मैं शायद उस समय छः महीने का था जब मेरे पापा मुझे और माँ को लेकर मुंबई आ गये थे क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़ों पर जीवन यापन करना बहुत ही मुश्किल कार्य है। उनके एक मित्र मुंबई में टैक्सी ड्राइवर थे। जब वो गाँव आये तो पापा उनके साथ इस महानगर में भाग्य आजमाने चले आये।
यहाँ एक कंपनी में उन्हें अच्छी जॉब मिल गई। दिन आराम से कटने लगे। एक दिन अचानक माँ की तबियत खराब हुई और वह हमें अकेला छोड़कर चली गई।
उस समय मेरी उम्र मात्र 4 वर्ष थी। इस घटना ने पापा को तोड़ दिया। वह रात दिन घुटने लगे, ऑफिस जाना भी बंद कर दिया, मुझे भी अकारण ही पीट देते, खाने का कोई ठिकाना नहीं था। मैं भूख से तड़पता रहता पर वो गुमसुम बैठे देखते रहते, ऐसा लगता जैसे उनका तन मन दोनों ही सुन्न हो गये हैं। मेरी यह दुर्दशा पड़ोस में रहने वाली सुमित्रा आंटी से नहीं देखी गई और उन्होंने पापा को सलाह दी कि इससे तो अच्छा है आप बच्चे को अनाथाश्रम में डाल दें जिससे पेट भर भोजन तो मिलेगा इसे।
पापा को उनका सुझाव पसंद आया और इस तरह अनाथाश्रम मेरा नया बसेरा बन गया। यहाँ खेल का बड़ा सा मैदान था। खाने के लिए बढ़िया स्नैक्स और पकवान मिलते। टी वी पर कार्टून चलते रहते। सन्डे को विदेशों से लोग अच्छे अच्छे कपड़े लेकर आते। कभी कभी अन्य बच्चों के रिश्तेदार या माता पिता भी आते । मेरी आँखें भी अपने पापा की बाट जोहतीं पर मेरा इंतज़ार हमेशा अधूरा ही रहा। हाँ कभी कभी पापा के मित्र अवश्य आते थे। अब मैंने अपने मन को समझा लिया था कि इस भरी दुनियां में मेरा अपना कोई नहीं और मैं इस अकेलेपन का अभ्यस्त हो गया।
जब लोग हमारे लिये भेंट लेकर आते तो हम सब दौड़कर गेट पर जाते नये उपहार की उम्मीद में। मेरे जीवन का जो पहला संस्कार मुझे मिला वह था गिफ्ट लेकर आने वाले को बार बार थैंक यू बोलना । अब मैं बड़ा हो रहा था और लोगों के भाव समझने लगा था। जो लोग हमारी मदद करने आते उनकी आँखों में प्यार नहीं, रूखापन और अहसान होता जो मुझे भीतर तक कचोट जाता। हम सभी बच्चों को पढाई लिखाई के साथ साथ कराटे, योगा, डांस भी सिखाया जाता था।
मेरी हाइट अन्य बच्चों से ज्यादा थी। एक दिन एक विदेशी मैम कराटे सिखाने आई। मेरी कराटे में विशेष रुचि ने उन्हें प्रभावित किया और उन्होंने मुझसे पूछा मेरे साथ इंग्लैंड चलोगे क्या? मैंने हाँ तो कह दिया पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा लगा कि वह मजाक कर रही हैं पर जब दो महीने बाद वहाँ से उन्होंने मेरे लिए टिकट भेजे तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। ईश्वर ने मेरे लिए सफलता के दरवाजे खोल दिये थे।
वहाँ मैंने मन लगाकर विभिन्न कलाओं में महारत हासिल कर ली। यह दूसरा संस्कार था जो उन विदेशी मैम ने सिखाया कि जीवन में जो भी करो पूरे जी जान के साथ करो। वहाँ मै पांच साल रहा और विभिन्न संस्थाओं में प्रशिक्षण देता रहा।
एक दिन एक अनाथाश्रम के सामने से गुजरते हुए मेरा अतीत मेरी आँखों के सामने घूम गया और मैंने फैसला किया कि मैं अपने जैसे बच्चों का भविष्य संवारने में अपना शेष जीवन बिताऊंगा और मैंने भारत लौटने का फैसला किया।
आज मेरे शिष्यों की संख्या में दिन प्रतिदिन इजाफा हो रहा है और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा देखकर मेरे मन को असीम सुख की प्राप्ति होती है अब मैं अकेला नहीं हूँ मेरा भी परिवार है , बहुत बड़ा। जो मुझ पर जी जान छिड़कता है।
बस ट्रेनिंग पूरी होने पर उन्हें मुझसे एक वादा करना होता है कि वो अपने जैसे कम से कम दो अनाथों के जीवन को संवारने का संकल्प लेंगे और उनकी हरसंभव मदद करेंगे।
#संस्कार
कमलेश राणा
ग्वालियर