“बहुत गुस्सा आता है मुझे अंकुश पर। जब देखो चेहरे पर गंभीरता का आवरण ओढ़े रहते हैं। ना कोई हँसी मजाक, ना प्रेम प्रदर्शन, ना कोई मनुहार। बस सुबह से रात तक एक निश्चित दिनचर्या। नहीं! नहीं! ऐसा नहीं कि वह अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करते या मेरी आवश्यकताओं का ख्याल नहीं रखते। असल में तो वह एक जिम्मेदार बेटे,पति, भाई और दामाद की सभी भूमिकाओं का निर्वहन भली प्रकार करते हैं पर एक पत्नी अपने पति से कर्तव्यों के अलावा कुछ और भी चाहत रखती है।”
“कभी यूँ ही घूमने निकल पड़ना, कोई सरप्राइज गिफ्ट, कभी घर लौटते हुए कोई आइसक्रीम या गजरा ले आना या कभी हाथों में हाथ लेकर बालकनी में खड़े हो जाना। पर शायद मैं कुछ ज्यादा ही सोच लेती हूँ। पुरूष ऐसे ही होते हैं, स्त्री की कोमल भावनाओं से अनभिज्ञ। थोड़े कठोर, थोड़े निष्ठुर। और फिर सब कहते भी तो हैं कि तुझे क्या कमी है? सब कुछ तो है, एक अच्छा सा घर,कमाऊ पति, प्यारी ससुराल।”
“पर कैसे समझाऊँ सबको कि कुछ खाली खाली सा लगता है मुझे। कुछ तो है जो रिक्त है।ऐसा भी नहीं कि मैं किसी पराए पुरुष से आकृष्ट हूँ या मेरा अतीत में कभी कोई अफेयर रहा जिसकी असंतुष्टि मुझे खालीपन महसूस कराती है। पर कुछ तो है, पता नहीं क्या? छोड़ो! इतना नहीं सोचना मुझे। दादी कहती है कि तेरा नवां महीना चल रहा है। ज्यादा मत सोचा कर। बच्चे पर असर होगा और जो भी सोचे अच्छा ही सोचना ताकि बच्चे के मस्तिष्क पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े।”
” आह! ये इतना दर्द क्यों हो रहा है? मम्मी जी! जल्दी आइए।”
“क्या हुआ सुगंधा? लगता है, हॉस्पिटल जाना पड़ेगा। अरे, अंकुश के पापा! जल्दी से अंकुश को फोन कीजिए। सुगंधा को लेबर पेन शुरू हो गए हैं। बस! बस! बेटा चल रहे हैं।” मम्मीजी मेरा सिर सहला रही हैं। “अरे! ये तो बेहोश हो गई। अंकुश के पापा,जल्दी करो।”
“हमें सुगंधा जी का सिजेरियन करना होगा। इनका बेहोश होना माँ और बच्चे दोनों के लिए ठीक नहीं है।”डाक्टर मम्मी जी से कह रही है।
“अ…….आं……..।मम्मी जी………।अंकुश……।मेरा बेबी…….।” मुझे होश आ रहा है।
“हाँ,सुगंधा! हम सब यही हैं।हमारा बेटा भी ठीक है। तुमने तो जान ही निकाल दी थी। तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं जिंदा नहीं रह पाता। ऐसे कोई करता है क्या? ऐसे बेहोश कैसे हो गई तुम?” मेरा हाथ सहलाते हुए अंकुश ने मेरा माथा चूम लिया।” यह क्या? मेरी रिक्तता भर रही है। ओहो! तो यही था जो मैं महसूस करना चाहती थी। तुम्हारे साथ थी पर तुम्हारा प्रेम महसूस नहीं कर पा रही थी। इतना प्यार दिल में छुपा रखा था तो जाहिर क्यों नहीं किया? “कोमल निष्ठुर” कहीं के!” सोचकर मैं आरक्त होती जा रही थी। फिर मैंने अपने बेटे को गोद में लिया और महसूस किया तुम्हारे उस चुंबन को जो तुमने मेरे माथे पर दिया और मैं पूर्ण होती जा रही हूँ।
मौलिक सृजन
ऋतु अग्रवाल
मेरठ