मर्यादा के नाम पर…. संगीता त्रिपाठी

 लल्ला को जी भर कर कूटने के बाद भी पिता रामप्रसाद का जी नहीं भरा, पैरों से धकेल एक घूँसा और जड़ दिया। बचाने आई पत्नी और बड़ी बेटी तन्वी को भी कई हाथ पड़ गये। लल्ला के आँसू सूख गये, आखिर किस बात पर पिता ने उसे मारा, क्या कसूर था उसका। क्या बहन तन्वी की होंठों पे लगाने वाली लाली उसके लगाने से खराब हो गई, जब तन्वी लगा सकती तो वो क्यों नहीं लगा सकता। जब तन्वी हर समय चुन्नी ओढ़े रहती तो वो क्यों नहीं ओढ़ सकता। बाल मन में जिज्ञासा के कई प्रश्न थे जिनका जवाब कोई नहीं दे रहा था।

      लल्ला को उठा अपने कमरे में ले जा उसके घावों पर दवाई लगाते, उसके मासूम चेहरे को देख तन्वी का मन दर्द से कराह उठा। “बाबूजी ने मुझे मारा क्यों जिज्जी “लल्ला ने बहन से पूछा।तन्वी लल्ला को पुचकारते हुये बोली -“लल्ला तुम लड़का हो, तुमको लड़कों जैसे रहना है, लड़कियों की तरह चुन्नी ओढ़ना, काजल या लाली लगाना शोभा नहीं देता,”

  “पर जिज्जी मुझे लाली लगाना, लड़कियों के कपड़े पहनना बहुत अच्छे लगता “लल्ला ने मासूमियत से कहा,

    “नहीं लल्ला तुम प्रॉमिस करो, अब तुम लाली, काजल नहीं लगाओगे “तन्वी ने समझाते हुये कहा।

    “नहीं करता झूठी प्रॉमिस , कल को मेरा मन नहीं माना तो, प्रॉमिस टूट जायेगा फिर मेरी जिज्जी भी रूठ जायेगी “कह वहाँ से चला गया।





       तन्वी छः लड़कियों में सबसे बड़ी थी, सातवें नम्बर पर जब रामप्रसाद जी के घर बेटा हुआ तो बहुत जश्न मनाया गया। बच्चा जैसे बड़ा होता गया, उसकी हरकतों से रामप्रसाद परेशान रहने लगे। माँ -बहन तो एक सच को छुपा ले रही थी। डॉ. ने बच्चे के लिये पहले ही कह दिया था, सामान्य नहीं है। रामप्रसाद जी की खुशी देख पत्नी लीला उनसे सच कह नहीं पाई।ममता के मोह में वो इज्जत और मर्यादा नहीं सोच पाई। एक माँ के लिये कैसा भी बच्चा हो, वो उसे संसार में सबसे सुन्दर और गुणवान लगता है।

            लल्ला दस बरस का हो गया। स्कूल में भी उसका मजाक उड़ता। एक दिन आखिर वही हुआ जिसका डर तन्वी और लीला जी को था। सुबह लल्ला घर से गायब मिला। लीला जी ने रो -रो कर रामप्रसाद जी से पूछा पर उन्होंने कुछ भी बोलने से इंकार कर दिया। तन्वी ने माँ -पिता से छुप कर हर जगह लल्ला को ढूढ़ा पर लल्ला नहीं मिला।हर गली -मोहल्ले में फैल गया, रामप्रसाद जी का लल्ला भाग गया। इज्जत और मर्यादा के नाम पर एक क़ुर्बानी ना चाहते हुये भी मातृत्व ने दे दी गई।लीला जी पति के विरुद्ध ना जा पाई,।

            खुद रामप्रसाद जी उस दिन से अपनी नींद से हाथ धो बैठे, सोते -सोते अचानक चौंक कर उठ जाते, कभी -कभी उन्हें लगता कुल -मर्यादा के नाम पर वो कुछ गलत तो नहीं कर बैठे।पसीने से भीगे उनके शरीर को देख लीला जी भी परेशान हो जाती। समय बीता, घर में तन्वी की ही नहीं सारी बहनों की शादी हो गई, रह गये रामप्रसाद और लीला जी। रामप्रसाद जी को भी अब कम दिखाई देने लगा। एक दिन बाजार में गिरने वाले थे, दो हाथों ने संभाल लिया। इन हाथों के स्पर्श से जाने क्यों रामप्रसाद जी सिहर उठे। धुंधली दृष्टि ने पहचान लिया, सालों पहले रात के अंधकार में उसके मुँह में पट्टी बांध, जिससे उसके चिल्लाने की आवाज किसी को सुनाई ना दे,छोड़ आये थे उस बस्ती के किनारे जहाँ तालियों में ही सुख -दुख साँझा होते थे।और लल्ला, गौरी के नये कलेवर में पलने लगा।लाली, काजल का साथ छूट गया।बस एक लगन अपने वजूद को समाज में प्रतिष्ठा दिलाने की,।गौरी ने सबसे कट कर अपनी समस्त शक्ति पढ़ाई में लगा दी। और सोना के सपनों को साकार करने के लिये। सोना समाज में अपने समुदाय को स्थापित करने में लगी थी, परिश्रम से पैसे कमाती थी, ताली तो सिर्फ दुआएँ देने के लिये बजाती थी।




       “बेटा, अस्पष्ट स्वर में बोले उनके अक्षर, सामने वाले के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़े।सर पर आशीर्वाद का हाथ रख “हाय दइया ये मुआ, मुझे बेटा बोल रहा “कह ताली बजाते विद्रुप हँसी हँसती चली गई । ताली की आवाज तेज होती गई, उस तेज आवाज में सब कुछ भुला देना चाहती , उस अँधेरी रात को, जब रिश्ते तार -तार कर पिता ने धकेल दिया था, मरने के लिये,तब एक कच्चे घर का दरवाजा खुला और इसी तरह दो हाथों ने उसे अंक में भर लिया -ना रो बेटा, तुम यहाँ सुरक्षित हो। सोना ने माता -पिता बन सबसे दुश्मनी मोल ले पढ़ाया, एक ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया। आज बाजार में कुछ जरुरी सामान लेने आयी थी तभी रामप्रसाद जी को गिरते देखा, खून ने पुकार लिया था, पर कर्तव्य ने उसे रोक लिया था। अस्पष्ट स्वर में बोल उठी -माफ करियेगा रामप्रसाद जी, मेरे पहचानने से आप फिर धर्म संकट में पड़ जायेंगे,आपकी कुल मर्यादा पर धब्बा लग जायेगा, जिन्होंने मेरा हर कदम पर साथ दिया, मुझे सर उठा कर जीना सिखाया, पिता का फ़र्ज जिसने पूरा किया उन की जगह मै आपको नहीं दे सकता। प्रेम और कर्तव्य दोनों की अपनी मर्यादा है।आँसुओं ने बांध तोड़ दिया। शायद बहुत दिनों का मैल निकल गया।ताली बजाते, दुआएँ देती, वो चली गई, एक ख़ामोशी, एक प्रश्न छोड़ कर…।

   अब अक्सर, रामप्रसाद जी के घर कोई ना कोई ताली बजाने वाला पहुँच जाता है, अब वे घृणा नहीं करते,कारण अब तो लीला जी ने भी उनका साथ छोड़ दिया, प्रतीक्षा करती रह गई, एक दिन उनका लल्ला जरूर आयेगा । शहर में गौरीसोना नाम से एक संस्था बड़ी तेजी से उभरी जिसने कुटीर उद्योग से शुरु कर आज शहर के सबसे बड़े कारखाने को अपने हाथों में ले लिया।, जहाँ सिर्फ इंसान काम करते है, सामान्य और आसमान्य दोनों ही…।जहाँ फुर्सत में ताली और ढ़ोल -मंजिरा सब बजते., जहाँ प्रेम और अपनत्व की बयार बहती है। जहाँ इज्जत के नाम पर कोई अपना बेगाना नहीं होता।और जहाँ कुल मर्यादा के नाम पर कोई माँ या बच्चा बेबस नहीं होता।

               —-संगीता त्रिपाठी

 #मर्यादा 

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