हम-तुम – मीता जोशी

“हेलो ,हाँ वसुधा ,थोड़ी देर में फ़ोन करता हूँ।”

“जी “कह वसुधा ने फ़ोन रख दिया।बहुत से सवालों में उलझी वसुधा फ़ोन करने से पहले भी बेचैन थी और बाद में भी।

कहीं मैं गलत तो नहीं कर रही?ये दुस्साहस तो नहीं… या विश्वासघात!

मन कुंद था ।प्रश्न और उत्तर खुद-ब-खुद निकल रहे थे।देखा जाएगा ! मैंने क्या अच्छे बनने का ठेका ले रखा है !

ट्रिन -ट्रिन

“हेलो माफ करना वसुधा, तुम्हें इंतजर करवाया।आज अचानक…मेरी याद!क्या बात है सब ठीक है ना ।”

“मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ।”

“आज मिलते हैं।”

“ठीक है अविनाश।आज शाम तुम्हारा इंतज़ार करूँगी।”

“नहीं शाम नहीं लंच-टाइम में। मेरे ऑफिस के पास वाले रेस्तरां में।कारण वहीं मिलकर बताऊँगा।”

वसुधा कोई छोटी उम्र की महिला नहीं है,होगी कोई 45 से 50 के बीच की ।सांवली -सलोनी, ममतामयी और सबसे बड़ा गुण जिम्मेदार पतिव्रता नारी।जिसने घर और पति के अलावा अपने लिए कभी कुछ सोचा ही नहीं।बहुत दिनों से पति के व्यवहार से कुछ परेशान सी है।अविनाश कॉलेज टाइम का मित्र है ।किसी समय में ये दोनों अच्छे दोस्त हुआ करते थे लेकिन समय और परिस्थिति दोनों ने दूरी बना दी।जब अविनाश ट्रांसफर होकर वापस इस शहर में आया तो मिलने की इच्छा जाहिर की थी लेकिन अपनी गृहस्थी में मस्त वसुधा को कभी समय ही नहीं मिला।




पति बच्चों को भेज, अनगिनत बातें सोचते-सोचते एक बज गया।तैयार हो शीशे के आगे खड़ी हुई तो अविनाश के शब्द याद आए ,”बाल खुले रखा करो ।तुम पर बहुत अच्छे लगते है।”चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी लगा आज बहुत सालों बाद खुद से मिल रही है।

तरह-तरह से बाल खोलकर देखे लेकिन संतुष्टि नहीं मिली ।जैसे ही जूड़ा बनाया श्रीमान जी की बात जहन में थी “तुम्हारे गोल चेहरे पर गर्दन में लटका ये ढीला सा जूड़ा तुम्हारे व्यक्तित्व में जान डाल देता है।जब कहीं खास जगह जाओ जूड़ा बनाया करो।”एक मुस्कुराहट जो अंदर तक सिहरा गई। देख रही थी खुदको खोकर जो पाया है वही तो मेरा आज है ।आज जिसमें मोहित की खुशी शामिल है उसके पास न होते हुए भी सब कुछ उसकी पसंद का शायद पति-पत्नी का यही रिश्ता होता है।

समय देखा तो काफी हो चुका था फटाफट निकल पड़ी।

अविनाश पहले से बेंच में बैठा उसका इंतजार कर रहे थे।

“वसुधा तुम!तुम तो बिल्कुल बदल गई हो।ये जूड़ा ,साड़ी …बहुत सुंदर लग रही हो । एक बात कहूँ मोहित का रंग खूब चढ़ा है तुम पर !”

वसुधा मुस्कुरा दी।

“माफ करना तुम्हें भरी दोपहरी परेशान किया।असल में दीप्ति बहुत शक्की है।समय पर घर न पहुँचो तो परेशानी…तुम बताओ, आज अचानक मिलने की इच्छा जाहिर की कोई बात…।”

“नहीं ऐसा कुछ नहीं मोहित को लेकर परेशान थी।आजकल उनकी अपनी एक महिला मित्र से काफी दोस्ती है।”

“चलो वसुधा पहले तुम्हारे पसंद की कॉफी मंँगवा लेते है फिर बात आगे बढ़ाते हैं।”

“अविनाश आज भी याद है तुम्हें लेकिन मैं अब कॉफी नहीं पीती मोहित को चाय पसंद है ।”

“ओह!पतिदेव के लिए अपनी पसंद बदल डाली।फिर क्या टेंशन यार।क्या तुम्हारी पारिवारिक ज़िन्दगी में …?”

“नहीं-नहीं अविनाश ऐसा कुछ नहीं उल्टा वो पहले से ज्यादा समय घर-परिवार को देने लगे हैं।बहुत खुशमिजाज रहते हैं या कहूँ बिल्कुल फ्रेश…।”

“तो समस्या कहाँ है?”

“यही तो समस्या है।”




आज दिमाग में एक हलचल सी हुई बार-बार यही ख्याल आया, क्या घर का सारा ठेका मैंने ले रखा है। जब सब बाहर जाकर फ्रेश होकर आते है।अपनी परेशानियों को सॉल्व कर आते है तो मैं भी क्यों न ऐसा करूँ?लेकिन तैयार होने से लेकर तुम्हारे साथ चाय पीने तक मोहित को नहीं निकाल पाई क्या ये सच्चा प्यार नहीं।”

“कहना क्या चाहती हो?”

“पता नहीं लेकिन हाँ आज के बाद हम दुबारा नहीं मिलेंगे।

मैं नहीं चाहती इस तरह से हम दोनों …तुम भी अपने घर जाओ लेकिन जाने से पहले कुछ कहना चाहती हूंँ……आगे से तुम भी कभी बाहर से, तनावमुक्त हो अपने घर मत जाना।जो तनाव हो उसे दीप्ति के साथ शेयर करना।”

वसुधा ये क्या बोल गई अविनाश बहुत देर तक सोचता रहा और वहीं खड़ा उसे दूर जाते देखता रहा।इतनी गहरी बात … ये वही वसुधा है?हाँ बिल्कुल वही पुरानी वाली, जिसे अपना लेती है समर्पण के साथ अपनाती है।जब मिलने आई थी तो लगा हम दोनों को सहारे की जरूरत है लेकिन मैं आज भी, उसको पहचानने में गलती कर बैठा।जो दूसरों का सहारा बन खुश है उसे सहारे की क्या जरूरत।कितनी गहरी बात मिनटों में समझा गई सच है पति-पत्नी ही एक-दूसरे का सच्चा सहारा हैं।चंद समय की खुशी के लिए किसी और सहारे की तलाश क्यों?

वसुधा चली गई कभी वापिस न आने के लिए।

अविनाश भी बहुत खुश था उसकी हर बात उसे अंदर तक झकझोर रही थी।

वसुधा ने घर आकर देखा अभी कोई नहीं आया है शीशे के आगे बैठ एक लंबी सांस ली फिर पिन हटा बालों को खोल लिया वो देख रही थी वो कितना तरोताजा महसूस कर रही है।

शाम को मोहित आए तो भागकर दरवाजा खोला। बैग हाथ से लिया। आज बहुत समय बाद ऐसा हुआ था वरना दरवाजा खोलने के लिए बच्चों को आवाज़ लगाती थी ।

“जाओ चेंज करके आओ मैं चाय लेकर आती हूँ।”

“ये क्या वसुधा कॉफी!खुल्ले बाल !तुमने तो मेरे साथ चाय शुरू कर दी थी।…तैयार लग रही हो।कहीं बाहर गईं थीं?




“जी गई थी अपने एक पुराने मित्र से मिलने.. आप जाते हैं ना अविनाश को?वो यहीं आ गया है।बड़ा परेशान था बीवी थोड़ी शक्की है लेकिन उसे बहुत प्यार करता है उसे बुरा न लगे इसलिए लंच-टाइम में मिलने को बुलाया।

” तुम्हें जाने की क्या जरूरत थी शाम को घर बुला लिया होता।”

“कह रहा था दिल की बात किसी से कह लूंँगा तो घर तनावमुक्त होकर जाऊँगा।मैं खुद तनाव में रहकर उसे तनाव नहीं देना चाहता।”

“लेकिन वसुधा जो बात तुमसे की अपनी बीवी से भी तो कह सकता था?”

“अजी छोड़िए ना ।ऐसा लगा आज बहुत समय बाद खुदसे मिली हूँ ।”

“ओह! बहुत फ्रेश लग रही हो?”

“अच्छा है ना आप यही तो चाहते थे।”

“वसुधा मेरे हिसाब से तुम्हें नहीं जाना चाहिए था कोई परेशानी थी तो मुझसे शेयर करतीं।”

“अच्छा क्यों नहीं जाना चाहिए था?क्योकि मैं घर रहती हूँ इसलिए! क्या मुझे बदलाव की जरूरत नहीं।आप तो सारा दिन बाहर रहते है उसके बाद भी रेखा से मिलने जाते है। जाते हैं ना!”

“अच्छा तो समस्या ये है।ये बताओ क्या मैंने..तुम्हें कभी कोई तकलीफ दी ।जानती हो ,वो एक अधेड़ उम्र की महिला है।जब साथ बैठता हूँ हमेशा यही समझाती है, “सब टेंशन मुझे यहीं दे जाओ घर जाओ तो फ्रेश होकर जाया करो।देख नहीं रहीं मुझमें बदलाव ।ये मत समझना कि मैं सहारे की तलाश में उसके पास गया था।…तुम्हें क्या परेशानी है नहीं जानता जो तुम्हें…!”

“अच्छा मोहित बड़े स्वार्थी हो ।मैं एक दिन फ्रेश होकर आई तो तुम्हें इतना बुरा लग रहा है।तकलीफ दूसरे से शेयर की वो तुम्हें पसंद नहीं आया और मेरा मन ?उसके लिए कभी सोचा? मुझे फ्रेश पति नहीं वो पति चाहिए जो अपना तनाव मेरे पास आकर कम करता है।जो ऑफिस से थका हारा आता है और उसकी थकान मेरी एक कप चाय कम करती है।हम-तुम तभी तो एक हैं जब एक-दूसरे के सहारे के बिना अधूरे हैं।वो सहारा जिसमें चाय की पहली प्याली से लेकर रात बिस्तर की नर्माहट तक महसूस होती है।हम-तुम बने ही इसलिए हैं की एक-दूसरे का सहारा बन अपनी कश्ती को हर संकट से बचाते हुए आगे बढ़ें।

घबराओ नहीं मैं बाहर जाकर फ्रेश नहीं हुई थी तनाव में आ गई थी।ये सोचकर कि मोहित से ज्यादा मेरा अपना कोई और हो ही नहीं सकता इस तरह मिलकर मैं अपने पति को धोखा दे रही हूँ। ये जो तुम्हें दिख रही हूँ ना इस वसुधा से तो मैं भी बरसों से नहीं मिली। मैं तो मोहित की वसुधा को जानती हूँ जो बड़ी सी बिंदी लगाती है, ढीला सा जूड़ा बनाती है और उसकी सब परेशानी पति के सीने में सर रखते ही दूर हो जाती है।

मोहित वसुधा का इशारा भलीभांति समझ रहा था।

#सहारा 

मीता जोशी

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