“ऑनलाइन राखी भेज दो अपने भाई को” प्रकाश जी ने रचना को समझाते हुए कहा।
इसकी कोई जरूरत नहीं है जब इतने सालों से नहीं भेज रही हूं तो अब कैसे …” कहते कहते रचना की आंखे भर आई गला रूंध गया।
उसकी आंखों के सामने उसके छोटे भाई की छवि घूमने लगी… उसके जन्म के 15 साल बाद कितनी मन्नतों से पैदा हुआ था … जब उसका ब्याह हुआ तो वह 17 – 18 साल की थी और भाई 3- 4 साल का …। कितना अचंभित था वो कि दीदी कहां जा रही है…अब वह किसके साथ खेलेगा, खायेगा और सोएगा… होमवर्क कौन कराएगा … हज़ारों सवाल उसके मन में थे।
उसे भी कहां मन लगता था यहां ससुराल में भाई बिना … हमेशा जी छटपटाता रहता था उसे देखने को।
रिश्ता ये कच्चे धागों का बड़ी नजाकत से दिल में बसा होता है //
जो बंधे है इन नाजुक डोर से उससे कोई सगा नहीं होता है // “”
रचना के ब्याह के बाद दोनों घर के अभिभावकों के बीच लेन देन को लेकर हमेशा मनमुटाव रहा जिस कारण यह रिश्ता बिगड़ता ही चला गया… जिसका खामियाजा रचना को सबसे ज्यादा भुगतना पडा… उसका मायका आना जाना छूट गया।
वह शादी के बाद कभी भाई को राखी बांधने नहीं जा सकी … पहली राखी पर भाई ने पापा से पूछा था कि दीदी क्यों नहीं आई क्या वह जीजाजी को राखी बांधेगी…?ये बात पापा ने हंसते हुए उसे बताया था तो उसके बालमन के इस सवाल पर वह भी हंसी थी।
पहले तो वह राखी भेज देती थी डाक से पर जब से मां ने कहा था कि डाक विभाग के लोग समय से राखी नहीं पहुंचाते हैं सो तुम मत भेजा करो””” उसका ये सिलसिला भी टूट गया।
अब पूरे बीस साल हो गए है छोटा सा भाई गबरू जवान हो गया है। दोनों अभिभावकों का देहांत भी हो गया … परन्तु भाई के मन में बहन के लिए एक कसैलापन भर गया कि दीदी हमारे सुख दुख में कभी साथी नहीं बनी… वह बदल गई शादी के बाद… उसने कभी नहीं देखा कि मैं क्या खा रहा हूं, क्या पी रहा हूं… कैसे जी रहा हूं… क्या पढ़ रहा हूं , कभी नहीं… अब फोन का जमाना है एक फोन भी नहीं करती… करेगी भी तो मैं क्यूं बात करूं उसने मुझे अकेला छोड़ दिया …।
भाई के मन की बात रचना अच्छी तरह समझती थी … वक्त समय से पहले उसे परिपक्व बनाता चला गया । इसमें वह भाई की ग़लती नहीं मानती थी … ग़लती थी तो परिस्थिति की और कुछ अपनों की भी… वह बहुत चाहती थी कि भाई से बात करे उसके सुख दुख की साथी बनें एक मां की तरह… पर ससुराल वालों की मनाही और माता – पिता की बेरुखी से मजबूर थी।…और अब उसे अपने भाई से भी नाराजगी ही मिल रही थी… काश! वो एक बार मेरा दुख समझता
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और आज प्रकाश की बात सुन वो अचंभित थी । मगर उसका इगो चाहे भाई के लिए हो या पति के लिए… यूं बीस साल के बाद राखी भेजने की इजाज़त नहीं दे रहा है।ऑनलाइन का जमाना आए तो सालों बीत गए पर … आज ही क्यों इससे पहले तो इन्होंने ऐसा नहीं कहा … क्या तब मेरी पीड़ा नहीं दिखाई दी थी इन्हें…।
“आप मर्द जात जब जो बोलेंगे सो होगा क्या….!! कभी पिता कभी ससुर … क्या मेरी आत्मा पीड़ित नहीं होती है…? पहले तो मायके से दूर कर दिया सभी ने …!!! अब… जब मैंने इतनी मुश्किल से अपने मन को बांध लिया है तो मुझे नजदीकीयां बढ़ाने को कह रहे हैं …” रचना ने रोते हुए अत्यंत पीड़ा के साथ अपने गुस्से को जाहिर किया।
प्रकाश सकपका गए… उन्होंने अभी दो साल पहले असमय ही अपनी छोटी बहन को खो दिया था तब से हर रक्षाबंधन पे उनकी कलाई सुनी रह जाती है … और तब से ही हर साल उनकी भी आंखे भर आती है … इन दो सालों में ही प्रकाश ने रचना के आंसुओं को गौर किया जो पति की सुनी कलाई देख उसकी आंखों में अनायास ही आ जाती थी पर प्रकाश उसकी अन्तर्वेदना को समझ रहे थे … अब।
“उफ्फ ! हमने ये क्या किया…इसकी आंखें तो हर साल नम रहती रही होगी पर मुझे अहंकार वश कभी दिखा नहीं… राखी पर भाई बहन में दूरी की पीड़ा मैं कभी समझ ही नहीं पाया…इसी तरह इसके भाई की भी कलाई सुनी रह जाती होगी न सालों से … उस वक्त क्या बितती होगी दोनों पर… मेरी बहन तो इस दुनिया में है भी नहीं सो मुझे इतनी तकलीफ होती है … इस दर्द को रचना ने कैसे सहा होगा….” प्रकाश के मन में आज कुछ सकारात्मक उथल पुथल चल रहा था ….।
” कुछ भी हो इस रक्षाबंधन मैं रचना को उसके मायके उसके भाई को राखी बंधवाने जरूर ले जाऊंगा… ” और प्रकाश निश्चिंतता के साथ कि सब ठीक हो जाएगा ससुराल जाने की आवश्यक तैयारी हेतु रचना को मनाने लगते हैं और वह प्रकाश के इस रूप को देख भाव विभोर होकर रोने लगती है पर अबकी दुख के नहीं खुशी के आंसू गिरते हैं पलकों से…।
“अबकी रक्षाबंधन भाई बहन गले मिल बहुत रोने वाले थे।
ये आंसू उन दोनों के,खुशी में बह सब पीड़ा धोने वाले थे”
#उम्मीद
++ समाप्त++
मौलिक व स्वरचित~ कीर्ति रश्मि “नन्द