वो शाम बहुत अजीब सी बेचैनी से भरी थी। कोई किसी से न बात कर रहा था, न ही नजरें मिला रहा था या यूँ कहें कि बात करने के लिए कुछ था ही नहीं। वैशाली की रिपोर्ट का सभी व्यग्र हो कर इंतज़ार कर रहे थे।
कुछ दिनों से वैशाली को चाहे जब चक्कर आ जाते थे और सारा शरीर ठंडा पड़ जाता था ऐसा लगता जैसे शरीर के सारे मसामों ने ढेर सारा पानी एकसाथ उगल दिया हो। इसका पता लगाने के लिए डॉक्टर ने ढेर सारे टेस्ट कराये थे।आज उसी की रिपोर्ट आनी थी और सभी किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त थे।
आखिर वही हुआ जिसके न होने की दुआ सब कर रहे थे। वैशाली की रिपोर्ट्स ने उसकी गंभीर बीमारी पर मोहर लगा दी थी। डॉक्टर ने इलाज़ का जो खर्च बताया उसे सुनकर सबके पैरों तले से जमीन खिसक गई। इतने पैसों की व्यवस्था करना अपने आप में एक बहुत बड़ा टास्क था और किसी से मदद की उम्मीद भूसे के ढेर में सुई ढूँढने के समान थी।
इस कठिन वक्त में बहुत सारे अपनों के चेहरे बेनकाब हो गये। लोगों की खुसर फुसर चाहे अनचाहे उसके कानों में पड़ ही जाती,,कर्मों का फल मिल रहा है,उस जन्म में कर आई होंगी अब भुगत रहीं हैं।जैसे अपने भविष्य का तो इन्हें सब पता है।सहानुभूति नहीं दिखा सकते तो मानसिक क्लेश तो मत दो।कितने हृदयहीन होते हैं न लोग।
रहीम कवि ने बड़ा ही उपयुक्त दोहा लिखा है इस संदर्भ में–
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परे सब कोय।।
उसका अपना परिवार एकजुट था, वो किसी भी कीमत पर वैशाली को बचाना चाहते थे। अच्छे से अच्छे डॉक्टर की तलाश शुरू हुई और इलाज़ शुरु हुआ।
एक दिन जब वो हॉस्पिटल जा रहे थे तो लिफ्ट में उनके बेटे की पूर्व सहकर्मी का फोन आया। वह भी हैरान था क्योंकि उस कंपनी को दोनों ने ही दो वर्ष पूर्व छोड़ दिया था और उसके बाद से उनका कोई संपर्क नहीं था। उसका नाम वर्षा था, वह समीर की बहुत एहसानमंद थी क्योंकि वर्षा के पिता की जान बचाई थी समीर ने अपना खून देकर।
फॉर्मल बातों के बाद जब उसने कुशल मंगल पूछी तो समीर का दर्द छलक उठा।
” तुम ई एस आई की मदद क्यूँ नहीं लेते। “
यह क्या है?
यह एक ऐसी संस्था है जो अपने एंप्लॉयीज और उनके माता पिता को फ्री इलाज़ मुहैया कराती है वो भी उनके मनचाहे हॉस्पिटल में।
सब अवाक् थे अंधेरे में रोशनी की किरण बनकर आई थी वो जैसे ईश्वर ने अपना दूत भेजा हो। उस दिन विश्वास हो गया कि ईश्वर किसी न किसी रूप में अपने प्रियजनों की मदद जरूर करते हैं।
जब बहुत सारे अपनों ने मुँह फेर लिया तब ऐसा चमत्कार हुआ कि अब किसी की जरूरत ही न रही। उसने जो मार्ग दिखाया वो कोई अपना ही कर सकता है और चाहे कैसे भी हुआ हो आखिर खून का रिश्ता तो उनके बीच भी बन ही गया था और यह रिश्ता जन्म पर आधारित न होकर मानवीयता पर आधारित था।
#अपने_तो_अपने_होते_हैं
कमलेश राणा
ग्वालियर