट हो जायेंगे। आप दोनों के सारे खर्च हम उठाते रहेंगे…जरूरत पड़ने पर हर तरह से देखभाल भी करेंगे…आप लोग निश्चिंत रहिएगा।”
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पति रिटायर्ड थे और बेटा इकलौता कमाने वाला। भले ही उसने उनके खर्चे उठाने की हामी भरी थी लेकिन क्या पता कब बहू कोई पट्टी पढ़ा दे और वो मुँह मोड़ ले, गहरे सोच-विचार के बाद बेमन से सुजाता जी ने उनकी शादी को अपनी स्वीकृति दे दी।
हिया बहू बन कर उनके घर आ गयी और उसने आते ही घर के अधिकतर काम अपने कन्धों पर उठा लिये। उसने कम्पनी से महीने भर की छुट्टी ले रखी थी ताकि हर समय साथ रह कर सास-ससुर के करीब आ सके। उनकी अच्छी सेवा करके उनका दिल जीत सके।
बेचारी की सारी कोशिशें नाकामयाब रहीं। जी-जान लगाने के बाद भी सास कभी सन्तुष्ट नहीं हुईं। हाँ उसके समर्पण और परवाह के कारण ससुर जी जरूर उससे सहानुभूति रखने लगे थे। वे पत्नी को समझाने का प्रयास करते रहते थे, पर बहू के पक्ष में उनके मुँह खोलते ही सुजाता जी दोगुना क्लेश करतीं। फिर स्वयं को असहाय पाते हुए वे सास-बहू और बेटे के मामले में निर्लिप्त ही रहने लगे। वे शुरू से थोड़े दब्बू स्वभाव के भी थे। घर में कैसे भी करके शान्ति रहे, अर्णव की तरह वे भी सोचने लगे थे।
अपने आप को अकेली और उपेक्षित महसूस करके हिया के अंतर्मन में उदासी व्याप्त होने लगी थी। कहाँ तो वह सोच कर आयी थी कि सबकुछ ठीक रहेगा तो सास-ससुर की इच्छानुसार वह अपनी नौकरी छोड़ देगी। जिस बात में घरवालों की ख़ुशी होगी, वो वही करेगी। पर अब उसको लगने लगा था कि घर के ऐसे वातावरण में वह घुट-घुट कर कहीं अवसाद की चपेट में न आ जाये। अतः छुट्टी खत्म होने पर उसने अपनी नौकरी पर लौट जाना उचित समझा।
इस बात से सुजाता जी के भीतर और अधिक चिढ़ भर गयी। उन्हें लगने लगा था कि नौकरी के लिए बाहर निकल कर हिया उन्हें नीचा दिखाना चाहती है। कमाई वाली, आत्मनिर्भर होने का रौब गाँठना चाहती है। अब तो अक्सर बहू को सुनाती हुई वे बोलतीं,
“हुँह, महारानी जी बस नाश्ता-खाना बना कर निकल लेती हैं, घर के बाकी सारे काम पीछे छोड़कर, जैसे बाप ने चार नौकर भेज रखे हैं। रोज-रोज बाहर जाकर गुलछर्रे उड़ाने की आदत जो पड़ी हुई है!”
हिया अंतर्मुखी होने के कारण कभी अपनी घुटन किसी से बाँट नहीं पाती थी, हाँ अर्णव को थोड़ा-बहुत अपने से अंदाज़ा होता रहता था कि माँ उसके साथ बुरा बर्ताव करती हैं लेकिन वह हिया से ही समझदारी की उम्मीद करता था। उसे ही थोड़ा सहनशील बन कर चलने की सलाह दिया करता था। उसका सोचना था कि इस उम्र में मम्मी तो एक झटके में अपना नेचर बदलने से रहीं, हम लोगों को ही थोड़ा एडजस्ट करके चलना पड़ेगा, आखिर माँ की इच्छा के विरुद्ध जो शादी की है। फिर उसे मन के किसी कोने में आस भी थी कि अपने अच्छे व्यवहार से हिया जल्दी ही माँ का मन मोह लेगी, उन्हें अपने प्रति अच्छा व्यवहार करने पर विवश कर देगी।
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हिया अपने ऊपर व्यंग्यबाण और ताने तो दिल पर पत्थर रख कर सह ले रही थी मगर सास द्वारा उसके माँ-पिता को नित्य, निरन्तर कोसा जाना उससे बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। मायका ऐसे भी किसी विवाहिता के लिए भावुक व संवेदनशील विषय होता है, जिस पर उठने वाली एक उँगली भी वह सह नहीं पाती। सुजाता जी के दुर्व्यवहार के बाद हर बार हिया आत्ममंथन करने लगती। मेरे माँ-पापा का क्या दोष है? उन्होंने क्या अपराध किया है? क्या बस यही कि उन्होंने बेटी की खुशियों को अपनी खुशी समझा है। बेटी के सपनों का घर बसाने लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगा कर उसे विदा किया है।
“ज्यादा पढ़ा लिखा भर देने से बेटी के माँ-बाप के फर्ज पूरे नहीं हो जाते, अच्छे संस्कार देना ज्यादा जरूरी होता है। …लेकिन जब खुद ही कुसंस्कारी हों तो लड़की को क्या सिखायें!” सुजाता जी अक्सर कहतीं। कई बार सुनाती चली जातीं,
“अपनी लड़की को नौकरी करने के बहाने से खुल्ला छोड़ कर रख दिया था…कि जा बेटी कोई अच्छा-भला मोटा मुर्गा देख कर फाँस लेना, ताकि हमारा लाखों का दान-दहेज बच जाये!”
हिया का हृदय रो उठता, ऐसे अनर्गल आरोपों से। कौन से माता-पिता ऐसी शिक्षा देते होंगे। और मम्मी-पापा ने अपने सामर्थ्य अनुसार दिया तो है। इन लोगों की माँग पर शादी की अधिकतर रस्मों में खुल कर खर्चा भी किया है। भले कर्जे में दब गये हैं लेकिन बेटी के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी है।
इन दिनों हिया से जब उसकी माँ मिलतीं तो पूछतीं, “बिटिया तू ससुराल में अच्छे से तो रहती है न? तुझे कोई तकलीफ तो नहीं लाड़ो? दामाद जी तेरा ध्यान तो रखते हैं न?”
हिया का मन करता कि माँ के सामने दिल का सारा दर्द उड़ेल उनकी छाती से लग कर ख़ूब रोये और अपना मन हल्का कर ले लेकिन जैसे ही माँ की उम्मीदों से भरे चेहरे पर उसकी नज़र पड़ती, वह खोखली हँसी हँसती कह दिया करती,
“हाँ माँ, एकदम अच्छे से रहती हूँ मैं! …आपके दामाद पूरा ख़याल रखते हैं, मम्मीजी, पापाजी भी बहुत अच्छे हैं!”
माँ की आँखों में सुकून पसर जाता और हिया उसी में अपनी ख़ुशी ढूँढ़ लेती। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे।
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सुजाता जी का आज जैसे ही रसोई में गयीं, बहू वहाँ नहीं दिखी बल्कि सारा काम आधा-अधूरा फैला हुआ दिखा। मौका पाते ही फिर से उनका पारा गरम हो गया और तुरन्त उन्होंने बड़बड़ाना शुरू कर दिया,
“सारी रसोई फैला कर कामचोर न जाने कहाँ मर गयी है। …फिर औने-पौने सब निबटा कर निकल लेगी अपनी नौकरी पर…यहाँ ये नौकरानी जो बैठी हुई है महारानी जी के पीछे घर सँभालने को!”
आज सोकर उठने के बाद से ही हिया को तबीयत कुछ अच्छी नहीं लग रही थी। अर्णव अभी तक गहरी नींद सोया हुआ था। किसी तरह हिया उठी तो उसे अपना सर घूमता और जी मिचलाता सा लगा। पर हिम्मत जुटा कर वह उठ खड़ी हुई। नहा-धोकर फ्रेश होने के बाद उसे कुछ अच्छा महसूस हुआ तो वह अर्णव को बिना जगाये बाहर चली गयी। रसोई में पहुँच सास-ससुर को चाय बना कर देने के बाद वह सबके नाश्ते और खाने की तैयारी में लग गयी। उसने सब्जियाँ काट कर रख लीं और मसाला पीस कर रख लिया। अभी वह आटा गूँधते सोच ही रही थी कि ऑफिस फोन कर देती हूँ सी.एल. के लिए, उसे जोर की उबकाई आयी और वह मुँह पर हाथ रखती दौड़ कर अपने कमरे के वॉशरूम को चली गयी।
मुँह-हाथ धोकर वह जैसे ही वहाँ से निकली, उसके कानों में सासूमाँ के बड़बड़ाने की आवाज़ पड़ गयी।
“भिखारियों ने अपनी कामचोर, आवारा बेटी को आगे करके मेरे सोने जैसे बेटे को फँसा लिया। …भगवान करे सच के भिखारी बन सड़क पर आ जायें। ..कटोरा लेकर भीख माँगते फिरें!”
लगातार ऐसी बददुआएँ सुनती और सहती आ रही थी हिया। मगर आज अस्वस्थ तन के कारण उसके मन की घुटन हद से ज्यादा बढ़ गयी और उसकी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया। तत्काल उसने एक भयानक निर्णय ले लिया। शायद डिप्रेशन के दौरे जैसी स्थिति में उसका अपने दिमाग़ पर नियंत्रण न रहा था। सास-ससुर के कमरे की सफाई करते समय वह उनकी टेबल पर नींद की गोलियों का डब्बा हमेशा देखा करती थी। वह अनायास ही वहाँ जा पहुँची। देखा कमरे में कोई नहीं था। ससुर बाहर बरामदे में बैठे हुए थे, सास रसोई में अपने प्रलाप में लगी हुई थीं। यंत्रचालित-सी वह डिब्बा उठा लायी। अपने कमरे में वापस आकर दरवाजा लॉक कर लिया। फिर ढेर सारी नींद की गोलियाँ हलक में उतार लीं और कमरे के एक किनारे बिछे काउच पर गिर कर गहरी नींद सो गयी, दुबारा कभी न उठने के लिए। वहीं बगल में पलंग पर अर्णव अभी तक गहरी नींद सोया पड़ा था। इस बात से बेख़बर की उसकी दुनिया उजड़ चुकी है।
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उधर जब देर तक हिया रसोई में वापस नहीं आयी, सुजाता जी गुस्से में उबलती हुई उसके माँ-बाप को गालियों से नवाजती हुई बाहर तक चली गयीं ये सोच कर कि बहूरानी जरूर ससुरजी को मक्खन लगाने कुछ लेकर गयी होगी और उन्होंने उसे पास ही बिठा लिया होगा। लेकिन बाहर उन्हें अपने पति अकेले समाचारपत्र में मुँह छुपाये दिखे, हिया का कहीं अता-पता नहीं था। वे दौड़ती हुई वापस बेटे के कमरे तक गयीं। दरवाजा अन्दर से बन्द पाकर उन्होंने उसे बुरी तरह से पीट डाला। तो महारानी सारे काम छोड़ कर फिर से कमरे में घुस गयी है। आज नहीं छोड़ूँगी इसे, अर्णव से बोल कर इसकी अकल ठिकाने लगवाती हूँ, दरवाजा खटखटाते वे यही सोच रही थीं।
लगातार दरवाजे पर पड़ती जोरों की थाप से अर्णव चौंक कर जागा। भाग कर दरवाजा खोला तो माँ को आँखों से अंगारे बरसाती पाया।
सुजाता जी बेटे को बाजू धकेल कमरे में घुस गयीं। बहू को औंधे पड़ कर सोते हुए देख कर वे चीखने लगीं।
“देख तेरी बीवी की मक्कारी!…उधर सारे काम फैला हुआ छोड़ कर…!”
अर्णव पहली बार हिया को इस समय सोया हुआ देख रहा था। कहीं इसकी तबीयत तो ख़राब नहीं हो गयी है, सोचता हुआ उसे जगाने लगा। और थोड़ी ही देर में जैसे ही उसे आभास हुआ कि हिया सोयी नहीं है बल्कि बेहोश है, उसके पाँवों तले से जमीन खिसक गयी।
आनन-फानन में परिचित डॉक्टर को फोन करके बुलाया गया जिसने चेकअप करके हिया की मृत्यु की पुष्टि कर दी। अर्णव के साथ-साथ उसके माँ-बाप को साँप सूँघ गया मानो। “ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं, नहीं डॉक्टर साहब, आपको जरूर कोई ग़लतफ़हमी…!”
मगर सच अपने विद्रूप रूप में सामने था। अनहोनी घट चुकी थी।
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पत्नी की ऐसे असमय मौत और ऊपर से पुलिस, कोर्ट-कचहरी के चक्कर, अर्णव के लिए यह सब एकदम असहनीय था। बहू को आत्महत्या के लिए उकसाने का पूरा इल्जाम माँ-बाप पर आते देख उसने अपने बयान में सारा दोष अपने सर ले लिया। पूछताछ में हर बार यही झूठ कहता रहा कि दोनों की पटती नहीं थी। उसके और हिया के बीच बहुत ज्यादा झगड़े होते थे।
इंस्पेक्टर शैलजा जब उसका लिखित बयान दर्ज कर रही थीं, अर्णव कुछ सोचता हुआ बता रहा था,
“कल की लड़ाई में हिया ने गुस्से में मुझे धमकी दी थी कि वह सुसाइड कर लेगी, जिसके जवाब में मैंने कह दिया था कि ऐसी कोरी धमकियों से मैं डरने वाला नहीं हूँ। मरने वाले बोल कर नहीं मरते…मुझे क्या पता था कि वो सचमुच…।”
इस बयान के बाद पुलिस ने अर्णव को गिरफ्तार कर लिया और उस पर नवविवाहिता पत्नी की परोक्ष हत्या का मुकदमा दायर हो गया।
हिया के घरवाले बेटी के गम में पागल हो उठे थे। जिस हँसती-खेलती लाड़ली को उन्होंने कुछ माह पहले डोली में बिठा कर यह समझ कर विदा किया था कि वो अपने मनपसन्द हमसफ़र के संग जिंदगी को भरपूर जियेगी, उसकी ऐसी अकल्पनीय परिणति उनसे सहन नहीं हो रही थी। उनकी याचिका पर अर्णव की जमानत की अर्जी नामंजूर हो गयी और उसे केस के पहले चरण के फैसले तक के लिए जेल में डाल दिया गया।
एक निर्दोष इन्सान के लिए यह सब झेलना किसी बड़े सदमे से कम नहीं था। ऊपर से जेल के अन्दर की काली दुनिया। अर्णव के लिए दुर्दान्त अपराधियों के बीच रहना जीवित नरक भुगतने जैसा था। वहशत से भरे हुए कई पुराने और घाघ मुजरिम वहाँ ऐसे थे जो नये आये हुए कैदियों का कई तरीकों से शोषण करते थे। ऊपर तक उनकी पहुँच और कानून के रखवालों से साँठगाँठ होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनकी शिकायत करे। अगर कोई शिकायत करे भी तो कोई सुनवाई नहीं होनी थी, उल्टा शिकायत करने वाले की शामत आ जानी थी।
अधिक दिनों तक अर्णव यह सब झेल नहीं सका। उसका नर्वस ब्रेकडाउन हो गया। उसकी पागलों जैसी हालत देख कर जेल के वार्डन की रिपोर्ट पर उसे जेल में स्थित अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहाँ के डॉक्टर द्वारा उसकी मानसिक स्थिति गंभीर होने की सूचना पर उसको तत्काल मेंटल ट्रॉमा सेंटर में भर्ती करवाया गया। वहाँ भी उसकी हालत सुधरने के बजाए दिनों-दिन बिगड़ती ही चली गयी।
और एक दिन विशेषज्ञ डॉक्टर ने अर्णव के बारे में अपनी फाइनल रिपोर्ट जेल प्रशासन तथा मरीज के घरवालों को सौंप दी, कि ऐसे सीवियर केस के पेशेंट का पूरी तरह से ठीक हो पाना नामुमकिन है। रिपोर्ट सुनते ही सुजाता जी को पहली बार एहसास हुआ कि उनकी हँसती-खेलती दुनिया उजड़ने वाली है। उन्हें भान होने लगा कि उन्होंने अपने हाथों से अपना सब कुछ नष्ट कर डाला है।
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प्रस्तर-प्रतिमा सी वे किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी थीं कि तभी उनके पति रोते-कलपते हुए उनके पास आये और सबके सामने ही चीख-चीख कर सारी बर्बादियों का दोषी उन्हें ठहराते कहने लगे, “ऐसी औरत के साथ मैं अब एक पल भी नहीं रहूँगा। आज से ही किसी वृद्धाश्रम में जाकर रह लूँगा या फिर मथुरा-वृन्दावन चला जाऊँगा। इस कलंकिनी का चेहरा भी दोबारा नहीं देखूँगा।
जो क़रीबी परिवार वहाँ जुट आये थे, आपस में कानाफूसी करने लगे। सुजाता जी को किसी का फुसफुसाता स्वर सुनाई दिया, “अपने ही बच्चों को खा जाने वाली डायन न देखी हो तो देख लो एक बार, ऐसी होती है!”
“और नहीं तो क्या, अपने कोखजाये तक की खुशी बर्दाश्त नहीं थी इसे तो…दूसरों का तो क्या ही भला सोचेगी!” किसी की हिकारत भरी आवाज़ सुनाई दी।
“ऐसी नीच की परछाईं भी पड़े तो अनर्थ हो, चलो जल्दी यहाँ से!” कोई और कह रहा था।
एकाएक सुजाता जी की अपनी अंतर्आत्मा भी चीख-चीख कर उनसे उनके कर्मों का हिसाब पूछने लगी।
“किस बात की कमी थी तुझे सुजाता? घर में सबकुछ भरपूर भरा हुआ था, सब कुछ जरूरत से ज्यादा ही था, कम नहीं। बेटे की शादी में तगड़ा दान-दहेज वसूलने की भूख ने तुझे कहीं का न छोड़ा। आँख खोल कर देख तो जरा… दूसरे की बच्ची के लिए पाले हुए वैमनस्य की आग ने तेरे अपने जिगर के टुकड़े को लपेट लिया। उसी आग से तुम्हारी सोने जैसी गृहस्थी जल कर राख हो गयी। क्या करेगी अब? अपना ये कलंकित मुँह लेकर कैसे जीयेगी??किसके लिए जीयेगी???क्यों जीयेगी???जी कर क्या करेगी???”
अपराध-बोध, आत्म-ग्लानि और पश्चाताप की ज्वाला उनके मन में धधकने लगी। भीतर ही भीतर उस निरन्तर तेज होती अग्नि में वे समूची जल मरीं! और फिर…फिर…!
“हाहाहाःहाहा!… हाहाहा!!…हाहाहाःहाहा!!!”
अपने सिर के बाल नोचती वे अट्टहास कर उठीं। सामने खड़े सभी लोग अब नितान्त अपरिचित थे उनके लिए, किसी को भी वे पहचान नहीं पा रही थीं। दोनों हाथ ऊपर उठाये, उसी तरह से पैशाचिक हँसी हँसती वे बाहर सड़क की ओर दौड़ पड़ीं।…और अंधाधुंध दौड़ती चली गयीं, दौड़ती ही चली गयीं।
_____________________समाप्त_____________________
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़