मां, अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं है, महीना शुरू हुए इतने दिन हो गये और आपने अभी तक भी पैसे नहीं भेजे?? मैं ही अकेला मां का खर्चा क्यूं उठाऊं? अभी मेरे मकान का भी काम चल रहा है, अब मकान बनवाऊं या मां की बीमारी में पैसा खर्च करूं! मेरे पास भी कोई खजाना नहीं गड़ा हुआ है, मेरे पास भी अथाह धन नहीं है…. सौरव फोन पर चिल्ला रहा था और विनीत चुपचाप सुन रहा था। छोटी सी बात का बतंगड़ बनाने में सौरव माहिर था, छोटा भाई होने के बावजूद भी वो विनीत को सुना देता था, और अपनी हर जिद पूरी करके मानता था।
विनीत ने दो दिन का समय मांगा और अपने दोस्त से उधार लेकर पैसे सौरव के अकाउंट में भिजवा दिए।
कहने को विनीत बड़े शहर में रहता था पर बस जितना बड़ा शहर उतने ही बड़े खर्चे थे। घर खर्च, बच्चों की पढ़ाई लिखाई, मकान का किराया, ऑफिस आने -जाने का खर्च और राशन पानी -मेडिकल का बिल सब बंधा हुआ था। महीने के पैसों में से कुछ हजार रूपए निकालना मुश्किल हो जाता था। विनीत की परेशानी सिर्फ उसकी पत्नी ज्योति समझती थी वो पति के सुख -दुख की साझेदार थी, अपने पति के कमाएं रूपयों के बजट के हिसाब से चलती थी। महीनों से उसने नया कपड़ा नहीं खरीदा था, घर की ऐसी बहुत सी जरुरतें थीं, जिन्हें वो टाल दिया करती थी। विनीत की सैलेरी में से कुछ बचता ही ना था, मन में इच्छाओं का संसार लिएं वो अपने जीवनसाथी का बराबर साथ दे रही थी।
उसने कई बार अपनी सास को कहा कि वो कुछ दिनों के लिए उनके पास आकर रहें पर शकुन्तला देवी अपने छोटे बेटे के ही पास रहना चाहती थी क्योंकि वही पर उनके सारे रिश्तेदार रहते थे, और आधुनिक सुख सुविधाएं थीं।
शकुन्तला देवी के दो बेटे थे। बड़े बेटे विनीत ने अपनी पढ़ाई पूरी की पर वो ज्यादा कुछ ना कर पाया, एक जगह नौकरी भी लगी थी पर वो वहां से छोड़कर आ गया, पिताजी के सुझाव पर उसने बिजनेस शुरू किया पर वो बिजनेस में भी अच्छा ना कर पाया और अब उसकी उम्र भी शादी की हो गई थी। लड़की वालों के रिश्ते आयें पर सबने बिजनेस अच्छा ना देखकर इंकार कर दिया।
ज्योति के घरवाले गरीब घर से थे इसलिए उन्होंने शादी कर दी, उनका मानना था कि परिवार के बीच बेटी का पेट पल जायेगा।
शादी होने के बाद ज्योति को अपने पति की वजह से तानें सुनने पड़ते थे, एक दिन वो खाना खा रही थी तो शकुन्तला देवी ने ताना दे दिया, तेरी पति की कमाई का खाना नहीं है जो इतना लेकर बैठ गई है, हिसाब से खाया कर, मेरा पति कमा रहा है और ये घर उसी से चल रहा है, रोटी का कौर ज्योति के हाथ में रह गया।
अब तो उसने जिद पकड़ ली कि वो मेहनत से काम करें और घर में पैसा लाकर दे, ज्योति ने अपने दूर के रिश्ते के भाई को कहा और उसकी कंपनी में विनीत की नौकरी पक्की हो गई।
तूने सास-ससुर की सेवा के झंझट से मुक्ति पाने का अच्छा उपाय ढूंढा है, शकुंतला देवी ने ज्योति को सुनाया।
नहीं मांजी, मैं इस तरह से रोज आपके तानें सुनकर जीना नहीं चाहती हूं,ससुर जी की कमाई के पकवान भी मेरे लिए फीके हैं और अपने पति की कमाई की दो सूखी रोटी भी मैं हंसकर खा लूंगी। अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उस दिन ज्योति ने ससुराल छोड़ दिया।
विनीत के संग नये शहर में आ गई।
नये शहर में बसना आसान नहीं था, धीरे-धीरे करके सब सामान बसाया, पति की कमाई में ज्योति खुश थी चाहें थोड़ी ही थी पर आत्मसम्मान की रोटी खा रही थी।
उधर सौरव जब बाहर से अपनी पढ़ाई पूरी करके आया तो उसे ये सब सुनकर बड़ा गुस्सा आया, भाई भाभी के इस तरह चले जाने से वो नाराज़ था। सौरव ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, उसकी अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई और अमीर घराने की लड़की से उसकी शादी हो गई।
दोनों का अपना जीवन चल रहा था पर उससे ये बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि भाई-भाभी अपने अलग रह रहे हैं और मेरी पत्नी को यहां घर संभालना पड़ रहा है।
एक दिन रंजना भी गुस्से से सौरव से बोल पड़ी, अपने माता-पिता की सेवा करवाने तुम मुझे लाये हो क्या?
मेरी अपनी कोई जिंदगी नहीं है क्या? शकुन्तला देवी दोनों का झगड़ा सुन लेती हैं और वो बहू की मदद कराने लगती हैं, धीरे-धीरे रंजना सारी रसोई की जिम्मेदारी का भार शकुंतला देवी के कंधों पर डालकर खुद रसोई के कामों से मुक्त हो जाती है।
शकुन्तला देवी काम तो कर लेती थीं पर उन्हें पैसों का बड़ा लालच था, अच्छी साड़ियां और अच्छा खाना उनकी दो कमजोरी थी। रंजना उन्हें अपने मायके से आई कीमती साड़ियां उपहार में देती रहती थी और उनसे काम करवा लिया करती थी।
कहने को वो थक जाती थीं पर फिर भी सबसे यही कहती थीं कि काम ना करूंगी तो हाथ पैर जाम हो जायेंगे। रंजना के जब पहली संतान हुई तो रंजना उसी को पालने में लग गई और शकुन्तला देवी पर हर काम के लिए निर्भर हो गई। रंजना को तो इतना भी पता ना
था कि रसोई के मसाले भी कहां पर रखे हुए हैं।
जब भी ज्योति फोन पर अपनी सास से बात करती
तो वो नाराज़ सी रहती थीं, अब उनकी नाराजगी किस चीज को लेकर थी ये तो ज्योति भी नहीं जानती थी।
वो जब ससुराल में थी तो वो पूरा काम संभाल लेती थी, अपनी सास को हाथ भी नहीं लगाने देती थी, उनका कहा मानकर उनके अनुसार काम करती रहती थी और उन्हें शिकायत का मौका नहीं देती थी पर जब बात पति की कमाई और स्वाभिमान की आई तो वो ये सब बर्दाश्त नहीं कर पाई थी और उसने वो घर छोड़ दिया था।
समय चल रहा था, सौरव और विनीत के बच्चे बड़े हो रहे थे, सौरव की कमाई बहुत थी तो उसकी पत्नी को अब घर छोटा लगने लगा और पति से जिद करके वो नया घर बनवाना चाहती थी, पर सौरव के पिताजी अपने हाथों से बनाएं घर को तोड़ना नहीं चाहते थे।
एक दिन शकुन्तला देवी के पति को दिल का दौरा पड़ा और अचानक उनकी मौत हो गई, पन्द्रह दिन तो निकल गयें, सब रिश्तेदार भी आकर चली गये पर उसके बाद शकुंतला देवी टूट गई थीं अब उनका किसी काम में मन नहीं लगता था, रंजना का व्यवहार अब बदलने लगा था, जिस सास से वो पैसों के दम पर सेवा करवाती थी, साड़ियों का लालच देती थी अब वो ही सास बेजान सी हो गई थी, घंटों गुमसुम बैठी रहती थी, अब रसोई का भार रंजना पर आ गया तो वो सौरव पर गुस्सा निकालती थी, मैं ही मांजी की सेवा करने के लिए फालतू नहीं हूं, तुम्हारी भाभी तो वहां मजे से रह रही हैं और मैं यहां रसोई में दिन -रात खट रही हूं, वो तो वहां सुखी हैं और हम यहां इनके दुखड़ो के साथ में जी रहे हैं।
रंजना रोज ही खटपट करती थी, शकुन्तला देवी अब बीमार भी रहने लगी थीं,उस पर बहू के तानों ने उनका कलेजा छलनी कर दिया था, बड़ी बहू के पास भी वो किस मुंह से जातीं। अब उनकी सेवा और बीमारी का खर्च भी रंजना को खटकने लगा था, वो रोज ही तानें देती थी और सौरव के कान भी भरती थी।
ससुरजी के जाने के बाद रंजना ने वो मकान तुड़वा दिया और उसी पर नया मकान बनवाने लगी, पर सास का खर्च उसे अभी भी अखरता था, आखिरकार सौरव ने कह भी दिया कि भैया मां के लिए हर महीने का खर्च भेजो अब मुझसे नहीं उठाया जाता है, मैं घर भी बनवा रहा हूं उसमें भी लाखों रूपया लग रहा है।
ज्योति और विनीत के हाथ ज्यादा खुले नहीं थे, और वो देखकर घर चलाते थे, फिर भी उन्होंने मां के लिए हर महीने खर्च भेजना तय कर लिया। उसने तो कहा भी मां जी, हमारे पास रह लीजिए पर शकुंतला देवी अब कुछ काम ना करतीं पर उस घर की चौकीदारी करती थीं।
रंजना और सौरव बाहर घूमने फिरने चले जाते थे तो वो ही दोनों पोतों को संभालती थीं और घर पर रहती थीं।
एक दिन विनीत कंपनी के काम से शहर गया तो मां से मिलने भी चला गया, मां की हालत देखकर उससे रहा नहीं गया, और उसने जिद कर ली कि मां उसके साथ ही घर चलेंगी पर सौरव और रंजना ने मना कर दिया।
शकुन्तला देवी भी गले तक भर गई थीं, उस दिन वो बिफर गईं और गुस्से से बोलीं, तुम दोनों अपने आपको समझते क्या हो? मैं तुम्हारे इशारों पर ही नाचती रहूंगी क्या? हां पहले मैं थोड़ी साड़ियों की लालची थी पर अब मुझे किसी चीज का लालच और चाह नहीं है, अब मैं अपनी जिंदगी जीना चाहती हूं।
बहू, तेरी गलती नहीं है ये दुनिया की रीत है कि काम करता इंसान ही सबको अच्छा लगता है, जब मैं तेरी रसोई संभालती थी तब मैं तुझे अच्छी लगती थी,पर अब मैं तेरी रसोई नहीं संभाल सकती और अब मैं तुझे बैठी हुई अखरती हूं, कुछ दिनों के बाद मैं बिस्तर पर भी आ जाऊंगी तब तुम मेरी बिल्कुल कदर नहीं करोगे।
मैं इस उम्र में तुम्हारे घर की क्या चौकीदारी ही करती रहूंगी। सौरव, मां हूं तेरी तुझे नौ महीने कोख में पाला है,छोटा है तो तुझे सबसे ज्यादा प्यार दिया है, विनीत से ज्यादा तू मेरा लाड़ला रहा है, तेरी हर जिद पूरी की है, तेरे खिलौने और खेल के सामान का मैंने कभी हिसाब नहीं किया, जानें कितने रूपये ऐसे ही खर्च कर दियें और आज तू मां के खाने और दवाईयों का हिसाब मांगता है, भाई से बराबर के रूपये मांगता है, जबकि तुझे तेरे भाई की स्थिति का पता है, तेरे पास तो खजाना भरा है फिर भी एक मां तुझे भारी लगती है।
मकान को चमकाने में लाखों, करोड़ों रूपये पूरे कर रहा है,एक से बढ़कर एक चीज मकान में लगा रहा है, कहीं कमी ना रह जायें पर मां के इलाज के लिए पैसे नहीं हैं।
मकान में लगाने के लिए लाखों है पर मां के लिए हजारों भी नहीं है। इस मां ने तुझे पाला और इस मां की कुर्बानियां तू भुल गया, तेरे लिए पैसे इतने कीमती हो गए हैं।
तू ये भी मत भूल तू जिस पर मकान बनवा रहा है, वो जमीन मेरे पति की कमाई की है, जिसे तू अपना बता रहा है,अभी इतनी जमीन खरीदने जायेगा तो तेरे पास पैसे भी कम पड़ जायेंगे फिर तू मकान क्या बनवायेगा?
कहते हैं ना पूत कपूत हो सकता है पर माता कुमाता कभी नहीं हो सकती है, मैं मां हूं अपने बच्चे का सदा भला ही चाहूंगी और अपने बच्चे को दुआ ही दूंगी, पर मैं अब तेरे साथ नहीं रह सकती हूं, मैंने ज्योति के साथ बहुत ही अन्याय किया था।
मैं जाकर उससे माफी मांग लूंगी, बेकद्री से तेरे महल की चौकीदारी करने से अच्छा है मैं विनीत के साथ उसकी किराये की झोपड़ी में ही रह लूंगी।
शकुन्तला देवी ने अपना सामान बांधा और विनीत के साथ में चल दीं। वहां पहुंचकर ज्योति ने उन्हें आदर से बिठाया और सब पुराना भूलकर वो मांजी की सेवा करने लगी, बच्च भी दादी -दादी कहके आगे -पीछे होते रहते थे, घर के सामने ही पार्क था, शकुंतला देवी वहां चली जाया करती थीं, वहां उनकी हमउम्र महिलाओं से दोस्ती हो गई थी, वो अब सदमे से बाहर आ गई थीं, उनका मन लगने लगा था, घर की साग सब्जियां साफ कर दिया करती थीं।
महीने की एक तारीख आ गई थी, इस बार विनीत ने पैसे नहीं भेजे पर सौरव ने विनीत को मां के खर्च के लिए पैसे भेजे। इस पर ज्योति ने वापस पैसे लौटा दिए, देवर जी मां हमारे साथ रह रही हैं, वो भी इस परिवार का अहम हिस्सा हैं, जिस तरह हम हमारे बच्चे पाल रहे हैं, उसी तरह मांजी भी हमारे साथ रह लेंगी। हम जैसा खा रहे हैं, वो भी खा ही लेंगी। मां भी अब हमारी ही जिम्मेदारी हैं।
विनीत ने भी कहा कि, मुझ पर धिक्कार है जो मैं मां पर किये गये खर्च का हिसाब रखूं और आधा तुझसे लूं, मां ने खून पसीने से हमें सींचा है, मां ने रातों जागकर हमें पाला है, हमारे लिए बरसों खाना बनाया है, कभी हम पर किये गये खर्च का हिसाब नहीं लगाया।
मेरे भाई तू ये पैसा तेरे मकान में लगाकर उसे चमका ले, मेरी मां के चेहरे को मैंने तो मुस्कान से चमका लिया है।
मैं मां की कुर्बानियां भुल नहीं सकता, उनके आगे पैसों की कोई कीमत नहीं है।
फोन स्पीकर पर था, रंजना और सौरव के चेहरे लटक गये, उन्हें अपने पर शर्म आ रही थी, विनीत ने कम पैसों के बावजूद भी मां की हर इच्छा पूरी की और रंजना और सौरव ने मकान पर लगाएं पैसों का तो कभी हिसाब नहीं लगाया पर मां के खर्च का हिसाब लगाते रहें।
पाठकों, ये ही समाज की कड़वी सच्चाई है, आज भी कई घरों में बेटे बहू घूमते हैं, हजारों की शॉपिंग करते हैं, लाखों मकान में लगा देते हैं, अपने बच्चों की पढ़ाई और अन्य गतिविधियों पर खर्च कर देते हैं पर कभी हिसाब नहीं लगाते हैं पर माता-पिता पर किये गये खर्च का हिसाब गिना देते हैं और भाईयों से खर्च का बराबर पैसा लेते हैं।
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धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल