शाम हो गई थी |बूढ़ी सरला काकी ने अपनी चाय की दुकान समेट ली |जाड़े का समय था |अब किसी ग्राहक के आने की उम्मीद न थी |वह चूल्हे के आग पर रात के लिए रोटियां सेंक रही थी |रात के साथ- साथ वह सुबह के लिए भी रोटी बना लेती थी| शाम को चूल्हे पर रोटी सेंकने में उसे अच्छा लगता था
|एक तो सुबह अन्य कामों के लिए समय मिल जाता था और दूसरे चाय बनाने के बाद बचे आंच का उपयोग भी हो जाता था | रोटी भी बन जाती थी और जाड़े में आग तापने को भी मिल जाता था |
रात में तो गरम गरम रोटी खाने में उसे बहुत अच्छा लगता था पर सुबह रोटी ठंडी हो जाने पर कड़ी हो जाती थी |जिन्हें वह अपनी दुकान शुरू करने के पहले गरम करके चाय के साथ खा लेती थी |
रोटी बनाते -बनाते काकी पुरानी यादों में खो गई | यही घर है, जहाँ वह आज से करीब चालिस- पैंतालिस साल पहले दुल्हन बन कर आई थी | उसका पति रामनाथ एक सीधा -साधा इंसान था |थोड़ी सी खेती , यह घर और घर के बाहर चाय की दुकान यही पूंजी थी |
परिवार में पति -पत्नी, एक बेटा राजू और उसकी माँ थी |दोनों पति-पत्नी ने आजीवन अच्छी तरह एक दूसरे का साथ निभाया | उनका बेटा राजू भी एक योग्य संतान था |उनकी सारी बातें मानता और हर तरह से मदद करता था |
उनकी मदद करने और घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए ही तो शादी के दो साल बाद ही वह शहर चला गया था |वहाँ उसे एक फैक्टरी में काम मिल गया |वह वहाँ मन लगाकर काम करता और घर पैसे भी भेजता था |घर की दशा सुधरने लगी | कुछ व्यवस्थित होने पर वह अपनी पत्नी और बेटे को भी शहर ले गया |
सरला और रामनाथ खुश थे |राजू उनसे मिलने आता और मदद भी करता था | सब कुछ रास्ते पर आ रहा था |तभी अचानक सब बिखर गया |
कोरोना की लहर ने एक झटके में ही सबकुछ तहस -नहस कर दिया |राजू का पूरा परिवार शहर में कोरोना की भेंट चढ़ गया और उनकी सारी दुनिया लुट गई |दोनों पति -पत्नी छाती पिटते रह गए | महीनों दुकान नहीं खुला,चूल्हा नहीं जला |दोनों बेसुध पडे रहते,पर जिंदगी तो रूकती नहीं और जिंदा रहने के लिए पैसे तो चाहिए ही |
सारी जमा पूंजी खत्म हो गई | तब रामनाथ ने किसी तरह हिम्मत करके अपनी दुकान फिर शुरू की |दोनों एक दूसरे को सांत्वना देते, मदद करते, सुख दुःख बांटते फिर जीने लगे |जिंदगी कटने लगी |जीवन की जरूरतें सामान्य रूप से पूरी होने लगी |
दोनों अंदर से पूरी तरह टूट चुके थे, पर एक दूसरे को समझाते और एक दूसरे का ध्यान रखते जिये जा रहे थे | तीन साल पहले रामनाथ भी चल बसा और सरला अकेली रह गई | जिंदगी की जरूरतें उसे अपनी दुकान चलाने के लिए बाध्य किये थी, पर अब उससे काम हो न पाता था |
वह तन मन से टूट चुकी थी |किसी तरह काम कर रही थी |उसे लगता, कोई उसकी मदद करता, गरम गरम रोटी बनाकर खिलाता | “मेरे ऐसे नसीब कहाँ, जो मुझे कोई रोटी बनाकर खिलाये |”
सरला के मुंह से आह निकली | “प्रणाम, काकी |एक कप चाय पिलाओगी ? ” आवाज सुनकर सरला ने सिर उठाया |सामने सरजू खड़ा था | “आओ, बैठो |देखती हूँ |” सरला उठते हुए बोली |भीतर से चाय के बरतन लाकर चाय बनाने लगी |
” और सुनाओ सरजू, क्या हाल है ? ” सरला उसे चाय देते हुए बोली | “क्या बताऊँ काकी? हाल तो एकदम अच्छे नहीं है | ” सरजू चाय लेते हुए बोला | “ऐसा क्यों कहते हो बेटा? ” सरला ने पूछा |”तुम तो शहर में काम करते थे ना |’ “करता था काकी, पर इस कोरोना ने नौकरी छीन ली और किस्मत ने बापू |
अब पास में न तो पैसे है ं, न कोई काम, ना कोई खेती -बारी | बहुत प्रयास कर रहा हूँ पर गाँव में कोई काम न पा रहा हूँ |कभी-कभी कोई काम मिल जाता है तो फिर तीन चार दिन तक कोई काम नहीं मिलता |माँ भी कभी-कभी कुछ करके थोड़ा ले आती है |
इसतरह कभी कुछ खाने को मिल जाता है, कभी उपवास हो जाता है |ये भी कोई जिंदगी है |शहर जाकर भी देख लिया |कुछ ढंग का काम न मिला | खर्च अलग बढ़ गया |माँ भी अकेली परेशान और बिमार हो गई , तो लौट आया |अब क्या करूं? कुछ समझ नहीं आ रहा|”सरजू थोड़ा रुक कर फिर बोला- ” दो दिन से घर में चूल्हा नहीं जला है | माँ पडोस से थोडे से चिबडे मांग कर लाई थी, वही खाकर पानी पिया है |
सर दर्द से फटा जा रहा है, तभी तुम से चाय मांग ली, पर चाय के पैसे भी मेरे पास नहीं है | जिंदगी ने बहुत दर्द दिये हैं काकी |ऐसी जिंदगी से तो मौत भली |लगता है मर जाऊँ ||” कहते-कहते सरजू रोने लगा | “अरे ना रे पगले ||मां की सोच, उसका क्या होगा ?
तेरे अलावा उसका है ही कौन?औलाद के बिछड़ने का दुख मैं जानती हूँ और तुमसे चाय के पैसे कौन मांग रहा है ? ले चाय के साथ- साथ रोटी भी खाले | अपनी माँ के लिए भी रोटी और चाय लेते जाना |”सरला काकी उसे रोटी देते हुए बोली |”
आत्महत्या महापाप है, नहीं तो मैं ना कर लेती |इत ना बड़ा महापाप करके जायेंगे तो अगले जन्म मेंऔर ज्यादा कष्ट उठाना पडेगा | दिमाग शांत कर और मरने की बात मत कर |” “फिर मैं क्या करूँ? ” सरजू बोला | “दर्द का बंटवारा “काकी सोचते हुए बोली| ” दर्द का बंटवारा |मैं कुछ समझा नहीँ |”सरजू काकी का मुंह देखने लगा | “देख सरजू, दर्द तेरी ज़िंदगी में बहुत है और मेरी जिंदगी में भी बहुत है|
क्यों ना हम आपस में अपना दर्द बांट लें |” सरला गंभीरता से बोली | “कैसे ? ” सरजू काकी का मुंह देखने लगा | ” तुम मेरी इस दुकान को सम्हालो, अच्छे से मेहनत से चलाओ | मैं तो कहती हूँ कि तुम अपनी माँ को भी इस दुकान में लगाओ | अभी मैं चाय के साथ सिर्फ बिस्कुट रखती हूँ |
अब चाय के साथ -साथ समोसे, कचौड़ी, निमकी और जलेबी भी बनायेगे ं |तुम्हारे काका के समय में हम ये सब बनाते थे |मुझे पता है ये सब कैसे बनते हैं |मैं बताउंगी, तुमलोग बनाना |
मैं भी यथाशक्ति मदद करूंगी |बदले में मुझे खाना बनाकर खिलाना, जरूरतें पूरी करनाऔर हारी-बिमारी में देखभाल कर देना |मैं भी तो अकेली ही हूँ ना |मुझे बुढ़ापे में देखभाल करने वाला मिल जायेगा और तुम्हें काम |”सरला समझाते हुए बोली |
“चाय बनाना तो ठीक है, पर समोसे, जलेबी बनाने के लिए सामान कहाँ से आयेगा? ” सरजू ने आशंका जाहिर की | “मैंने दो -चार रूपये करके कुछ पैसे जोडे हैं |शुरुआत तो हम कर ही सकते हैं |जरूरत पड़ी तो कुछ सामान उधार ले लेंगे ं |बाद में लौटा देंगें|” सरला गंभीरता से बोली |
“बात तो तुम एकदम सही कह रही हो |” सरजू सिर हिलाते हुए बोला | “तो फिर आ जाओ सुबह से |”सरला उत्साह से बोली | ” काकी, तुम देवी हो |”सरजू ने सरला के पैर पकड़ लिये | ” अरे ना रे, मुझे देवी देवता मत बोल |इंसान सिर्फ इंसान ही बन जाये |
एक दूसरे का दर्द बांटे, मदद करे, यही बहुत है |”सरला उसे उठाते हुए बोली |”चल भगवान को प्रणाम कर, धन्यवाद दे |उन्होंने हमें एक दूसरे के दर्द को बांटने का रास्ता दिखाया |” “हे भगवान, आपको अनेक प्रणाम और धन्यवाद |अपनी कृपा सदा हमपर बनाये रखें |” दोनों ने हाथ जोड़कर कहा और हंसने लगे | रात हो गई थी |चारो तरफ चांद का प्रकाश फैल रहा था |
#दर्द
सुभद्रा प्रसाद
पलामू, झारखंड |