हमारे ज़माने में शादी ब्याह वाले घरों में प्रेम सम्बन्धों की पौध बिना खाद-पानी के ही पनप जाया करती थी। मतलब आजकल प्रचलित टिंडर या बम्बल जैसे डेटिंग ऐप्स जैसा रुतबा इन शादी-ब्याह वाले घरों का हुआ करता था।
आज मुझे ऐसी ही एक मासूम सी कहानी याद आ गई तो सोचा आज इस कहानी को लिख ही डालूँ…
यह बरसों पहले की ऐसी ही दिसम्बर की गुलाबी सर्दियों का मौसम था। दिसम्बर की गुलाबी सर्दियाँ अपने साथ शादियों का मौसम ले आती हैं। उस ज़माने में दूर दूर के रिश्तेदारों के घर भी शादियों में जाने का रिवाज़ हुआ करता था और वो भी शादी की तारीख़ से कम से कम एक हफ़्ते पहले ताकि शादी की तैयारियों में सहायता की जा सके।
तो साहेबान…ऐसे ही एक दूर के रिश्तेदार के घर मेरा भी जाना हुआ…ब्याह था मेरी दूर के रिश्ते की एक दीदी का। यह वो समय था जब किसी के भी घर में शादी हो…पूरा मोहल्ला शादी की तैयारियों में ऐसा जुटता था मानो उन्हीं के घर बारात आनी हो।
मोहल्ले वाले अपने घरों के कमरे शादी के घर के मेहमानों को रहने के लिए स्वेच्छा से दे दिया करते थे। उन विशेष दिनों में, पूरे मोहल्ले के सारे जवान लड़के, घर के भैया, मामा या चाचा के दोस्त बन जाया करते थे।
हाँ, तो मैं जब इस शादी में पहुँची तो वहाँ अन्य रिश्तेदारों के साथ मेरी एक दीदी भी आई हुईं थीं। गेहुँए रंग और तीखे नैन-नक़्श वाली दीदी जब अपने लम्बे बालों की ढीली सी चोटी बनातीं (उस ज़माने में रेखा स्टाइल) तो मैं उन पर मोहित होकर कहती…
“आप कितनी सुन्दर हैं दीदी…बिलकुल *नदिया के पार* की गुंजा की तरह”
और दीदी के कपोल रक्तिम हो, अनार की तरह दहक उठते। (उन दिनों *नदिया के पार* फ़िल्म वाली गुंजा का सभी में ज़बरदस्त क्रेज़ था)
शादी में अभी चार-पाँच दिन शेष थे। दीदी को वहीं पड़ोस में रहने वाले एक भैया अच्छे लगने लगे थे। लम्बे-चौड़े फ़ौजी हैन्डसम भैया जो उन दिनों छुट्टियों में घर आए हुए थे।
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जब भी वे भैया घर आते…दीदी अपना दुपट्टा सम्भालती, शर्म से दोहरी हुई जातीं। दोनों की आँखों ही आँखों में हज़ारों बातें होतीं।अक्सर खाना परोसते समय दीदी, उन भैया की थाली में खूब सारा घी चुपड़ी रोटी या फूली फूली गर्मागर्म पूरी रख देतीं और भैया ना ना करते हुए भी मुस्कुराते हुए वो रोटी या पूरी बड़े चाव से खाते।
मैं यह स्वप्रायोजित खेल रोज़ देखती…क्योंकि जब वह भैया खाना खाने आते तो मैं अपनी खाना परोसने वाली ड्यूटी दीदी को देकर मंद ही मंद मुस्कुराती। सच, उस समय मुझे दुनिया जहान का सुख मिलता, जैसे मैं दो प्रेमियों को मिलाने का कोई पुनीत और महान कार्य कर रही होऊँ।
ऐसे ही चाय के बेहद शौक़ीन भैया जब-तब आकर दीदी को कनखियों से देखते हुए कहते…
“आज बड़ी ठंड है…कोई चाय पिलाएगा क्या ?”
और दीदी चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर दौड़ पड़तीं। अर्थात् गुंजा और चंदन का प्यार लोगों की नज़रों से छुपकर फ़ुली ऑन था।
अच्छा…उन दिनों शादी-ब्याह के घरों में एक और चलन हुआ करता था, वी.सी.आर. किराए पर मँगाकर एक रात में तीन फ़िल्में देखने का। सारे नाते-रिश्तेदार एक हॉल में एकत्रित हो जाया करते थे और रात्रि जागरण कर ये फ़िल्में देखी जाती थीं।
वी.सी.आर का रिमोट घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के पास हुआ करता था जो किसी भी आपत्तिजनक दृश्य (उस ज़माने में शालीन प्रेमालाप वाले दृश्य भी आपत्तिजनक माने जाते थे) के आने पर उसे फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड कर सकें।
तो…उस रात घर में वी.सी.आर. किराए पर आने वाला था और इसका इंतज़ाम उन्हीं पड़ोस वाले भैया के सौजन्य से हुआ था। भैया ने बड़ी अदा से दीदी की आँखों में झाँकते हुए मुझसे पूछा था…(मतलब कि कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना )
“कौन सी पिक्चर देखोगी बहना ?”
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रात में फ़िल्मे देखते समय सभी की सुविधा के लिए ज़मीन पर गद्दे बिछाए गये और साथ में ओढ़ने के लिए रज़ाइयाँ रख दी गईं। दीदी, जो अब तक मुझे अपना हमराज़ बना चुकी थीं…मेरे साथ ही रज़ाई ओढ़कर बैठ गईं।
भैया भी मेरे दूसरी तरफ़ आकर बैठ गये। मैं कबाब में हड्डी की तरह दोनों के बीच में बैठी रही। फ़िल्में चलने लगीं। अब मुझे दो-दो फ़िल्में दिख रही थीं…एक सामने टीवी पर चल रही थी और दूसरी मेरे दोनों ओर चल रही थी।
फ़िल्म में भावुक दृश्यों के आते ही जब दीदी भावुक हो आँसू बहातीं तो भैया अपनी जेब से रुमाल निकाल कर उनकी ओर बढ़ाते। प्रेम वाले दृश्यों में वे दोनों एक दूसरे को उतने ही प्यार से देखते।
अब आया ब्याह वाला दिन…उस दिन गुलाबी साड़ी में दीदी ग़ज़ब की खूबसूरत लग रही थीं, श्रृंगार के नाम पर बस एक छोटी सी बिंदी।
चेक वाले कोट में भैया भी खूब जम रहे थे। बारात आने को थी। उन दिनों दुल्हन को सजाने और तैयार करने का काम घर की बहुएँ और लड़कियाँ ही करते थे। मैं और दीदी दुल्हन के कमरे से बाहर निकल रहे थे कि भैया मिल गये। उन्होंने दीदी पर भरपूर नज़र डाली और मुझसे बोले…
“बहना, अगर तुम्हारी दीदी हाँ करें तो हम भी इसी मंडप में फेरे ले लें”
“धत्त…”
दीदी वहाँ से शरमा कर चली गईं। बारातियों के भोजन कर लेने के बाद जब घरातियों के खाने की बारी आई तो मैंने दीदी को ढूँढना शुरू किया। थोड़ी देर बाद देखा तो पंडाल के एक अँधेरे से कोने में एक ही प्लेट में दीदी और भैया दोनों खाना खा रहे थे। मुझे देखते ही दीदी सकपका कर उठ खड़ी हुईं और हकलाती हुई सी बोलीं…
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“किसी से मत कहना प्लीज़”
अगले दिन दुल्हन विदा हो चुकी थी। रिश्तेदारों के रवाना होने का सिलसिला चल पड़ा था। इसी बीच घर के किसी बुजुर्ग ने भैया को फ़रमान सुना दिया था,
“तुम ब्याह में बहुत काम करे हो बेटा…अब त ब्याह होई गवा है…अब तुम आपन घर देखो…फ़ौजी हो…देस से दिल लगावो…हियाँ आवै की कौनो जरूरत नहीं”
दीदी की आँखों में आँसुओं का समंदर उमड़ आया और वह आँगन से अन्दर की ओर मुड़ गईं और भैया एक उड़ती सी नज़र दीदी पर डाल आँगन से बाहर के दरवाज़े की ओर मुड़ गये ।
सच…कुछ मासूम सी अधूरी प्रेम कहानियाँ आज भी वक्त की मिट्टी में दफ़न हैं, जिन्हें बेरहम दुनिया द्वारा कोंपल बनने से पूर्व ही रौंद दिया गया।
अंशु श्री सक्सेना