( 1 )
यह कहानी किसी धार्मिक ग्रन्थ या पौराणिक प्रसंग से सम्बन्धित नहीं है, यह मात्र एक काल्पनिक प्रेम कहानी है जो पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर लिखी गई है।
प्यार की हर कहानी एक सी होती है और एक दूसरे से अलग भी, है ना कितनी विचित्र बात?
एक इसलिये कि सबके अन्तस में प्यार होता है भले ही नकली हो या असली, नाटक हो या हकीकत, गलत हो या सही लेकिन होता तो प्यार ही है, कहा तो प्यार ही जाता है।
अलग इसलिये कि सभी के प्यार की मंजिल अलग होती है – कभी परिस्थितियॉ अनुकूल होती हैं तो कभी प्रतिकूल, कभी सारी दुनिया को छोड़कर प्यार को अपनाना उचित लगता है, कभी ऑसू भरी ऑखों से सारी दुनिया के रीति रिवाज को अपनाकर जीवन भर प्यार को एक आह में बदलना उचित लगता है, कभी प्यार के बिना जिन्दगी इतनी व्यर्थ लगती है कि अगले जन्म में मिलने की आस लेकर सॉसों को समाप्त करना उचित लगता है।
कुछ भी हो प्यार कोई गणित का प्रश्न नहीं है जिसे समझना सम्भव हो। प्यार सिर्फ प्यार है, इसकी न तो कोई परिभाषा है, न समाधान, न व्याख्या, न रूपक, न उपमा और न ही कोई बराबरी।
आइये आगे बढ़ते हैं प्यार की इस अनूठी कहानी की ओर। सृष्टि की पहली प्रेम कहानी की ओर।
सूर्य और धरती के महल मे चतुरानन के पधारने का समाचार पाते ही दोनों भागते हुये महल के द्वार तक आ गये और प्रणिपात ( चरणों में गिरकर ) होकर प्रणाम किया। पितामह को सिंहासन पर बैठाकर दोनों उनके पैरों के पास ही बैठ गये – ” पितामह! आप हमारे महल में खुद आये, यह मेरे लिये सौभाग्य के साथ अन्याय भी है। आपको मेरे पास वायु द्वारा आज्ञा भिजवानी चाहिये, हम आते आपके पास।”
चतुरानन कुछ नहीं बोले, स्नेह विगलित नेत्रों से दोनों की ओर देखते हुये उनका हृदय जैसे द्रवित हो गया – ” बच्चों, मैं तुमसे कुछ याचना करने आया हूँ। हमेशा याचक को दाता के निकट जाना चाहिये, यही परम्परा है और मैं स्वयं परम्परा का अनादर कैसे कर सकता था?”
सूर्य और धरती ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़े – ” ऐसा न कहिये तात, पिता कभी सन्तान के समक्ष याचक नहीं होता। वह सन्तान का निर्माता और जनक होता है। इसलिये वह आदेश दाता होता है और सन्तान का धर्म प्राणों का उत्सर्ग करके भी उस आदेश का पालन होता है।”
” लेकिन मैं जो कहने जा रहा हूँ, उससे तुम दोनों को ऐसी मर्मान्तक पीड़ा होगी जो शायद तुम दोनों के लिये सहन योग्य न हो साथ ही उस अवर्णनीय वेदना का कभी निस्तार नहीं होगा। अनन्त काल तक भोगनी पड़ेगी वह।”
” कोई भी पीड़ा आपके आदेश पालन के सुख से अधिक बड़ी नहीं होगी। आप आदेशित करें।”
( 2 )
चतुरानन बताने लगे कि त्रिदेवों के परामर्शानुसार सृष्टि का विस्तार सुनिश्चित किया गया है। उस सृष्टि को बहुरंगी आयाम देने का कार्य उन्हें ही सौंपा गया है।”
सूरज और धरती बहुत प्रसन्न हुये – ” यह तो अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है पितामह फिर आप इतना व्यथित और चिन्तित क्यों हैं?”
” यह कार्य मैं अकेले तो कर नहीं सकता, इस कार्य में सबको मेरा सहयोग करना पड़ेगा।”
” आपके आदेशानुसार सभी अपनी अपनी भूमिका के लिये तत्पर हो जायेंगे।”
चतुरानन एकटक उनके खिले हुये मुख को देखते रह गये – कैसे कहें कि उन्हें कार्य और भूमिका के अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना है।
” बोलिये पितामह। किस दुविधा में हैं आप? हम दोनों को आदेशित करें। हमें आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके बहुत प्रसन्नता होगी। इस महान कार्य में कोई भी भूमिका प्राप्त करके हम स्वयं को सौभाग्यशाली मानेंगे।”
एक बार फिर उन्होंने दोनों की ओर देखकर सिर झुका लिया – ” इस कार्य के लिये तुम दोनों की सबसे बड़ी भूमिका यह रहेगी कि तुम दोनों को सदैव के लिये एक दूसरे से अलग होना पड़ेगा।”
” क्या?” दोनों के मुखों से अचानक निकला।
” हॉ वत्स, तुमसे अलग होकर धरती को अपने तेज और ज्वलनशीलता को नियंत्रित करना होगा तभी सृष्टि का सृजन सम्भव हो सकेगा। धरती के अतिरिक्त स्वयं के गुण एवं धर्म को नियंत्रित कर पाने की क्षमता किसी दूसरे में नहीं है। यदि तुम दोनों को सृष्टि के लिये यह त्याग स्वीकार को तभी अपनी स्वीकृति देना।”
” लेकिन मैं……।” सूर्य से सदैव के लिये विछोह? धरती कॉप गई।
” पुत्री, सामर्थ्य के अनुसार ही भूमिका और भागीदारी दी जाती है। हम सभी जानते हैं कि तुम परम सामर्थ्यवान हो इसलिये ही तुम्हारे लिये यह कार्य निर्धारित किया गया है। तुममें स्वयं को नियंत्रित करने की अपार क्षमता है, तुम्हारे इस गुण के कारण ही सृष्टि का निर्माण सम्भव हो सकेगा। तुम दोनों विचार कर लेना क्योंकि तुम्हारी अस्वीकृति से सृष्टि का निर्माण ही असम्भव है।”
” प्रभो! हमें किस धर्म संकट में डाल दिया है आपने? क्या दूसरा कोई उपाय नहीं है? हम एक दूसरे से अलग कैसे रहेंगे?”
” दूसरा कोई उपाय होता तो मुझे स्वयं तुम लोगों के पास आने की आवश्यकता नहीं थी। हम तीनों ने भली प्रकार विचार किया था लेकिन जिस खूबसूरत सृष्टि का हम तीनों ने स्वप्न देखा है, वह तुम दोनों के अलगाव पर ही निर्भर है। यदि समष्टि के सुख के लिये व्यक्तिगत सुख का त्याग कर सको तो…..।” चतुरानन उठ खड़े हुये। तीनों निशब्द।
पितामह के जाने के बाद धरती सूर्य से लिपटकर बिलख बिलख कर रोने लगी – ” कभी सोंचा भी नहीं था कि हमें एक दूसरे से अलग होना पड़ेगा।”
सूरज का स्वयं का हृदय पीड़ा से व्याकुल हो रहा था लेकिन वह अपनी वसुधा को सीने से लगाकर प्यार से उसे सम्हालने लगा – ” तुम ही इतना व्याकुल होगी तो मुझे कौन सम्हालेगा? मैं तो वैसे भी तुम्हारी तरह सहिष्णु नहीं हूँ, इसी लिये तो हमें इस भूमिका के लिये चुना गया है। हमें तो प्रसन्न होना चाहिये कि हमें इस महानतम कार्य के लिये चयनित किया गया है। हम मिलकर इस गुरुतर दायित्व का पालन करने में सक्षम होंगे।”
( 3 )
त्रिदेवों के सम्मुख धरती और सूरज नत मस्तक खड़े थे – ” हमें स्वीकार है देव। हम सदैव के लिये विलग होने के लिये तैयार हैं।”
चतुरानन शान्त थे, नारायण मंद मंद मुस्करा रहे थे और नीलकंठ ठठाकर हँस पड़े – ” हमें ज्ञात था कि कर्तव्य पालन में तुम दोनों के समक्ष कोई नहीं है और ना ही यह गुरुतर भार तुम दोनों के अतिरिक्त किसी दूसरे में वहन करने की क्षमता है।”
” प्रभो! मेरी एक विनती है।” धरती ने हाथ जोड़ते हुये कहा – ” सूरज से कहिये कि मेरे जाने के बाद किसी को अपने जीवन में स्थान देकर अपना साथी बना लें। मेरा और इसका साथ तो इतना ही था।” धरती का गला भर आया।
” यह नहीं हो सकता। धरती के सिवा कोई मेरे जीवन में न तो आ सकता है और न ही मेरे तेज को सहन करने में सक्षम है। मैं धरती के बिना एकाकी तो रह सकता हूँ लेकिन उसका अधिकार किसी और को नहीं दे सकता।” सूर्य का दृढ़ और उत्तेजित स्वर।
” वसुधा…..” नारायण का कोमल स्वर – ” इस कार्य को हमें काल और परिस्थितियों को सौंपना अधिक श्रेयष्कर रहेगा।”
” आपका कथन उचित है देव, भविष्य के सम्बन्ध में विचार करने से क्या लाभ?” सूर्य ने एक आह सी भरते हुये धरती की ओर देखा
” इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं है पुत्र।” नारायण का गम्भीर स्वर – ” सृष्टि के सृजन का कार्य चतुरानन का है तो सृष्टि के पालन का मेरा , नीलकण्ठ को विघटन का दायित्व सम्हालना है।”
” विघटन क्यों प्रभू? धरती की उत्सुकता।
” विघटन बिना नवीन का सृजन कैसे होगा? सकारात्मकता के लिये नकारात्मकता आवश्यक है, संतुलन बने रहने के लिये दोनों की उपस्थिति जरूरी है।” सूरज और धरती चुपचाप सुन रहे थे।
” तुम और धरती अलग अवश्य रहोगे लेकिन जैसे जैसे धरती अपनी तपन को नियंत्रित करती जायेगी, उसके अंक में एक खूबसूरत सृष्टि विस्तार लेती जायेगी और उस समूची सृष्टि को तुम्हारी ऊर्जा ही पुष्पित, पल्लवित और सामर्थ्यवान बनायेगी और उसके लिये तुम्हें अपनी बॉहुओं रूपी रश्मियों से अलग और दूर रहकर भी धरती का स्पर्श करना होगा। तुम्हें और धरती को एक दूसरे का सामीप्य और सानिध्य तो नहीं मिलेगा लेकिन स्पर्श निरन्तर मिलता रहेगा।”
” सच! आप सत्य कह रहे हैं, मैं अपनी वसुधा का स्पर्श कर सकूँगा। हम दोनों पर आप इतनी कृपा करेंगे।”
” यही नहीं सृष्टि के संतुलन के लिये हम त्रिदेव धरती के पास जाते रहेंगे। केवल तुम कभी नहीं जाओगे क्योंकि तुम्हारा और धरती का पुन: मिलन सृष्टि के विनाश का दिन होगा। महा प्रलय का अवसर होगा वह।” चतुरानन की गुरु गम्भीर वाणी।
तभी धरती का शान्त स्वर गूँजा – ” प्रभो! क्या मुझे एक वरदान मिल सकता है?”
” बोलो पुत्री!” त्रिदेवों का समवेत स्वर।
” मैं सूरज से सदैव के लिये अलग हो जाऊँगी, बिना आप सबकी आज्ञा के सूर्य से दुबारा मिलने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आयेगा। अपना गुण, धर्म, सर्वस्व सृष्टि के कल्याण के लिये समर्पित कर दूँगी। कर्तव्य और मर्यादा का पालन करते हुये बहुत दूर रहकर क्या मैं सूर्य का मुख दर्शन कर सकती हूँ? उसे देखे बिना तो मैं जी ही नहीं सकती, मर जाऊँगी मैं।” धरती का बिलखता स्वर।
” यह कैसे हो सकता है, तुम्हें तो निरन्तर गतिमान रहना है, इस तरह तो तुम अपने कर्तव्य का पालन कर ही नहीं पाओगी? सूरज के प्रति तुम्हारा मोह तुम्हें सफल होने ही नहीं देगा।”
” मुझ पर विश्वास करिये। आप जितनी दूरी निर्धारित कर देगें मैं उससे जरा भी निकट आने का प्रयत्न नहीं करूँगी।मात्र सूरज को देखकर मुझे सौंपे गये सारे कर्तव्य मैं खुशी खुशी पूर्ण करती रहूँगी, वरना सूर्य की चिन्ता में मैं अपने कर्तव्य को पूर्ण समर्पण कैसे दे पाऊँगी?”
त्रिदेवों ने एक दूसरे की ओर देखा, फिर बोले – ” वसुधा, वैसे तो हमें तुम पर विश्वास है और हम तुम्हें इस बात की अनुमति देते हैं लेकिन सदैव ध्यान रखना कि न तो तुम सूरज को अपने पथ से विचलित होने दोगी और न ही स्वयं कभी विचलित होगी। मर्यादा का उल्लंघन किये बिना तुम दोनों जो भी करोगे, हमारी स्वीकृति है।”
सूर्य ने आखिरी बार धरती को हृदय से लगाकर उसके भीगे नयनों को अपने अधरों से सुखा दिया – ” विदा प्रिये, हमने समष्टि के लिये अपने प्यार को विसर्जित कर दिया है।”
( 4 )
धरती के जाने के बाद सूर्य अपने महल में एकाकी ही रहने लगे। उन्होंने स्वेच्छा से अपना ताप इतना प्रखर कर लिया कि इसी कारण उस एकाकी विरही के सम्मुख जाने का किसी में साहस ही ना हो सके। वो नहीं चाहते थे कि कोई उनके एकान्त में विघ्न उपस्थित करे। वो एकान्त में धरती की स्मृतियों में दहकते रहते।
खिन्न मना सूरज ने सिर उठाया तो कोई उनके चरण पकड़कर बैठा था – ” कौन हो तुम?”
” मैं मयंक हूँ देव।”
” किसकी आज्ञा से मेरे महल में प्रवेश किया है तुमने? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि मैं एकान्त सेवी हूँ? मेरे ताप से भय नहीं लगा तुम्हें?”
” मैं तो प्रभू नीलकंठ का संदेश वाहक हूँ, स्वयं मृत्युंजय जिसके स्वामी हों उसके लिये भय का प्रश्न ही नहीं है। मेरी रक्षा का दायित्व तो स्वामी का है। प्रभू नीलकंठ आपसे मिलने के उत्सुक हैं।”
सूर्य कुछ देर सोंचते रहे – ” अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?” चन्द्र चुप रहे – ” क्या वहॉ त्रिदेव उपस्थित रहेंगे?”
” मुझे ज्ञात नहीं है ।”
सूर्य जब नीलकंठ के समीप पहुँचे तो उन्हें अपने निकट बैठाकर नीलकंठ ने उनकी पीठ पर स्नेह से हाथ रख दिया – ” अभी भी उतने ही व्याकुल हो पुत्र?”
” क्या करूँ देव, हृदय पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा हूँ, विरहाग्नि शान्त नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है कि धरती बिना मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा, उसके अलग होते ही मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो गया है।” सूर्य के नेत्र तरल हो गये।
” जो हृदय में विद्यमान है, उससे विरह कैसा? तुम्हारा और वसुधा का प्रेम तो शाश्वत है, फिर तुम्हें अलगाव क्यों अनुभव होता है? क्या सामीप्य और साहचर्य ही तुम्हारा प्रेम था? इस हृदयांगन में शाश्वत लहराने वाली अनुभूति को भुला दिया है तुमने। तुम भूल गये हो कि प्रेम तो स्वयं मैं इतना परिपूर्ण है कि उसमें अलगाव या विरह का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, तभी तो सारी पीड़ा है। यदि अलगाव और विरह से प्रेम प्रभावित होने लगे तो वह प्रेम नहीं आकर्षण होता है।”
सूर्य को कोई उत्तर नहीं समझ में आ रहा था, वह शान्त बैठे रहे। फिर नीलकंठ बोले – ” इधर तुम पीड़ा से व्याकुल हो और उधर यही स्थिति धरती की है, वह अपना गुण – धर्म भूलकर विरह की अग्नि में धधक रही है। जब तक तुम दोनों स्वयं को नियंत्रित नहीं करोगे, सृष्टि का सृजन कैसे होगा? जब प्रयोजन ही पूर्ण नहीं हो पा रहा तो तुम्हारे अलगाव का क्या लाभ?”
तभी चतुरानन और नारायण आ गये, उनके मुखों पर रुष्टता के भाव थे। सर्वत्र गहन गम्भीरता छा गई, तभी चतुरानन का स्वर गूँज उठा – ” हम वसुधा को वापस बुला लेते हैं और सृष्टि के विस्तार एवं सृजन के स्वप्न को भुला देते हैं। शायद हमारे चयन में त्रुटि थी। तुम दोनों यह गुरुतर भार वहन करने के योग्य नहीं हो इसलिये तुम दोनों इस महान कार्य के भागीदार नहीं बनोगे।”
साथ ही नारायण का स्वर भी गूँजा – ” यही निर्णय उचित है। हम इस कार्य के लिये किसी अन्य का चयन कर लेंगें जो हमारे कार्य में प्रसन्नता पूर्वक भागीदारी करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव करेगा लेकिन सूरज इतना समझ लो कि अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। सृष्टि के विस्तार का दायित्व तो कोई न कोई वहन कर ही लेगा लेकिन तुम और धरती आज जो अवसर व्यर्थ कर दोगे, चिर काल तक पश्चाताप करके भी पुन: वह अवसर नहीं प्राप्त कर पाओगे।”
नीलकंठ अब भी सूर्य की ओर देख रहे थे। सूर्य त्रिदेवों के चरणों में गिर पड़े – ” हम पर इतना विश्वास करके अब अपात्र और अयोग्य मत कहिये। हम दोनों ने ही स्वयं को महान उद्देश्य के लिये समर्पित कर दिया है, अब पुन: मिलन की उत्सुकता नहीं है लेकिन हृदय का क्या करूँ?” रो पड़े सूर्य।
नीलकंठ करुणा पूर्ण नेत्रों से सूर्य को कुछ समय तक देखते रहे फिर चन्द्र की ओर देखकर कहा – ” तुम नहीं जानते सूरज कि चन्द्र धरती से बहुत प्यार करता है लेकिन मेरे सिवा इस तथ्य से कोई भी अवगत नहीं है। आज तक वह तुम्हारे और वसुधा के प्रेम को देखकर प्रसन्न और सन्तुष्ट है तो क्या वह प्यार नहीं है?” सब अवाक से नीलकंठ और चन्द्र को देख रहे थे, चन्द्र का सिर झुका हुआ था। सूर्य को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या उत्तर दे?
नीलकंठ का गुरु गम्भीर नाद पुन: गूँज उठा – ” अलगाव और दूरी तो भौतिक है, धरती और अपने मध्य की यह भौतिक दूरी और अलगाव को ही यदि तुम दोनों ने प्रेम मान लिया है और विश्वास कर लिया है कि इस अलगाव से तुम्हारे हृदयों का प्रेम समाप्त हो जायेगा तो मैं भी धरती को वापस बुलाने के लिये सहमत हूँ।”
चतुरानन और नारायण दोनों नीलकंठ के रोष से रक्तिम मुख को देखते रह गये, नीलकंठ तो करुणा और दया के सागर हैं – ” हम त्रिदेवों ने तुम दोनों को तुम्हारी इच्छानुसार वरदान देकर आश्वस्त करने का पूरा प्रयत्न किया लेकिन तुमने हमें निराश किया।”
” प्रमाद वश मुझसे भूल हो गई देव।” सूर्य ने दोनों हाथ जोड़ते हुये कहा – ” अब मैं स्वयं पर भी नियंत्रित करूँगा और वसुधा को भी…. ।”
” तुम्हें वसुधा की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें सिर्फ अपने को सम्हालने की आवश्यकता है।” फिर नीलकंठ ने चन्द्र को पुकारा तो वह नीलकंठ के पीछे से निकलकर त्रिदेवों के सम्मुख आकर खड़े हो गये –
” तुम क्या चाहते हो पुत्र?” जैसे सारे निर्णय आज ही होने हों।
” आप लोग मेरे लिये जो भागीदारी निश्चित करेंगे, मुझे स्वीकार होगी। मैं धरती का प्यार नहीं चाहता हूँ, मैंने सिर्फ उसे चाहा है। यदि आप चाहें तो अग्रज सूरज के विरह मे जलती धरती को अपने प्यार की शीतलता प्रदान करना चाहता हूँ। मर्यादा में रहकर उसके निकट रहना चाहता हूँ। जिस प्रकार धरती सूरज का मुख दर्शन करना चाहती हूँ उसी प्रकार मैं धरती के चतुर्दिक गतिमान रहते हुये उसका मुख दर्शन करना चाहता हूँ।”
” यह कैसे हो सकता है?” सूर्य चौंक गये – ” धरती तो स्वयं गतिमान रहकर मेरे मुख दर्शन की अभिलाषा में बावरी सी व्यग्र है।”
” यही तो हम तुम्हें समझाना चाह रहे हैं कि मर्यादा में रहकर केवल प्रिय को चाहते रहना ही प्रेम है। धरती, तुम और चन्द्र मर्यादा में रहकर एक दूसरे को सुख प्रदान करने के सम्बन्ध में विचार करोगे तभी यह महान कार्य पूर्ण होगा। तुम अपनी रश्मियों से धरती को ऊर्जा प्रदान करना और चन्द्र अपनी ज्योति से उसे शीतलता प्रदान करेगा। तुम तीनों अपनी मर्यादा का पालन करना। धरती तुम्हारे मुख दर्शन के लिये मर्यादा में रहकर तुम्हारे चारो ओर भ्रमण करती रहेगी और चन्द्र अपनी मर्यादा में रहकर धरती के चारो ओर भ्रमण करता रहेगा।”
” इस तरह आपके प्रयोजन में बाधा पड़ेगी देव।”
” यदि परस्पर संतुलन बनाकर अपना अपना कर्तव्य करते रहोगे तो कोई बाधा नहीं आयेगी। हम तुम तीनों के मध्य ऐसी संतुलित व्यवस्था कर देंगे कि चन्द्र कभी तुम्हारे और धरती के मध्य आने का प्रयत्न नहीं करेगा और ना ही धरती इस व्यवस्था को भंग करने का प्रयत्न करेगी लेकिन कभी अज्ञानता या आवेश वश चन्द्र से त्रुटि हो जाये तो अनुज मानकर क्षमा कर देना।” चन्द्र के प्रति नीलकंठ के नेत्र स्नेह से भर उठे।
चन्द्र सूर्य के चरणों में झुक गये – ” अग्रज, आशीर्वाद दीजिये कि मैं आपकी वसुधा को सुख दे सकूँ।” सूर्य ने चन्द्र को हृदय से लगा लिया – ” मुझे विश्वास है कि तुम कभी कुछ भी ऐसा नहीं कर सकते जिससे मुझे या धरती को कष्ट हो।”
त्रिदेवों के अधरों पर मुस्कान तैर गई – ” चन्द्र की शीतलता के सुख से धरती को स्वयं को नियंत्रित करने में सहायता मिलेगी और वह अपने गुण धर्म के अनुसार स्वाभाविक आचरण अपना लेगी।”
चतुरानन ने मुस्कराते हुये कहा – ” तुम सब यह न समझना कि यह हम त्रिदेवों की इच्छा या स्वप्न है। यह तो हम तीनों को परम पिता परमात्मा का आदेश है, जिसका यह प्रथम चरण था। अब हम उनसे गर्व से कह सकेंगे कि हम उनकी आज्ञा का पालन करने में सक्षम हैं।”
चतुरानन की मुस्कान गहरी हो गई, नारायण खिलखिला उठे और नीलकंठ के स्वर में डमरू का निनाद सम्मिलित हो गया।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर.