रात का समय था.. कपूर परिवार में खूब ठहाके लग रहे थे। सर्दियां शुरू हो चुकी थी और सब शारदा जी द्वारा बनाए गरम-गरम सूप का आनंद ले रहे थे। इन ठहाकों के पीछे का वास्तविक कारण था उनकी बेटी प्रिया का मायके आना। प्रिया, सुधाकर जी और शारदा जी की बेटी थी जिसकी शादी अभी 5 महीने पहले ही अंबाला में हुई थी।
प्रिया इस बार शादी के बाद पहली बार मायके में अकेली रहने आई थी। वैसे तो अंबाला से दिल्ली का सफर कोई ज़्यादा नहीं था पर प्रिया एक दो बार जब भी आई हमेशा अपने पति अनिमेष के साथ ही आई और एक-दो दिन में चली गई। इस बार उसे पहली बार अकेली आकर रहने का मौका मिला और वह इस मौके को पूरी तरह से जीना चाहती थी।
प्रिया का एक छोटा भाई था पार्थ जो कि कॉलेज के अंतिम वर्ष में था और घर में माता पिता और भाई के साथ दादी सुलोचना देवी भी थी जो प्रिया की बेस्ट फ्रेंड थी। प्रिया के दादाजी का कुछ वर्ष पहले ही देहांत हो गया था। उनके जाने के बाद प्रिया अपनी दादी के साथ ही सोती और उनका रिश्ता और गहरा होता गया।
खैर प्रिया के आने से घर में रौनक भी खूब हो गई थी। शारदा जी को लगता जैसे पूरा घर ही खिल उठा हो वरना पार्थ या तो पढ़ने में, मोबाइल में या फिर यारों दोस्तों में व्यस्त रहता। वैसे 2 दिन से जब से प्रिया आई थी वह भी घर से निकला नहीं था। उसके चेहरे की चमक ही बता रही थी कि वह भी बहन के जाने के बाद अकेला हो गया था।
सुधाकर जी बाज़ार से बेटी की मनपसंद खाने की चीज़ें ला रहे थे और इन सबसे आगे थी उसकी दादी जो की खूब खुश लग रही थी जैसे कोई सखी लंबी छुट्टी के बाद फिर से मिली हो।
“अब आई हो तो कुछ दिन रुक कर जाना”, शारदा जी सूप पीते हुए बोली।
“मां, दस दिन का बोल कर आई हूं”।
“अरे, दस दिन क्या होते हैं चुटकियों में निकल भी जाएंगे। पहली बार तो आई है अकेली”, मां ने उलाहना दिया।
“ठीक है मां..कोई बात नहीं नाराज़ मत हो.. मम्मी जी को बोलकर कुछ दिन और रुक जाऊंगी मैं”।
“वैसे तेरी सास है बड़ी अच्छी”, शारदा जी ने कहा।
“हां मां, मम्मी जी बहुत अच्छी हैं “।
दोनों मां बेटी की वार्तालाप पास बैठी सुलोचना देवी भी सुन रही थी और पोती के चेहरे पर नज़रें गड़ाए बैठी थी। सूप पीने के बाद खाने का दौर शुरू हुआ और फिर सब अपनी अपनी रजाइयों में घुस गए। अगले दिन प्रिया से मिलने उसके चाचा चाची और उनके बच्चे आ गए।
चाचा के दोनों बेटे ही थे…लिहाज़ा प्रिया घर की इकलौती बेटी थी और सबकी लाड़ली भी। चाचा के दोनों बेटे प्रिया के आस-पास ही घूमते रहे। सारा दिन हंसी ठिठोली से घर गूंजता रहा.. कुछ खाना बाज़ार से मंगवाया गया और कुछ घर में ही शारदा जी और उनकी देवरानी ने मिलकर बना लिया।रात को जाते समय चाची ने सबको अपने घर आने का न्योता दे दिया।
“ठीक है, अगले हफ्ते आते हैं”, सुधाकर जी बोले।
रात को प्रिया ने मां की रसोई संभालने में मदद की और दादी के लिए दूध गर्म कर के ले गई। कमरे में पहुंची तो देखा सुलोचना जी उलझे हुए ऊनी धागों को सुलझाने बैठी थी। सुलोचना जी स्वेटर बुनाई में बहुत माहिर थी.. अपने दोनों बेटों को एक से एक डिजाइन के स्वेटर पहनाए थे उन्होंने और यह सिलसिला पोतों और पोती तक भी चला पर अब उम्र की वजह से आंखों की रोशनी कम हो गई थी इसलिए कुछ वर्षों से उन्होंने बुनाई करनी छोड़ दी थी।
“अरे दादी, यह क्या लेकर बैठ गई इस वक्त.. सारे दिन में थक गई होगी”, प्रिया उन्हें देखते हुए बोली।
“मैंने क्या किया है सारा दिन ?सब कुछ तो शारदा और तेरी चाची ने ही किया है और यह तो बस बैठे बैठे यह लिफाफा हाथ लगा तो देखा यह धागे उलझे पड़े हैं तो सोचा इन्हें ही सुलझा लूं”, सुलोचना जी बोली।
“अभी बाद में करना यह सब.. लो पहले दूध पी लो और अपनी दवाई खाओ”।
पोती का अपने प्रति प्यार और फिक्र देखकर सुलोचना जी की आंखें भर आई। दूध पीने के बाद उन्होंने प्रिया के सर पर हाथ फेरा और वह उनसे लिपट गई।
“खुश तो है ना”।
“हां दादी बहुत खुश हूं”।
“तो किस उलझन में है.. अपनी बेस्ट फ्रेंड को नहीं बताएगी”,
सुलोचना जी के ऐसा कहने पर प्रिया एकदम से चौंक गई।
“मेरी बच्ची, मैं तेरी बेस्ट फ्रेंड होने के साथ-साथ तेरी दादी भी हूं.. ज़िंदगी में बहुत कुछ अनुभव किया है। तेरी मां शायद तेरे आने की खुशी में डूबी हुई है इसलिए उसका ध्यान नहीं गया पर.. मैं समझ गई हूं.. तो बता कैसी कशमकश चल रही है तेरे दिमाग में?तेरी सास तो तेेेेरे साथ ठीक है”।
“मेरी सास क्या.. सब बहुत अच्छे हैं दादी”।
“फिर क्या दिक्कत है “।
“दादी.. दिक्कत है मेरी जेठानी”।
“क्यों.. मुझे तो वह भली लड़की लगी.. क्या कुछ कहती है तुझे”, दादी ने पूछा।
“नहीं दादी.. मुझे कुछ नहीं कहती.. है तो वह अच्छी ही पर मुझे लगता है कि मेरी सास उसे ज़्यादा पसंद करती हैं”।
“तुझे ऐसा क्यों लगता है”।
“बस ऐसे ही दादी.. कभी किसी के आने पर वही सब कुछ अच्छे से संभालती हैं तो उस समय मुझे लगता है कि मम्मी जी उनकी तरफदारी कर रही हैं। तब मुझे बहुत चिढ़ होती हैं इसलिए एक-दो बार मैं उनसे उलझ भी गई हूं।मम्मी जी को भी समझना चाहिए ना कि मैं इस घर में नई हूं तो धीरे-धीरे ही तौर-तरीकों को समझूंगी।
“देख प्रिया, वह इस घर में तेरे से पहले से है और तुझे अभी समय ही कितना हुआ है वहां गए हुए.. अगर अभी से तेरे मन में ऐसी बातें बैठ जाएंगी तो रिश्ते उलझते देर नहीं लगेगी। बेटी… यह रिश्ते ऊन के धागों की तरह ही होते हैं अगर समय पर सुलझाएं ना जाएं तो यह उलझ कर रह जाते हैं और कोई भी परिवार परफेक्ट नहीं होता कहीं ना कहीं चाहे छोटी सी कमी क्यों ना हो कुछ ना कुछ तो ज़रूर रह ही जाता है ।
अब तेरी मां और चाची को ही देख ले दोनों में कितना प्यार है। क्या कभी उनमें कोई उलझन नहीं आई होगी।क्या वे शुरू से ही दोनों परफेक्ट देवरानी जेठानी थी.. नहीं.. उनमें भी उलझने आई थी पर उन्होंने वक्त रहते उस उलझन को सुलझा लिया। अगर तेरी चाची भी तेरी मां के लिए ऐसा ही सोचती तो क्या आज दोनों में इतना प्यार होता और क्या आज वह तेरे आने पर ऐसे तुझसे मिलने दौड़ी आती”।
प्रिया दादी की बातें सुन रही थी और उसे दादी का कहा सही भी लग रहा था। तभी उसने देखा कि दादी ने ऊन के धागों की उलझन को सुलझा लिया था। अब दोनों ऊनी गोले अलग अलग होकर बहुत सुंदर लग रहे थे। गुंजन को लगा कि दादी बिल्कुल सही कह रही है शायद वही गलत थी।उसे याद आया कि अपनी जेठानी से उलझने के बाद भी उसकी जेठानी ने उसके साथ हमेशा प्यार से ही बात की थी और कभी सास को भी उसके बारे में नहीं बताया था.. शायद यही उनकी समझदारी का सबूत था। अगर वह चाहती तो उसकी शिकायत सास से आराम से कर सकती थी पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और ना ही उससे कभी बदला लेने की कोशिश की।हां.. हो सकता है उनके मन में कभी कुछ आया भी हो लेकिन उन्होंने प्रत्यक्ष रुप से कभी भी प्रिया को यह नहीं जताया था।दादी सही कह रही थी कोई भी परिवार परफेक्ट नहीं होता ज़रूरत है बस छोटी मोटी उलझनों को प्यार से सुलझाने की।
प्रिया ने दादी की तरफ देखा और उनके गले लग गई। सुलोचना जी जान गई थी कि उनकी पोती को अब रिश्तों को सुलझाने की समझ आ गई है और उन्होंने अपनी पोती को ज़ोर से अपनी बाहों में भींच लिया।
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।
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