एक दूसरे का सहारा –   मुकुन्द लाल 

 

  शाम के समय रजनी पार्क में अपनी बच्ची पुष्पा के साथ बेंच पर खोई-खोई सी बैठी हुई सोच रही थी कि एक स्त्री के जीवन में ऐसा भूचाल भी आ सकता है? उसने ऐसा कभी सोचा ही नहीं था कि उसका सुगंधित और हर्ष से सराबोर दाम्पत्य जीवन एक झटके में ही ध्वस्त हो जाएगा और उसकी उम्मीदें व सुनहले सपने ठीक उसी प्रकार जैसे कागजों से बने खूबसूरत फूलों और झाड़ियों से निर्मित उपवन एक छोटी सी चिनगारी से आग लग जाने के कारण देखते-देखते जलकर राख हो जाता है।

  अतीत की छोटी सी घटना ने उसके लहलहाते घर-संसार को मरूभूमि में तब्दील कर दी थी।

  उसने कितना समझाया था आशीष को, कि किसी कारणवश उसके साथ उसकी शादी नहीं हुई दोनों के अभिभावकों की गलतियों या नासमझी के कारण तो इसमें उसकी क्या गलती है, उसे भूल जाओ। समझ लो कि वह किसी दुर्घटना में मर गई, उसका पीछा छोड़ दो।  उसको चैन से जीने दो अब उसके काॅलेज का जीवन नहीं है, वे समाज के  जिम्मेवार पति-पत्नी हैं। उसका कोई भी गलत कदम उसके खांदान की इज्जत को मिट्टी में मिला सकती है।

    उसके पति प्रदीप काॅलेज के प्रसिद्ध मनोविज्ञान के प्रोफेसर थे। उसके पति संस्कारी और अति संवेदनशील व्यक्ति थे। उसको अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते थे। उनको जरा भी शक हो गया तो उसकी जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी। 

  उसने आशीष को डांँटते हुए कहा था कि आइंदा उससे मोबाइल पर बातें करना बंद कर दे। उसको बहुत परेशानी महसूस होती है। 

  कुछ महीनों तक खामोश रहने के बाद फिर उसने मोबाइल के माध्यम से संवाद शुरू कर दिया था। एक-दो बार प्रदीप ने भी कहा था कि क्यों वह मोबाइल से चिपकी रहती हो, दूसरे कामों पर ध्यान दो या नाॅवेल वगैरह पढ़ा करो। उसने जवाब में कह दिया था कि किसी सहेली का फोन था, जो मेरे साथ काॅलेज में पढ़ती थी। बातें आई गई हो गई। 

  लेकिन आशीष को कैसे समझावें, वह बिलकुल पागल था, दीवाना था। 

  जब पुष्पा का जन्म हुआ था तो न जाने उसको भी कैसे उड़ती खबर मिल गई। उसने मोबाइल पर बधाईयाँ और शुभकामनाएं दी। तब उसने उसको सख्ती के साथ अगाह किया कि भूलकर भी उसके यहांँ नहीं आएगा। दीवारों के भी कान होते हैं। जवाब में उसने कहा था कि दीवारों के कान हों या नाक हो, वह बच्ची के जन्म की पहली वर्षगांठ पर जरूर आएगा। 




  उसने उसको चेतावनी देते हुए कहा था कि खबरदार, अगर वह यहांँ आया तो वह जहर खा लेगी इतनी जिल्लत सहने से अच्छा है मर जाना। उसने कहा था कि भूलकर भी ऐसा कदम वह नहीं उठाये, अगर वह ऐसा करेगी तो वह भी इश्क के नाम पर अपने-आप को कुर्बान कर देगा। उसने बेबाकी के साथ कहकर मोबाइल बन्द कर दिया। 

  न तो मैंने जहर खाया और न उसने कुर्बानी दी लेकिन एक ऐसी दुखद घटना घट गई जो उसके जीवन को रेगिस्तान बना दिया। 

  पुष्पा के जन्म की पहली वर्षगांठ पर वह बिना निमंत्रण मिले बड़ा सा आकर्षक गिफ्ट और फूलों का गुलदस्ता लेकर हाजिर हो गया। प्रदीप ने पूछा भी था कि वह कौन आदमी है, बड़ा फरेबी हिन्दी बोलता है। 

  उसने कहा था कि काॅलेज में उसका क्लासमेट था। उसको कहना पङा था कि उसने उसको मोबाइल के माध्यम से उसे आमंत्रित किया था। उस वक्त उन्होंने कुछ नहीं कहा था बल्कि उन्होंने उससे हाथ मिलाया था। उसका परिचय भी पूछा था किन्तु साइकोलाॅजी के प्रोफेसर ने उसकी आंँखों और चेहरे को देखकर उनमें क्या पढ़ लिया कि उनके दिमाग में शक का कीड़ा रेंगने लगा। 

  उसके बाद प्रदीप के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन आ गया। लगता ही नहीं था कि वही संस्कारी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति हैं। बात-बात में विवाद और प्रेम की जगह क्रूरता ने ले ली थी। माइके से भी मोबाइल द्वारा बात-चीत करने पर उन्हें शक होता कि वह आशीष से ही बातें कर रही है।

  प्रदीप सीधे मुंँह बातें नहीं करते, उनकी हर बातें व्यंग्यों व प्रताड़नाओं से युक्त होती। वह अंदर से बहुत परेशान मालूम पड़ते थे। 




  उसने सख्ती के साथ आशीष से बात-चीत बन्द कर दी थी। उसने उसको दो-चार कड़वी बातें भी कही, तब मोबाइल पर बातें स्थायी रूप से बन्द हो गई, किन्तु अचानक उस दिन जब प्रदीप काॅलेज गये हुए थे, आंँधी-तूफान की तरह वह दाखिल हो गया घर में यह कहते हुए कि वह किसी जरूरी काम से इस शहर में आया हुआ है। वह उसके यहांँ ठहर तो नहीं सकता किन्तु उसकी भावनाओं में पगी हुई दिल की बातें व यादें उसने उस पत्र में लिख दिया है, इसे पढ़कर तुरंत जला देना। 

  उसके यहांँ आने के कारण वह क्रोधित तो थी ही और पत्र संबंधी बातें सुनते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंँच गया। उसने विफरते हुए कहा था, “गेट आउट!… मैं तुमको नहीं जानती हूँ, तुरंत भागो यहांँ से, नहीं तो अभी पुलिस को खबर करती हूँ कि एक आवारा मेरे घर में घुस आया है।” 

  “ऐसा मत करो रजनी!… मैं तुम्हारे लिए जान दे सकता हूँ…” 

  उसकी बातों पर बिना ध्यान दिए उसने पुलिस को फोन करने के लिए मोबाइल ज्योंही उठाया। वह घर से बाहर निकल गया। 

  प्रदीप क्लास सस्पेंड रहने के कारण काॅलेज से लौट आए थे। घर के पास बाइक से उतरते ही उन्होंने आशीष को घर से निकलते देख लिया था। 

  प्रदीप को देखते ही आशीष दुम दबाकर सिर नीचे किये हुए वहांँ से प्रस्थान कर गया। 

  उन्होंने उसको तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनका शरीर क्रोध से अंगारों की तरह दहकने लगा। अंदर आकर चीखते हुए उन्होंने कहा, 

” यह बात है?… दगाबाज़,कुलटा… मेरी पीठ पीछे… विश्वासघातनी…” 

  “जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है… वह आया…” 

  “चुप!… अब बचा ही क्या है कहने-सुनने के लिए, तुम्हारी कोई सफाई, कोई दलील अब नहीं सुननी है” उसने तल्ख और दमदार आवाज में कहा। 

  “आपको जो कहना है कह लीजिये लेकिन मैंने कोई वैसा काम नहीं किया है, जिससे आपकी मान-मर्यादा और इज्ज़त पर बट्टा लगे”




  उसने लाख समझाने का प्रयास किया था परन्तु उन्होंने एक नहीं सुनी। 

  भावावेश में वे दिन-भर बड़बड़ाते रहे। तनाव में उनका मानसिक संतुलन संतुलित नहीं रह सका। रात में उन्होंने अपने को कमरे में बन्द कर लिया। किवाड़ पीटने पर भी उन्होंने दरवाजा नहीं खोला। 

  उसने भी सोचा रात सोने के बाद हो सकता है कि उनका तनाव समाप्त हो जाय। 

  सुबह जब लोगों की मदद से दरवाजा तोङा गया तो वे मृत अवस्था में पड़े थे। उन्होंने जहर खाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली थी।

                            “माफ करें!… मैं बैठ सकता हूँ किसी भी बेंच पर सीट खाली नहीं है” कहता हुआ केशव अपने पुत्र दीप की अंँगुली पकड़े हुए वहांँ पर ठिठक गया। 

  “हांँ! हांँ!…” कहती हुई रजनी थोड़ा किनारे हट गई। 

  कुछ क्षण तक दोनों के मध्य मौन का वातावरण रहा। 

  इसी बीच दोनों बच्चे पार्क में मिलकर खेलने लगे। अपनी तुतली जुबान में एक-दूसरे से बात-चीत करने में मगन हो गये। 

  कुछ मिनट के बाद केशव ने रजनी से पूछा, 

“शायद आपने कुछ कहा…” 

  “नहीं तो!… बगल के बेंच पर बैठे हुए पति-पत्नी की बात-चीत से शायद आपको भ्रम हुआ है।” 

  “देखिए न मैम!… दोनों बच्चे कितनी अच्छी तरह से पूर्व-परिचित की तरह खेल रहे हैं ताज्जुब है” स्त्री का ध्यान आकृष्ट करते हुए केशव ने कहा। 

  “ताज्जुब की बातें नहीं है, बच्चे बच्चे होते हैं, उनकी दुनिया ही अलग होती है। “

  इसी तरह के वाद-संवाद से दोनों एक-दूसरे से परिचित होते गये। 

  रजनी तो विधवा थी ही केशव भी विधुर था। केशव की पत्नी की मृत्यु महामारी में हो गई थी। 

  केशव उस शहर के एक दफ्तर में सर्विस करता था और रजनी को हाल ही में एक कम्पनी में नौकरी लगी थी। एक शुभचिंतक की सहायता से उसके मित्र के क्वार्टर में रहने के लिए एक कमरा अस्थायी तौर पर इस शर्त पर मिला था कि डेरा मिलते ही वह वहांँ से यथाशीघ्र हट जाएगी। 

  क्वार्टर में रहने वाले लोगों के व्यवहार से वह बहुत दुखी थी। उसका मालिक तो शरीफ मालूम पड़ता था लेकिन उसकी पत्नी उसे नफरत भरी निगाहों से देखती थी। वह चाहती थी कि जल्द से जल्द वह उसका आशियाना छोड़कर यहांँ से चली जाए। 

  उस रात उसने अपने पति से कहा भी था कि कहांँ से वह इस मनहूस औरत को लाकर आपने यहांँ जगह दे दी, इसकी दूसरी जगह कोई व्यवस्था करवाइए, तब उसके पति ने कहा था कि बेचारी समय की मारी हुई है, रहम करो, खुद चली जाएगी। 

  कमरे के दरवाजे पर खड़ी रजनी ने उनकी बातें सुन ली थी। उस समय से उसका अंतर्मन अंगारों की तरह दहक रहा था। पार्क में तो केशव और रजनी अक्सर मिलते ही थे। उसने जब अपनी व्यथा सुनाई तो उसने कहा था कि वह हर संभव प्रयास करके डेरा का प्रबन्ध कर देगा। उसने यह भी कहा कि फिलहाल उसके परिचित व सेवानिवृत्त मित्र विमलेश बाबू हैं। वे अपने घर में अकेले रहते हैं। एक नौकरानी आकर खाना बना जाती है। उनकी पत्नी का देहांत दो वर्ष पहले हो गया था। वैसे वे अपने घर में किराया लगाना पसंद नहीं करते हैं किन्तु उसके कहने पर शायद वे मान जाएंगे। 

  केशव की बातें मानकर विमलेश बाबू ने अपने घर के दूसरे हिस्से में रहने के लिए जगह दे दी। पहले तो वे किराया लेना ही नहीं चाह रहे थे किन्तु रजनी ने जब कहा कि वह मुफ्त में नहीं रहेगी तो केशव के समझाने पर नाम मात्र के लिए किराया लेने के लिए तैयार हो गये। 

  केशव और रजनी की मुलाकात पार्क में तो अक्सर होते ही रहती थी। अब डेरा में भी आना- जाना शुरू हो गया। दोनो के बीच नजदीकियां बढ़ती गई। 

  दो-तीन वर्षों के बाद रजनी को चैन महसूस हो रहा था। उसकी बेटी पुष्पा स्कूल जाने लगी। केशव का भी बेटा स्कूल जाने लगा। 

  गर्मी की छुट्टी होने पर केशव अपने पुत्र दीप को लेकर अपना ससुराल चला गया। कुछ रोज वहांँ रहने के बाद वह तो लौटकर चला आया परन्तु दीप के नाना-नानी ने कहा कि उसे छुट्टी में यहीं रहने दीजिए, स्कूल खुलने पर वह उसको वहांँ पहुंँचा देंगे। केशव तो नहीं रह सकता था क्योंकि उसने कुछ रोज की ही छुट्टी ली थी। 

  पार्क में रजनी से मुलाकात होने पर उसने पूछा कि वह क्यों नहीं पुष्पा को छुट्टी में अपने ससुराल या माइके में पहुंँचा दिया। 




  “जब मुझसे ही सबको नफरत है तो मेरी बेटी को कौन प्यार देगा। किसके भरोसे मैं पुष्पा को ससुराल या माइके में छोड़ दूँ, जब मेरा ही यह हाल है।… शायद आप नहीं समझिएगा केशवजी कि स्वतंत्र कहलाने वाली महिलाएँ आधुनिक समाज में पुरुषों का साथ छूट जाने पर कैसे असहाय और अवसादग्रस्त हो जाती है। उसका जीता-जागता उदाहरण मैं ही हूँ। हम लाख नियम बना लें लेकिन आज भी बेसहारा महिलाएं व्यथाओं-वेदनाओं और विपदाओं से घिरी हुई है, जिसकी नियती ही दुख, दर्द और दंश झेलना होता है। ऐसी पीड़िताओं की सुरक्षा की गारंटी कहीं नहीं होती है। “

 ” आपकी बातें शत-प्रतिशत सही है रजनीजी! 

… लेकिन यह भी सही है कि बेसहारा मर्द जिसकी पत्नी किसी कारणवश उससे बिछड़ जाती है तो उसका जीवन भी बहुत कठिन और दुखदायी हो जाता है। “

  केशव का यह संवाद रजनी के अंतर्मन को स्पर्श किये बिना नहीं रहा। 

  उस दिन केशव ड्यूटी से लौटने के बाद उसने चाय का पानी चूल्हा पर रखा ही था कि मूसलाधार बारिश होने लगी। बिजली चमकने लगी, बादल गरजने लगा। 

  चाय पीने के बाद उसे आलस्य ऐसा महसूस होने लगा। बिस्तर पर वह लेटा ही था कि उसका मोबाइल बजने लगा। उसने मोबाइल उठाया, उससे रजनी की आवाजें आ रही थी। उसने रुंधे हुए स्वर में बताया कि पुष्पा की तबीयत ठीक नहीं है। उसने आगे कहा कि उसका बुखार बहुत तेजी से ऊपर चढ़ता जा रहा है। वह अर्थहीन व ऊटपटांग बातें बक रही है। आप आकर किसी डाॅक्टर से दिखा दें। विमलेश अंकल भी डेरा में नहीं हैं, अपने पुत्र के यहाँ दिल्ली गये हुए हैं अपने पोते के जन्मदिन के अवसर पर। 

  “ठीक है!… घबराइये नहीं!… मैं तुरंत आ रहा हूँ।” 

  वह आटो से शीघ्र ही वहाँ पहुँच गया। उसी आटो पर रजनी पुष्पा को लेकर बैठ गई। वह पुष्पा को लेकर एक अच्छे फिजीशियन के पास पहुंँच गया। डाॅक्टर ने कुछ जांँच करवाने के लिए लिखा। जांँच के बाद पता चला कि उसे टायफड है। डॉक्टर ने आश्वासन दिया कि घबराने की बात नहीं है। उसकी बच्ची जल्द ही  स्वस्थ हो जाएगी। 

  केशव भी पुष्पा को अपनी पुत्री से जरा भी कम नहीं समझता था। उसके प्रति व्यवहार में ऐसा ही स्नेह झलकता था जैसा पिता-पुत्री के मध्य होता है। यही कारण है कि डॉक्टर के यहाँ से जब इलाज के उपरांत वह डेरा आया, फिर रजनी को आवश्यक निर्देश व बातें समझाकर लौटने लगा तो पुष्पा ने कहा, “अंकल!… आप मत जाइए, मुझे डर लगता है।” 

  केशव संकोचवश कुछ नहीं बोला तो पुष्पा ने फिर कहा, “मम्मी!… रोको न अंकल को…” 

  “हम हैं न पागल लड़की डर किस बात की…” 

  “तुम सो जाती हो और मुझे नींद नहीं आती है, उस वक्त डर लगता है।” 

  केशव उसकी बातों पर ध्यान दिए बिना जब जाने लगा तो पुष्पा कहने लगी, “अंकल आज यहीं ठहर जाइए, बारिश हो रही है, बादल गरजता है तो मुझे भय लगता है। मम्मी और आप रहते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। “

 ” पुष्पा बेटी!… डरो मत… तुम बहादुर बेटी हो” उसने मृदु स्वर में उसके दुलार से उसके सिर को सहलाते हुए उसने कहा। 

  लेकिन वह अपने जिद्द पर अड़ी थी। 




तब रजनी केशव के चेहरे कीओर देखती है। दोनों की नजरें पल-भर के लिए मिलती है, रजनी लजा जाती है। केशव ने भी तेजी से अपनी नजरें दूसरी तरफ फेर ली। 

  अपनी नजरों को नीचे किये हुए रजनी ने कहा, “तो आप मेरी बेटी की बातें नहीं मानेंगे।” 

  कुछ मिनट तक खामोशी छायी रही, जिसको पुष्पा ने भंग करते हुए कहा, “अंकल!… हम दवा नहीं पीएंगे… जाइए आप” 

  “तुम जिद्द कर रही हो तो मैं ठहर जाता हूँ।” फिर वह अपने होठों में बुदबुदाया “कहीं पास-पड़ोस के लोग गलत अर्थ न लगा लें। “

“वाह!… होठों में लगता है कोई मंत्र पढ़ रहे हैं” हंँसते हुए रजनी ने मजाक किया। 

  क्षण-भर के लिए वातावरण उमंग-उत्साह से लबरेज हो गया। बारिश की संगीतमय ध्वनि माहौल को मोहक और खुशनुमा बना रही थी। 

  एक दूसरे के करीब आने के बाद उनको समझ में आने लगा कि हमलोग एक-दूसरे के सहारे नये सिरे से जीवन जी सकते हैं, जिसमें दोनों बच्चों की परवरिश माता-पिता की छत्रछाया में होगी। दोनों के ऊपर से परम्परागत विधवा और विधुर का ठप्पा हट जाएगा। दोनों का दाम्पत्य-जीवन सुखमय होगा। 

  केशव और रजनी ने स्वेच्छा से शादी कर लेने का फैसला किया लेकिन रजनी ने शादी करने से पहले एक शर्त रखी कि दाम्पत्य-जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए दोनों में से कोई भी एक दूसरे के पिछले(बीते हुए) वैवाहिक जीवन के बारे में कोई पूछताछ नहीं करेगा और न कोई इससे संबंधित जानकारी जानकारी हासिल करने की कोशिश करेगा। 

  फिर आपसी सहमति से विमलेश बाबू और दोनों के स्टाफ के दो गवाहों के समक्ष केशव और रजनी ने कोर्ट मैरेज कर लिया। 

  उजड़ा हुआ चमन फिर से आबाद हो गया। 

  केशव और रजनी की वीरान व उजड़ी हुई घर-गृहस्थी में फिर से हरियाली छा गई। 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

#सहारा 

                  मुकुन्द लाल 

 

                   हजारीबाग(झारखंड) 

 

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