“कलुआ,पानी दे ।”
“कल्लू मेरी चुनौटी तो ला दे।”
“मास्टर जी,बुला रहे काले राम तेरे को।”
कल्लू,कलुआ,कालेराम सब उसे इसी नाम से बुलाते।वैसे रंग ही उसका झक काला तो नहीं हाँ थोड़ा दबा जरूर था। छबि सुंदर थी।माँ पर गया था,बस रंग छोड़ कर।।संयुक्त परिवार मे बड़ी बहू जानकी(उसकी मां)दो देवर,उनकी पत्नियाँ,सास थी।सम्पन्न घर।सुघड़ जानकी ही घर का सारा काम संभालती।
नाजों से पाली थी जानकी। तीन भाइयों में सबसे छोटी, अकेली एक बहिन। पढ़ाई में, कसीदा कारी, खाना बनाने में, सब में अव्वल। आठवीं कक्षा पास करते ही रिश्ते आने लगे विवाह के।
दादी ने कहा ” इतने अच्छे रिश्ते आ रहें हैं, जानकी के लिये,पंद्रह साल की हो रही है मोड़ी, का बूढ़ा कर उसका बियाह करोगे, तुम लोग उसका।अरे बियाह के बाद पढ़ लेगी। “
दादी के आगे किसी एक न चली। रोज़ ब्रह्म वाक्य दोहराती “जीते जी मोड़ी का बियाह देख लूँ. उसका घरबार देख लूँ।”
आखिर सब दादी की ज़िद के आगे हार गये।
जानकी ब्याह कर ससुराल आ गई।
भरा पूरा घर। खूब प्यार करने वाली सास, छोटे भाइयों से देवर और जानकी पर अपना प्यार लुटाने वाला उसका पति गिरीश।
जानकी ने जब से अपनी ससुराल की देहरी में प्रवेश क्या किया, अपना पीहर ही भूल गई। ससुराल की गृहस्थी में ऐसी डूबी कि मायका जाने का समय न निकाल पाती।
लड़कियों की यही नियति है। वे विश्वकर्मा की बहिन का रूप ही होतीं है। इस धरती पर वह सबके घर बनाती हैं, सिवाय ख़ुद के घर के।
जानकी रम गई ससुराल में।देवरों के विवाह हुए।
जानकी एक बेटे की माँ बनी। अन्नपूर्णा सी जानकी अब भी घर गृहस्थी को करीने से संभाले हुए थी। किसी बात की कमी नहीं थी उसे।
अचानक असाध्य बीमारी से हुई गिरीश की मृत्यु से सब बदल गया।
सास को लगता, कि जानकी ही गिरीश की मृत्यु का कारण है। देवर, देवरानी के व्यवहार में भी उसके प्रति अंतर दिखने लगा। परिवार के सभी लोगों की उपेक्षा की पात्र बनने लगी।
एक पति के मृत्यु से सम्बंधों के सारे धागे टूटने लगे।
बात बात पर जानकी की सास उसे अपमानित करती।
अपना अपमान तो जानकी सह लेती लेकिन उसके बेटे को कोई अपशब्द कहे, तो जानकी क्या, कोई भी माँ बर्दाश्त नहीं कर सकती।
जानकी के पति गिरीश कीजब मृत्यु हुई ,उसका बेटा दो साल का था।अपना यही नाम सुनते सुनते वो अब छह साल का हो गया।सब लोग उसे इसी नाम से बुलाते।जानकी की सास भी अक्सर कहती–जाने किस पर पड़ा ये कलुआ,मेरा गिरीश तो गोरा चिट्टा था।”जानकी इस लांछन को समझती थी,पीड़ा पी जाती,उसकी पवित्रता का गवाह इस दुनियाँ मे जो नहीं था।
शाम के समय आँगन मे अपने चचेरे भाईयों के साथ जानकी का बेटा भी छुआ-छुव्वल खेल रहा था,उसकी आँखों पर रुमाल बंधा था।
“कल्लू ले-ले-छू “”कलुआ आ-आ-पकड़”।
इसी समय उसके चाचा ने बोला-लाल कमीज़ को पहिने कालू राम ऐसे लग रहे हो जैसे कोयला दहक रहा है।”
ये आवाजे चूल्हे पर रोटी सेकती जानकी के कानों में पिघले गरम शीशे की तरह पड़ी।हाथ मे जलती लकड़ी लिये आँगन की तरफ दौड़ी,बोली—
-“मुँह झौंस दूँगी उसका अगर किसी ने अब इसे इस नाम से बुलाया तो।इसका बाप इसे एक नाम दे गया है,श्याम। श्याम नाम है मेरे बेटे का ।बर्दाश्त की भी हद होती है।”
सुनीता मिश्रा
भोपाल