कुछ खास है हम सभी में – डॉ. पारुल अग्रवाल

सिया आज की पढ़ी लिखी आत्मविश्वास से भरी हुई सुलझी हुई महिला थी। वो उन महिलाओं में से नहीं थी जो घर गृहस्थी के चक्कर में अपनेआपको भूल जाए और अपने पर बिल्कुल भी ध्यान ना दे। वो अपने घर,परिवार और अपने शौक के साथ संतुलन करना जानती थी। उसके चेहरे की चमक-दमक और आत्मविश्वास इसलिए कई लोगों के बीच जलन का भी विषय बनता था।

 अभी आज की ही बात ले लो, वो कहीं से वापिस आ रही थी तब उसके पड़ोस की ही कई महिलाओं का एक ग्रुप उसे मिल गया। सबके हाल-चाल पूछने के बाद जैसे ही वो निकलने लगी तो उनमें से एक महिला ने उसको बोला कि अच्छा है तुम्हें अपने परिवार का इतना सहयोग प्राप्त है इसलिए तुम अपने ऊपर भी इतना ध्यान दे पाती हो। हमें देखो,सारा दिन बिना किसी सहारे के पति,बच्चे और परिवार में ही बीत जाता है। सिया बिना कुछ कहे बस मुस्कराकर रह गई।

वो अपने घर आई,चाय का कप लेकर बालकनी में बैठी ही थी कि उसको परिवार के सहयोग वाली बात याद आ गई और साथ-साथ कई पुरानी बातें भी उसके मन में चलचित्र की भांति घूमने लगी। वो अपनी नई-नई शादी की दुनिया में पहुंच गई। शादी से पहले से ही वो नौकरी करती थी, शादी के बाद भी उसकी नौकरी चलती रही। वैसे भी नौकरी उसके शौक के साथ-साथ उस समय की जरूरत भी थी। 

जब शादी हुई तब वो और उसके पति दोनों ही काफी कम उम्र के थे और जिस महानगर में वो दोनों नौकरी करते थे वहां एक की नौकरी से कुछ भी नहीं हो सकता था इसलिए लोगों ने बिना कुछ सोचे समझे उसके नौकरी करने के खिलाफ कई बात बनाई पर उसने ध्यान नहीं दिया। ज़िंदगी चल रही थी इसी बीच वो एक बेटे की मां भी बन गई । 

अब भी वो अपने पति के साथ इतने बड़े महानगर में अकेली ही थी। बच्चे के साथ नौकरी करना बहुत मुश्किल हो रहा था। बच्चे की तबियत कभी भी खराब हो जाती वो कामवाली के सहारे अपने बच्चे को छोड़ना नहीं चाहती थी। उसने अपने घर और ससुराल दोनों जगह बात की पर उन लोगों की अपनी मजबूरी थी, वो लोग भी साथ में आकर नहीं रह सकते थे।



 खैर अब बच्चे के सही लालन पालन के लिए उसने घर पर रहना ही उचित समझा। घर पर तो वो रहने लगी पर अपनी पूरी जिंदगी इतनी पढ़ाई करने के बाद अपनी महत्वाकांक्षाओं से समझौता करना कहीं ना कहीं उसको कुंठा का शिकार बना रहा था। वैसे भी उसने अपने ससुराल पक्ष के कई कार्यक्रम में अपने पीठ पीछे लोगों से अपना परिहास ही सुना था। 

कई ससुराल पक्ष की महिलाएं तो दबी जबान में ये तक कह डालती थी कि लो अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे, बड़ा घमंड था नौकरी का, अब तो हो गई ये भी हमारे जैसी। उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए कोई पहचाना सा स्वर उसके कानों से टकराता था जिसमें औरत के मुख्य काम बच्चे और घर संभालने की हिमायत होती थी।

इन सबकी बातें उसके मन को चीर जाती। वो बहुत उदास और निराशा में घिर गई थी। इन्हीं सब बातों ने स्वास्थ्य पर भी अपना प्रभाव दिखना शुरू किया। 

उसको इतनी कम उम्र में ही थायराइड और उच्च रक्तचाप और भी ना जानें कितनी बीमारियां हो गई। उसका वजन दो-तीन महीने के अंतराल पर ही बीस किलो तक बढ़ गया। लोगों को उस पर बातें बनाने का एक मुद्दा और मिल गया। पर अपने साथ होने वाली इसी तरह की छींटाकशी ने उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह बदल दिया l हुआ यूं कि, एक बार जब वो कहीं परिवारिक उत्सव में शामिल होने के लिए कहीं जा रहे थे तब उसकी ननद ने उसको बहुत सुंदर से कंगन देते हुए कहा कि ये आपके लिए हैं। उस समय घर के सभी लोग भी वहां बैठे हुए थे।

 उसके हाथों में थायराइड की वजह से सूजन थी, कंगन नहीं आए। उसकी ननद ने इस बात को सबके सामने बड़े चटखारे लेते हुए बोला अरे मैं तो अपने बाजू के नाप के कंगन लाई थी वो भी आपको नहीं आए। सबकी निगाहें मानो उस पर ही उठ गई थी। इससे पहले भी उसकी ननद जब देखो तब उसके वजन को और कपड़े के साइज को लेकर चार लोगों के सामने उसका मज़ाक बना ही देती थी।

कोई भी उसकी स्थिति ना समझ कर ननद के ही सुर में सुर मिला देता था। यहां तक की उसकी सास भी वही होती थी वो भी अपनी बेटी को कुछ नहीं कहती थी। अब तक तो वो सहन कर रही थी पर आज वाले कटाक्ष ने उसको अंदर तक हिला दिया था। कार्यक्रम में जाने का उसका पूरा मन खत्म हो गया था।किसी तरह वो अपने घर पहुंची तो वो आज पूरी तरह टूट गई थी। वो बिलख-बिलख कर रोने लगी। उसकी हालत देखकर उसका छोटा सा बच्चा भी सहम गया। उसके पति को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। उन्होंने पूछने की बहुत कोशिश की पर वो रोती ही रही। अब उसके पति ने भी सोचा कि शायद दिल का गुबार निकलने के बाद वो शायद कुछ बता दे इसलिए रोने दिया।



खूब रोने के बाद जब मन थोड़ा हल्का हुआ तब सिया ने  अपनेआप से सवाल किया कि वो कब से इतनी कमज़ोर होने लगी। उसे तो खुश होना चाहिए कि बच्चे की देखभाल के बहाने उसको कुछ समय अपने साथ बिताने का मिल रहा है जो उसे कभी पढ़ाई और कभी नौकरी की वजह से नहीं मिला है। फिर बच्चा भी तो उसी का है, उसको पालने के लिए उसको किसी सहारे की क्या जरूरत है।

नौकरी पर ही तो जाना बंद किया है,अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो वो करना चाहती थी पर समय की कमी की वजह से नहीं कर पाती थी, पर अब कर सकती है। ऐसा मन में आते ही उसने आईने के सामने खड़े होकर अपने आप से वादा किया कि वो अपना सहारा खुद बनेगी। वो अपने बच्चे की अच्छी परवरिश करेगी और साथ साथ कुछ नए कोर्स करेगी जो भविष्य में उसके काम आयेंगे। 

वैसे भी अगले 2 साल में बच्चा भी पूरी तरह स्कूल जाने लगेगा तो उसको नौकरी करने का भी समय मिल जाएगा। रही बात वज़न की वो अब जितना बढ़ना था बढ़ गया,पर अपने ऊपर ध्यान देने से इससे अधिक तो नहीं बढ़ेगा। बस अब उसने परिस्थिति से लड़ने की ठान ली और अगली सुबह उसके लिए एक नया संदेशा लाई थी। उसने अपने कपड़े पहनने और तैयार होने का तरीका बदला,अपने खान-पान पर थोड़ा ध्यान दिया। बस उस दिन के बाद उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।जो लोग उसको मोटा बताते थे अब वो ही लोग उसके ड्रेसिंग सेंस की तारीफ करते हैं।

आज वो बहुत अच्छी जॉब कर रही थी और साथ-साथ बीच में लोगों को प्रेरित करने के लिए कार्यशाला का आयोजन भी करती थी। वो ये सब सोच ही रही थी कि इतनी देर में घर की घंटी बजी और वो अपनी विचारों की श्रृंखला से वापस अपनी आज की दुनिया में आ गई।पर आज उसको ये भी लग रहा था कि माना परिवार जीने के लिए बहुत बड़ा सहारा है पर अपनी ही इच्छाओं को पूरा करने के लिए हम परिवार के लोगों से ही क्यूं सारी अपेक्षाएं रखते हैं जबकि हम खुद में ही इतने सक्षम हैं। अब उसने अपनी अगली प्रेरक कार्यशाला भी इसी विषय पर रखने की सोची जिससे कि बाकी लोग भी अपने बलबूते पर अपनी जिंदगी को जी सकें।

दोस्तों मेरा भी मानना है कि अपने हिस्से की लड़ाई हमें खुद ही लड़नी पड़ती है,हम खुद में ही अपना सबसे बड़ा सहारा है जो कस्तूरी हम बाहर ढूंढने की कोशिश करते हैं वो तो हम में ही कहीं ना कहीं बसी है क्योंकि कुछ खास है हम सभी में।

#सहारा 

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

 

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