आज रविंदर बिजी अपने पोते अमरसिंह से बोल रही, “सुन पुत्तर, मुझे न अमृतसर ले चल, तुम सब मेरी बीमारी में बहुत परेशान हो गए हो, इत्ती उम्र नब्बे भी निकली जा रही, मुझे भगवान बुलाता ही नही, कुछ तो कारण है।”
“क्या बिजी, इतने ऐशो आराम से परिवार के मध्य सेवा करा रही हो, अब गांव में कौन जाकर रहेगा, देखता हूँ, बीच मे समय निकालकर दो दिन के लिए ले जाऊंगा।
आज भी बिजी की आँखों मे उनके अमृतसर से लगे गांव की यादे बरकरार थी। आज भी उनकी छोटी बहन जो देवरानी भी थी, पुरानी हवेली में परिवार सहित रहती थी।
एक रात जोर से रोने लगी, तुस्सी कहाँ हो, इक बार आ जाओ…
सब उठकर दौड़े आये, बिजी को क्या हुआ, पूरा परिवार उनको बिजी ही बुलाता।
परपोता जो अब पंद्रह वर्ष का हो चला था, अपने पापा से पूछने लगा, ये बिजी आधी रात को किसको बुला रही।
“तुम नही समझोगे बेटा, बड़ी लंबी कहांनी है, हम कोई भी शब्दो मे दोहराना नही चाहते थे कि बिजी परेशान होंगी, पर कुछ दिनों से अपने आप ही इतना याद कर रही। बताऊंगा कभी, बहुत रात जो गयी, सो जा।”
सवेरे सूर्य की किरणें माहौल बदलने को तत्पर थी, तभी फिर, बिजी के रोने की आवाज़ पर अमर सिंह दौड़कर पहुँचे और उनकी वही रट सुनकर सोचने लगे, लग रहा इक बार तो बिजी को उनके गांव ले जाना ही पड़ेगा।
दो दिन बाद अपनी कार से ही बिजी को लेकर परिवार के तीन चार लोग निकल पड़े। बिजी बहुत प्रसन्न थी जैसे मन की मुराद मिल गयी। अपने पुराने बक्से से एक लाल दुपट्टा जिसमे जरी के तारों की कढ़ाई थी, बहू से निकलवा कर ले आयी थी। पोता बार बार उत्सुकतावश पूछ रहा था, बिजी वहां क्यों जा रहे, कौन है वहां?
गांव जो अब कस्बे में परिवर्तित हो चुका था, वहां एक गुरुद्वारे में कार रोकने कहा और बोली, देख पुत्तर इसी गुरुद्वारे में मेरा बियाह हुआ था, मैंने यही लाल दुपट्टा ओढ़ा था। इक बार मत्था टेक आऊं जरा।
और बड़ी मशक्कत से सब पकड़कर उन्हें गुरुद्वारे के अंदर ले गए।
दरवाजे के पास एक बुजुर्ग सरदारजी बुरे हालात में लाल पगड़ी जो जर्जर हालत में थी, बांधे बैठे थे।
अचानक उनको गौर से देखने लगी बिजी, और वो सरदार जी भी घूर रहे थे।
अमरसिंह ने कहा, “चलो बिजी देर हो रही।”
“रुक जा पुत्तर, कुछ याद आ रहा, ये जो सरदार जी बैठे हैं, कुछ पहचाने से लग रहे, लाल पगड़ी भी देखी हुई लग रही, कोई से पूछ न, कौन है ये?”
सबसे आगे एक सरदारजी चादर नीचे बिछा रहे थे, उन्ही से जाकर अमरसिंह ने पूछा, जवाब मिला, ये, कई वर्षों से यहां रहते है, लंगर में बर्तन सब धो देते थे, अब तो कोई काम नही होता, खाना पीना मिल जाता है। कुछ पूछो तो खामोश रहते, लगता सब भूल चुके हैं।
अमरसिंह ने उनके पास जाकर पूछना शुरू किया, आपका नाम क्या है, और तब तक वो बिजी के ऊपर झपट कर वो लाल दुपट्टे को खींचने लगे, दुपट्टे को सीने से लगाकर जोर से बोले, मेरी रब्बी है तू ना, कहाँ भाग गई थी लाइन छोड़कर, मुझे सिपाही पकड़ ले गए थे, तीस वर्ष जेल में रखा, फेर जब मैं आकर खोजन लागा, मेरी रब्बी गुम हो गयी थी, मेनू पत्ता था, वाहे गुरु कुछ न कुछ करेंगे।
“सरदारजी, ये पगड़ी भी मैं पहचान गयी थी, दिखाओ इसमे मैंने आपका नाम और फूल रेशमी धागों से काढा था।”
आ गले लग जा, और सत्तर वर्ष बाद दो दिल मिल रहे थे।
अमरसिंह और सबलोग अवाक देख रहे थे, ये क्या हो रहा है। लाल दुपट्टा बिजी को फिर से उन्होंने उड़ाया और दोनो बिना किसी की परवाह किये लिपटे रहे।
कुछ देर बाद अमरसिंह ने ही कहा, चलिए दोनो घर चलिए, ओ सोनू महाशय ये परबाबा है, आशीर्वाद ले लो।
पर वो लिपटे जोड़ा संग संग ब्रह्मांड की ओर चल चुका था, तो घर क्या जाता।
और अमरसिंह अपने बेटे को पार्टीशन की कहानी सुनाते हुए, आंसू बहाते हुए, बिजी और बाबा के शरीर को लेकर उसी कार से घर वापस लौट रहे थे।
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़