वादा – विजया डालमिया

“प्रेम कहाँ हो तुम?” कहते हुए दना- दन सीढ़ियाँ चढ़ गई प्रिया। दूसरे माले में प्रेम का रूम था। जल्दी-जल्दी चढ़ने की वजह से उसका गोरा रंग गुलाबी हो चला था। सफेद सलवार सूट में वह खिलता गुलाब दिख रही थी। कमरे के बाहर कमर पर हाथ रखकर वह एकटक प्रेम को ही निहार रही थी जो अपने आप में गुम कुछ लिख रहा था।

उससे वेट नहीं हुआ तो वह गले को खंखारने लगी। तब भी प्रेम ने कोई रिएक्ट नहीं किया। तब उसने अपनी चूड़ियों को खनकाना शुरू किया। प्रेम ने नजरें उठाकर उसे देखा, हल्के से मुस्कुराया और कहा ….”तुम्हारे साथ तुम्हारा गला ,खाँसी, चूड़ी सब अंदर आ सकते हैं”। यह सुनते ही प्रिया हँस पड़ी ।अंदर जाकर उसके करीब एक कुर्सी खींच कर बैठ गयी ।

 …” कुछ नया लिख रहे हो क्या”?… “हाँ, ऐसे ही बस”।…” ऐसे ही क्या ?मुझे भी तो बताओ”। कहकर प्रिया उसका लिखा पढ़ने की कोशिश करने लगी। जिसे देखकर प्रेम ने डायरी बंद की और कहा…” अभी नहीं। हाँ ..बोलो ..क्या काम है”? यह सुनते से ही प्रिया रुआँसी होकर कहने लगी ….”क्यों ?मैं बिना काम के नहीं आ सकती क्या”? प्रेम ने फिर बेरुखी दिखाई और कहा….

” देखो प्रिया मुझे अभी बहुत काम है। तुम तो जानती हो ना मेरी एग्जाम अभी सर पर है “।जैसे ही प्रेम ने यह कहा प्रिया आँखों में आँसू लिए वहाँ से चली आई। आज कितने ही दिनों से वह नोटिस कर रही थी प्रेम के इस बर्ताव को। फिर भी प्रिया एक समझदार लड़की थी ।जल्दी ही उसने अपने दिल को यह कहकर बहलाया कि ..  सच ही तो है उसके एग्जाम एकदम करीब आ गए हैं ।

मुझे तो खुश होना चाहिए कि वह अपनी पढ़ाई व काम को लेकर इतना गंभीर है ।यह सोचते  ही उसके होठों पर मुस्कुराहट आ गई। इधर जैसे ही प्रिया गई प्रेम के नयन सजल हो उठे। उफ्फ़…. यह क्या कर रहा हूँ मैं ?उस मासूम को सच बता क्यों नहीं देता? पर मैं भी क्या करूँ ।

सही वक्त का इंतजार तो करना ही होगा ।अब प्रेम का मन लिखने में नहीं था। वह सोचते-सोचते दूर निकल गया जहाँ  प्रिया अपनी सहेलियों के साथ बगीचे में छुपा-छुपी खेल रही थी। एकदम मासूम। खिलती कली ।अचानक ही झाड़ियों में से एक साँप निकला ।किसी को ये खयाल भी नहीं था कि अगले पल क्या होने वाला है ।तभी प्रेम ने भागकर प्रिया को अपनी तरफ खींच लिया। 

साँप लहरा कर दूसरी तरफ बढ़ गया। प्रिया की आँखों पर तो पट्टी बंधी थी। पर दिल की परत प्रेम के छूते ही मचल उठी ।किसी का पहला स्पर्श उसकी धड़कनों में उतर गया ।वह मासूम बच्ची की तरह प्रेम से चिपकी रही। तभी प्रेम ने उसकी पट्टी खींचकर खोल दी ।उसे अपने से अलग हटाते हुए कहा…. “अभी अगर साँप काट लेता तो”? प्रिया ने आँखों को मटकाते हुए कहा… “क्या तुम साँप हो”?

सुनकर प्रेम हँस पड़ा और उसके गालों पर प्यार भरी चपत लगाते हुए कहने लगा ….”बदमाश”। और दोनों हँसने लगे। दिन यूँ ही बीत रहे थे। प्रेम प्रिया से 8 साल बड़ा था। बचपन में ही माता -पिता और बहन को खो चुका था ।यहाँ प्रिया की मम्मी दूर के रिश्ते में उसकी बुआ लगती थी, तो वे उसे यहाँ ले आई। प्रिया के इतने बड़े घर में एक कमरा उसके नाम का था।

अपने नाम के अनुरूप ही प्रेम सबसे बड़े प्यार से मिलकर रहता। प्रिया के मम्मी- पापा भी उससे बेहद खुश रहते थे और प्रिया  को  तो अपनी हर बात मनवाने के लिए प्रेम जादुई छड़ी लगने लगा  था ।



पढ़ाई से संबंधित कोई समस्या हो या कहीं जाने की, हर हाल में प्रेम ही उसे याद आता था क्योंकि प्रेम की कोई भी बात मम्मी -पापा नहीं टालते थे और प्रिया  प्रेम की कोई बात नहीं टाल  पाती थी। एक बार जब प्रिया बीमार पड़ी तब सिर्फ प्रेम ही था जो उसे दवा और खाना खिला पाता था। कितने दिनों तक उसने उसका खयाल रखा था ।अंकल आंटी तो एक ही बात कहते थे…”

प्रेम तुम ना होते तो ना जाने क्या होता”? जब भी कभी प्रिया उदास होती उसके पास चली आती। वह उसके सर पर हाथ फेर कर  पूछता था…” क्या बात है “?और बस प्रिया खोल कर बैठ जाती अपनी शिकायतों का पुलिंदा। परंतु बगीचे की बात वाले दिन से प्रिया में बहुत बदलाव आ गया था। अब वह पहले की तरह नहीं रही। एक स्पर्श उसे भीतर तक झकझोर गया था

।प्रेम से बातें करते -करते वह खामोश होकर नजरें झुका लेती थी। अभी कुछ  रोज पहले की बात है ।अंकल आंटी बाहर गये थे। अचानक मूसलाधार बारिश होने लगी। प्रिया ने मेरे कमरे में आकर मेरा हाथ पकड़ा और खींच कर छत पर ले गई।…. “देखो ..बारिश की बूंदे कितनी चमक रही है “।



कहकर मेरे हाथ अपने हाथ के साथ आगे फैला दिए मानो बूंदों को कैद कर लेंगे ।मैंने उसे समझाने की कोशिश की….” देखो, ज्यादा भीगने से सर्दी लग जाएगी तुम्हें। चलो ..भीतर”। कहकर मैं उसे खींचकर अंदर ले आया। वह बहुत प्यार  भरी नजरों से मुझे देखने लगी और अचानक मुझसे लिपट गई। मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने उसे अपने से अलग करते हुए कहा….”

जाओ, कपड़े चेंज कर लो और अदरक काली मिर्च वाली चाय ले आओ”। वह चली गई ।पर मैं तब से ही बेहद परेशान हूँ ।अपने आप से लड़ता हुआ। कैसे बताऊँ?कुछ सोच कर प्रेम ने एक निर्णय लिया और पेन उठाकर लिखना शुरू किया….” प्यारी प्रिया, मैं जिस दिन से यहाँ आया तुम सब का भरपूर निश्चल प्यार पाया। तुम्हें बताया था ना कि मम्मी-पापा ने बड़े प्यार से मेरा नाम प्रेम रखा था

यह कहते हुए कि…” तुम सबके दिलों में प्रेम बनकर समा जाओगे। मेरी छोटी बहन जिसका नाम मैंने तुम्हें आज तक नहीं बताया जानती हो क्या था उसका नाम … प्रिया ?हाँ उसका भी नाम प्रिया ही था। जब मैं यहाँ आया और तुम्हें देखा तो इक पल को तो मुझे लगा जैसे वही मेरे सामने हो। बस उसी दिन से तुम मेरे दिल में समा गई मेरी छोटी प्रिया बनकर। मेरा प्यार तुम्हारे लिए हमेशा एक बड़े भाई की तरह ही रहा ।पर कुछ दिनों से तुम्हारे व्यवहार में जो बदलाव आ रहा है वह मेरे लिए  बेहद तकलीफ देह है ।

ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें बता नहीं सकता था। पर मैं नहीं चाहता था कि तुम मेरे सामने खुद को शर्मिंदा पाओ। मुझे पता है यह सब जानकर तुम्हारे आँसू बह रहे होंगे और तुम्हें खुद पर शर्मिंदगी भी हो रही होगी ।पर मैं तुम्हारी नजरें झुकी हुई  नहीं देख सकता। मैं तो चाहता हूँ कि तुम हमेशा की तरह दनदनाती फक्र  से मेरे सामने आओ और उसी अधिकार से मुझे डांटो ।

मुझसे झगड़ा  करो जैसा अब तक करती आई हो ।यह खत तुम्हें जब मिलेगा तब तक मैं यहाँ से जा चुका होंगा।पर हमेशा के लिए नहीं ।जब तुम दुल्हन बनोगी तब तुम्हें डोली में बैठाने मैं जरूर आऊँगा ।यह वादा रहा मेरा ।

लिखा कुछ आज जो वक्त का तकाजा है ।

मेरे दिल का दर्द अभी ताजा-ताजा है ।

गिर पड़ते हैं मेरे आँसू कुछ सोच कर।

लगता है कलम में स्याही   का दर्द ज्यादा है।

विजया डालमिया  

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