* प्यारे पापा * – मधु शुक्ला

वंदिता सबसे बड़ी थी, उससे छोटी नम्रता और प्रेरणा थीं।

तीनों बहनें हर प्रकार से योग्य थीं। घर के काम हों या पढ़ाई लिखाई सभी में होशियार। माँ बाप कीं लाड़लीं लेकिन परिजनों और पड़ोसियों की आँख की किरकिरी थीं वे। कारण जो गुण उनके बेटों में नहीं थे। वे उनमें मौजूद थे। अपने माँ बाप के लिए बेटा और बेटी दोनों वही थी। अपने माता-पिता को उन्होंने कभी बेटे की कमी खटकने नहीं दी थी। सीमित आमदनी में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छे पदों पर वे काम कर रहीं थीं। उचित वर खोज कर पापा ने विदाई का कर्तव्य निभा दिया था। समय रफ्तार से दौड़ रहा था। वृद्ध माता पिता को सहारे की जरूरत थी। उनकी उम्मीद बेटियाँ हीं थीं। लेकिन बेटियाँ उनके साथ नहीं रह सकतीं थीं, सर्विस के कारण। और वे बेटियों के घर में नहीं रहना चाहते थे। ऐसी परिस्थिति में वंदिता ने निर्णय लिया नौकरी छोड़ने का उसकी देखा देखी प्रेरणा और नम्रता ने भी यही विचार व्यक्त किया। तब उनके पापा ने बेटियों की खुशी के लिए अपनी जिद (बेटियों के घर में न रहने की) छोड़ दी। और थोड़ा थोड़ा समय तीनों के यहाँ रहने के लिये राजी हो गए। पापा के निर्णय से तीनों बहुत प्रसन्न हुईं। वे अपने पापा से यही उम्मीद कर रहीं थीं। वक्त और परिस्थिति को देखते हुए जो सही था। वही पापा ने बच्चों की खुशी के लिए किया। इतने प्यारे पापा को पाकर कौन खुश नहीं होगा। यह सोचने की बात है। हमें सोचना चाहिए।

 

स्वरचित — मधु शुक्ला .

सतना . मध्यप्रदेश .

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