वो “आंखमूंदी गुड़िया” वाला प्यार…! – मीनू झा

लो खिलौनों की कमी थी क्या इसके पास जो फिर तू ये खिलौने ले आई बहू.. तुम दोनों तो एक बच्ची क्या हो गई है पागल ही हो गए हों..पूरे घर को खिलौनों का कारखाना बनाकर रख दिया–बाहर से आई प्रीति के हाथ में खिलौनों का पैकेट देखकर सास रीमा बोल पड़ी।

क्या मां..एक ही तो बच्ची है..उसे भी ढंग से खेलने ना दें खाने ना दें,उसकी ख्वाहिशों को पूरा ना करें तो क्या फायदा ऐसा कमाने का–प्रदीप ने जवाब दिया।

मैंने कब मना किया..सब कर..पर उसके पास इतने खिलौने पहले से पड़े हैं..फिर लाने की क्या जरूरत है.. मैं तो बस इतना ही कर रही थी..जाने दो भाई..मां बाप राजी..तो दादी क्यों विलेन बने..जो मर्जी आए करो

मार्केट से आकर किचन में चाय बनाने चली गई प्रीति सोच रही थी..मांजी भी अपनी जगह पर सही है..रिया के पास कई ऐसे खिलौने हैं जिसे उसने अभी तक छुआ भी नहीं,फिर भी वो जब बाज़ार जाती है कुछ ना कुछ ले आती है और प्रदीप तो ऐसे ही किसी चीज के लिए मना नहीं करते तो अपनी लाड़ली के लिए तो हमेशा उनकी हां ही रहनी है।

उसे भी लगता है खिलौनों के प्रति रिया से ज्यादा पागल वहीं रहती है,पर इसके पीछे का अतीत ऐसा है जो वो किसी से साझा भी नहीं कर सकती..पर रोज उस पल की याद एक ना एक बार उसे आ ही जाती है..और उसे लगता है कि उसके बालजीवन की उस भयावह घटना की पुनरावृत्ति उसकी खुद की बच्ची तो दूर किसी के बच्चे के साथ ना हो कभी।



प्रीति छोटी सी तब..उस समय आंख बंद करने और खोलने वाली गुड़िया नई नई आई थी बाज़ार में।मिट्टी और सस्ते खिलौनों से खेलने वाली प्रीति ने जब पिता के आगे उस गुड़िया की फरमाइश रखी तो छोटी सी नौकरी कर रहे पिता उस समय गुड़िया तो ना दे पाए पर अगले महीने देने का वादा जरूर तुरंत दे दिया।

और वादे को निभाते हुए अगले महीने वो गुड़िया भी ला दी,जिसके लिए पूरे परिवार के कोपभाजक भी बने,बड़ा कुनबा था दो चाचा चाची उनका परिवार,दादा दादी खुद के दो भाई मम्मी पापा और बंधी बंधाई सैलरी बस पापा की आती थी..सबने पापा को बहुत सुनाया था “क्या” वो उसे उस समय समझ भी नहीं आया था पर उसने देखा था पापा की आंखें भर आईं थीं..तो उसने खुद से एक वादा किया था कि अब पापा से कभी कोई खिलौना नहीं मांगेगी वरना सब पापा को फिर डांटेंगे।

पर गुड़िया तो अब उसके हाथ में थी..और उसके पैर आसमान में..दिनभर वो उसे सीने से चिपकाए रखती,रात को लेकर ही सोती.. स्कूल जाती तो दादी की अलमारी में रखकर जाती..जिसे कोई नहीं छू सकता था सिवाय दादी के.. बहुत जुड़ गई थी वो उस गुड़िया से, उसमें उसकी जान‌ बसने लगी थी..डाॅली नाम रखा था उसने उसका।

खैर एक दिन वो स्कूल नहीं गई थी..गुड़िया को लिए घर में इधर से उधर डोल रही थी..बड़ी चाची घर में पोंछे लगा रही थी और छोटी चाची मिट्टी के चुल्हे पर खाना बना रही थी..सारे पुरुष सदस्य बाहर थे,दादी सोई थी और मां मंदिर गई थी, दोनों चाचियों के बच्चे तब काफी छोटे थे।



बड़ी चाची ने भीगे घर में प्रीति को एक बार इधर उधर करने के लिए मना किया..पर नादान प्रीति उसे मजाक समझ बैठी और जानबूझकर कर बार बार जहां चाची पोछा लगाती वहीं चलने लगती।

चाची ने आव ना देखा ताव..गुस्से से उठी और प्रीति के हाथ से उस गुड़िया को छीना और ले जाकर मिट्टी के उस चुल्हे के अंदर घुसेड़ दिया..दहकते चुल्हे ने कुछ ही सेकेंड में गुड़िया को…।

स्तब्ध सी प्रीति को इतना बड़ा शाॅक लगा था कि पंद्रह दिन तक वो कुछ बोली ही नहीं.. दोनों चाचियों ने किसी को डर से कुछ बताया नहीं और वो बोलने की स्थिति में थी नहीं तो सबको लगा शायद गुड़िया कहीं खो गई इसी कारण उसका ये हाल हो गया…सबके विरोध के बावजूद पापा फिर वैसी गुड़िया ले आए थे..पर उसका तो मन ही टूट चुका था। आंखमूंदी गुड़िया के उस हश्र ने उसके अंदर के खिलौना मोह को ही मार डाला था।

आठ दिन तक उस नई गुड़िया को हाथ भी नहीं लगाया तो किसी ने जाकर वापस कर दिया दुकान में।

गुड़िया क्या उस दिन के बाद से प्रीति ने खेलना कूदना भी कम कर दिया..समय से पहले ही बड़ी हो गई थी अब वो।



पर शादी के बाद उसने अपने आप से वादा किया था कि अपनी होने वाली औलाद को कभी खिलौनों की कमी नहीं होने देगी और ना कभी ऐसी कोई परिस्थिति आने देगी कि वो खिलौनों के प्रति अपना मोह खो दे या समय से पहले बड़ी हो जाए उसकी तरह !!

उस दिन जो हुआ था वो आज भी राज ही है..जब मायके में किसी को नहीं बताया तो सासु मां को कैसे बता देगी भला..पर वो दर्द तो आज भी जिंदा है और नासूर की तरह एक बार टीस जरूर मारता है अंदर।

पर जब अपनी रिया को खिलौनों से खेलता देखती है, खिलौनों से भरा उसका कमरा, कपबोर्ड देखती है और इतने सारे खिलौनों की स्वामिनी होने का गर्व देखती है उसके चेहरे पर तो..क्षण भर को ही सही वो आंखमूंदी गुड़िया के प्यार में पागल वाली प्रीति मुस्कुरा पड़ती है उसके अंदर..।

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