अव्वल दर्जे की बेवकूफ़ – नीरजा कृष्णा

सीमा ऑंखें बंद किए सोच में डूबी है। आज का दिन उसके जीवन का बहुत बड़ा दिन है। घर में चहलपहल मची है पर वो…वो तो आज अपने कड़वे अतीत में डुबकी लगा रही थी…

कितने सपने ऑंखों में संजोए वो इस घर में राजेश की पत्नी बन कर आई थी। सारे सुनहरे सपने धीरे धीरे चकनाचूर होते गए। उसकी जैसी सीधी सरल महिला को दिन रात प्रताड़ित करके बावली या पगलिया की उपाधि से सुशोभित किया जाता रहा। राजेश तो सबके सामने ही चिल्ला पड़ते थे,

“तुम्हारी जैसी औरत नहीं देखी। अव्वल दर्जे की बेवकूफ़ हो।”

उसकी सहेली रंभा मिलने आई थी और सारा तमाशा देख कर उसके हाथों के तोते भी उड़ गए थे। उसने बहुत दुखी होकर कहा था,

“तू ये नरक क्यों झेल रही है। अपने और अपने बेटे के भविष्य के बारे में भी तो सोच‌। इतने क्लेश और परेशानी में तू जिंदा कैसे है…पति अपना हो तो औरत दुनिया से टकरा सकती है पर यहाॅं तो सब कुछ उल्टा पुल्टा है‌।”

रंभा बोलती रही और वो सिर झुकाए सुनती रही थी। सहेली के बहुत झंझोड़ने पर बोली थीं,

“कहाॅं चली जाऊॅं…पीहर में कौन है जो मेरा एक बच्चे के साथ स्वागत करेगा। अगर वहां कोई शुभचिंतक होता तो क्या इस तरह बिना सोचे समझे यहां मेरा विवाह करवा देता?”

उसके इस प्रश्न पर रंभा निरुत्तर हो गई पर फिर भी बोली,



“तू पढ़ी लिखी है… कहानियाॅं लिखती हैं, कविताएं लिखती हैं। इस जेल से निकल कर अपनी राह बना लें।”

सीमा को याद है…उस दिन मित्र की बात सुन कर वो कितना ठहाका मार कर हॅंसी थी। रंभा के खिसियाने पर बोली थीं,

“सब कुछ इतना आसान नहीं है। अपना घर छोड़ कर निकली हुई महिलाओं की दुर्गति से शायद तू अनजान हैं या अनजान बनने का नाटक कर रही है। हर कदम पर भेड़िए ताक लगाए बैठे हैं। उतना सब झेलने की मुझमें शक्ति नहीं है।”

“और जो यहाॅं झेल रही है…उसके लिए ताकत है?”

“हाॅं है क्योंकि ये मेरा घर है और यहाॅं मेरे बेटे का बाप है। कम से कम उसे तो संरक्षण मिला हुआ है और रहा मेरा सवाल…शायद मैं इसमें से अपने लिए कुछ सम्मानजनक राह निकाल पाऊॅं।”

रंभा उसके दृढ़ निश्चय के आगे नतमस्तक हो गई। उसने हार मानते हुए उसका माथा चूम लिया था और शुभकामनाएं देते हुए बड़बड़ाई थी…बावली है।

आज वो शुभ घड़ी आ गई है। उसकी सहनशीलता के कारण घर नहीं उजड़ा, उसके बेटे को उज्ज्वल भविष्य मिला और धीरे धीरे पतिदेव भी कुछ सुधर गए।

तभी बहू बेला आकर बोली,

“मम्मी, आज तो अपने सोचभवन से बाहर निकलिए। समय हो गया। चलिए, वहां समारोह में साहित्य का शीर्ष पुरस्कार आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।”

वो जागृत होकर उसका हाथ पकड़ कर चल पड़ीं।  वो चलते चलते फिर सोचने लगीं….वो वाकई अव्वल दर्जे की बेवकूफ़ ही तो थी,तभी इतना कुछ कर पाईं। पति से लड़ कर मायके जा बैठती और आफ़त मोल लेती या अहम भाव में जिंदगी नरक बना लेती….।

नीरजा कृष्णा

पटना

 

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