यह बात लगभग 30 साल पहले की है। गणतंत्र दिवस आने ही वाला था ,,, स्कूल में बच्चों से गायन और नृत्य में भाग लेने के लिए नाम लिखे जा रहे थे,,, मुझे गाना और नृत्य दोनों ही नहीं आते थे तो मैं सुनने वालों में शामिल रहती थी,,,,, सारे बच्चों से सुना जा रहा था कि उस दिन किसी प्रकार की गलती ना हो,,,, सर ने आठवीं क्लास में पढ़ने वाली एक दीदी को खड़ा किया जो हम सब बच्चों में बहुत लंबी और शायद उम्र में भी बहुत बड़ी थी उनको देखकर हम लोगों को बड़ा अटपटा सा लगता था कि यह दीदी हमारे साथ पढ़ती है लेकिन यह तो इतनी बड़ी है कुछ समझ में नहीं आ रहा था मेरा एक प्राइवेट स्कूल था जो पीएसी छावनी के सामने था उन दीदी के भैया पीएसी में नौकरी करते थे,,,, दीदी को गांव से अपने साथ लेकर आए थे पढ़ाने के लिए ,,तो उनका एडमिशन हमारे साथ करवा दिया गया,,,,, जब धीरे-धीरे बात पूरे स्कूल में फैली तब मुझे भी पता चला इन दीदी को खाली अंकतालिका चाहिए शादी के लिए,,,,, इसलिए उनका दाखिला करवाया गया है।
26 जनवरी में गाने के लिए उनसे कहा गया तो शायद उनको यह भी नहीं पता था कि गणतंत्र दिवस पर किस प्रकार के गीत गाए जाते हैं।,,,,,, तो उन दीदी ने एक बड़ा अटपटा सा गीत गाया,,,,, गीत के बोल आज भी मेरे मानस पटल पर अमित छाप छोड़ गए जिसने मुझे अंदर तक झकझोर दिया,,,,,,, गीत के बोल थे,,, सांवरिया ने मोरी मार दई दई दई,, जरा सी रोटी कच्ची बेलन की मार दई दई दई,,, इस प्रकार के गीत को सुनकर सारे बच्चों को हंसी आ गई शायद सर को भी हंसी आ रही थी
बड़ा अटपटा सा लग रहा था वह दीदी भी असहज हो गई,,,,, क्योंकि वह स्कूल के माहौल व किस प्रकार के देशभक्ति गीत होते हैं। से शायद अवगत नहीं थी ,,उनकी उम्र भी हम बच्चों के साथ पढ़ने की नहीं थी,, आगे की बोल मुझे अच्छे से याद नहीं है । लेकिन सारे ही गीत में मार की बात बार-बार दोहराई जा रही थी,,, सर ने उनको बैठा दिया गया इस तरह के गीत नहीं गाए जाते,,,, कोई देश भक्ति गीत हो तो सुनाओ,,, बे बैठ गई,,, लेकिन उनका यह गीत गणतंत्र दिवस पर बहुत कुछ कह गया,,,,, हम सभी बच्चों की छुट्टियां हो गई और हम सब अपने घर आ गए,,,, घर आते ही मैंने अपनी मम्मी से इस बात का जिक्र किया,,,,, मैंने अपनी मम्मी को इस गीत को भी बताया थोड़ा-बहुत अर्थ मैंने अपने मन से लगा लिया कुछ अपनी मां की सहायता से मैंने उसको समझ लिया इस गीत में बात क्या की जा रही है। लेकिन इस गीत मेने मेरे मन को इतना प्रभावित किया मुझे इस गीत को सुनकर ऐसा लगने लगा की महिलाएं तो मार खाने के लिए ही होती हैं। उन्हें जरा जरा सी बात के ऊपर मारा जाता है।,,,, पति अपनी पत्नी को मारने का पूरा हक रखता है।,,,,, मैंने अपने मम्मी पापा को कभी लड़ते झगड़ते या हिंसात्मक चीजें अपने घर में नहीं देखी थी इसलिए इस गाने ने मुझे बहुत ज्यादा झकझोर दिया,,,,, कि ऐसा भी होता है।
फिर मैं सोचने लगी मेरे घर नहीं तो कहीं किसी और के यहां तो होता होगा,,,,,,, फिर मैंने मूल्यांकन करना शुरू किया,,, इस प्रकार की गंभीर घटना को लोग बड़े सहज भाव से लेते थे जैसे कोई खास बात ना हो गली मोहल्ले आसपास मुझे सुनने को तो मिल ही जाती थी मेरा मन बड़ा खराब हो जाता,,, हम सारे बच्चे एक ही तो स्कूल में पढ़ते थे फिर मारने का हक पुरुष को ही क्यों,,,,, बात यह पुरानी जरूर है लेकिन आज भी यह कई घरों में बखूबी यह गीत चित्रार्थ होता है जिसकी खबर आसपास वालों को तो होती ही है लेकिन पुलिस थाने तक नहीं पहुंच पाती,,, क्योंकि यह एक बहुत साधारण सी बात है आम बात है।
मीडिया भी इन छोटी-छोटी हिंसा पर संज्ञान नहीं लेता,, इतना तो सहन करना ही पड़ता है तभी तो घर परिवार चलेगा यहां पुरुष के मारने की बात कही जा रही है जो उसे आदत के रूप में विरासत से मिली है। जहां परिवार के संस्कार सही है वह इस प्रकार की घटनाएं भी नहीं है। इस प्रकार के केस बहुत कम संज्ञान में आते हैं या बड़े स्तर पर नहीं उठ पाते हैं। कुछ भी कहा जाए नाइंसाफी तो है।,,,, इस प्रकार की चीजें ग्रामीण अंचलों में अधिक हैं लेकिन शहर भी अछूते नहीं है।,,,,, घरों के अंदर कई कारण बस बेटियों को समझौता ही करना पड़ता है।,,,, क्योंकि हमारे संस्कार कहते हैं कि हमें किसी भी हालत में घर नहीं तोड़ना,,,,,, मारपीट तक तो चल ही रहा था ,,,, यह पुराने समय का गीत होगा जिसमें किसी स्त्री ने अपनी पीड़ा को संजोया उन्हें शब्दों का नाम दिया,,,,,,, लह के साथ गाया,, यह रुकना चाहिए था लेकिन यह रोका नहीं,,,, हम आधुनिक हो गए तो हिंसा भी बड़े आधुनिक तरीके से होने लगी मारपीट के तो निशान चले जाते थे,,,,, एक ऐसा घाव,, एसिड फेंक दो जिससे हमेशा के लिए चेहरा खराब हो जाए,, अब बिगड़े हुए चेहरे को लेकर असहनीय पीड़ा को रोते हुए जिंदगी को काटना,,,,,, मारपीट हत्या , बलात्कार तो चल ही रहा था,,,,,, हम और आधुनिक हो गए तो अत्यधिक आधुनिक हिंसा होने भी होने लगी,,,,, अब तो हमारे शरीर को टुकड़ों टुकड़ों में बारीक बारीक काट दिया गया,,,,,,
तब तो बेटियां अनपढ़ थी,, आज तो पढ़ी-लिखी कमाने वाली है। फिर भी टुकड़े-टुकड़े क्यों,,,,? पिता ने ब्याहया तब भी बेटियों ने हिंसा सहन की मौन होकर,,,,,, अपने पिता की इज्जत के लिए,,,, अपनी मर्जी से जीवन साथी चुना या उसके साथ रहे आप कुछ भी कह सकते हैं तब भी बेटी के साथ हिंसा हुई,,, दोनों ही स्थितियों में कुछ टुकड़े छुप गए,,,, कुछ टुकड़े छप गए,,,, दोनों ही स्थितियों में हिंसा तो हुई,,,,, इन टुकड़ों की वेदना को भी कोई शब्दों का रूप दे और इस वेदना का एक गीत बन जाए,,,, वे पुरानी न जाने कौन सी स्त्रियां रही होंगी जिन्होंने अपनी वेदना को गीतों में ढाला,,,,, रात बलम ने ऐसी ऐसी मारी,,,,,,, कोई ना आयो बचावे को,,,,,, अब शायद यह गीत लिखा जाएगा,,,,,, टुकड़े टुकड़े करता साथी,,,, जंगल जंगल फेंके साथी,,,,, तूने एक बार ना सोचा साथी,, तेरे लिए ही मां-बाप छोड़े साथी,,,
ये कैसी थी प्रीत तुम्हारी साथी,,,, टुकड़े-टुकड़े काटा साथी,,,,, बाल्यावस्था से सुनते सुनते प्रौढ़ावस्था में पहुंच गई हूं। मारने से शुरू हुआ था आधुनिकता में आते आते टुकड़ो टुकड़ो काट दिया गया इतने सालों बाद भी आज भी दर्द का कोई उपचार ना होकर,,,,, लाइलाज बनता जा रहा है। दर्द का नासूर बन गया है।,,,,, आशा करती हूं आधुनिक युग है आधुनिक हिंसा का कोई ना कोई उपचार मिल जाएगा शायद इस पीड़ा से मैं आजाद हो जाऊंगी,,,, असहनीय दर्द से मैं मुक्त हो जाऊंगी,,,,,, इस दर्द के नासूर का इलाज मिल जाए,,,, यह मेरे जीवन की एक बाल काल की घटना थी उस गणतंत्र दिवस से लेकर इस गणतंत्र दिवस पर मैं आशा करती हूं कि कोई तो गणतंत्र दिवस ऐसा आएगा जिस गणतंत्र दिवस में हमें भी लोकतंत्र का अनुभव होगा और और बेटियों के दर्द के नासूर का उपचार हो जाए,,,
#दर्द
मंजू तिवारी. गुड़गांव