शुचि की नई नई शादी हुई थी जैसा पति वह चाहती थी आकाश बिल्कुल वैसा ही था,, एकदम उसके सपनों के राजकुमार जैसा,,
सुबह गार्डन में चाय की चुस्की के साथ जो सुबह शुरू होती तो दिन प्यार के साये में कब गुजर जाता,, पता ही नहीं चलता,, शाम को दोनों हाथों में हाथ डाले घूमने चले जाते,,
एक दिन शुचि ने कहा,, मुझे तारे बहुत आकर्षित करते हैं,, पता है आकाश टूटते हुए तारे से कोई विश माँगो तो वो पूरी हो जाती है,,
अच्छा,, तो हम भी तो जानें, हमारी प्यारी जानेमन को क्या चाहिये,,
अब यह कोई बताई थोड़े ही जाती है,, बस दिल ही दिल में मांगी जाती है,,
तो फिर देर किस बात की,, चलो जल्दी से खाना खा कर चलते हैं छत पर,, वैसे मैं भी टिमटिमाते तारों को देखकर बहुत रोमांचित होता हूँ,, कितना रहस्य समेटे है न ये अपने अंदर,,
उस दिन शरदपूर्णिमा थी,, चाँद अपनी पूरी खुबसूरती के साथ सारी प्रकृति को चांदी की आभा से दीप्त कर रहा था,, उस आभामंडल में दो प्रेमी सम्मोहित से उस सुंदर नजारे को भरपूर जी लेना चाहते थे,,
हम कितने नादान है न शुचि जो घर की चारदीवारी से बाहर न निकल कर इस अनुपम सौंदर्य लाभ से वंचित रहते हैं,, आज हम यहीं सो जाते हैं,,
काफी रात तक दोनों बातें करते करते जाने कब नींद के आगोश में समा जाते हैं, पता ही नहीं चलता,, सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से आँखें खुलती हैं,, प्रकृति का अलार्म है ये चिड़ियाँ जो अपने मधुर संगीत से भोर होने का संदेश देती हैं,,
अब तो उनका रोज का नियम ही बन गया था देर रात तक तारों की छाँव में बैठे रहते और जब पलकें नींद से बोझिल होने लगतीं, तभी सोने के लिए कमरे में जाते,,
वक्त गुजरता रहा और शुचि की गोद में नन्हा सा बेटा आ गया परंतु छत पर जाना और तारों को देखकर खुश होने का सिलसिला अनवरत रूप से चलता रहा,,
एक दिन सुबह पांच बजे के करीब शुचि की नींद खुली,, उसके करवट लेते ही बेटा भी कुनमुनाने लगा,, शुचि उसे गोद में लेकर दूध पिलाने लगी, तभी अचानक ऐसी आवाज़ हुई जैसी पुल पर से रेल गुजरने पर होती है और खिड़की दरवाजे हिलने लगे,,
उसने तुरन्त आकाश को जोर से झिन्झोड़ दिया,, जल्दी उठो, भूकंप आया है,, और दोनों दौड़कर बाहर खुले मैदान में पहुँच गये,, उनके घर से निकलते ही पूरा मकान ताश के पत्तों की तरह ढह गया,, उस वक्त तो बस यही सोचकर खुशी हो रही थी कि चलो जान तो बची,,अगर उस समय जगी हुई न होती तो घर में ही समाधि बन गई होती सबकी,,
चारों ओर अफरा तफरी मची हुई थी,, जो बिस्तर में जिस हाल में था वैसे ही दौड़ पड़ा था,, अधिकतर पुरुष चड्डी बनियान में और महिलाएं गाउन में थी,, बार बार माइक से चेतावनी दी जा रही थी कि कोई घर के अंदर न जाये क्योंकि दोबारा भूकंप का झटका आ सकता था और कमजोर दीवारों के गिरने की आशंका भी थी,,
सारा दिन किसी ने कुछ खाया पिया नहीं,, शुचि बच्चे को बार बार चुप करने की कोशिश कर रही थी पर वो भूख से बिलख रहा था,, जब माँ को ही खाने को नहीं मिला तो दूध कैसे उतरे उसका पेट भरने के लिए,,
शाम को कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने भोजन और टेंट की व्यवस्था कर राहत कार्य प्रारंभ किया पर कोई भी व्यक्ति अपने घर के सामने से हटने को तैयार नहीं था, सब वहीं खुले आसमान के नीचे बैठे हुए थे,,
वो भी पूर्णिमा की ही रात थी लेकिन आज शुचि और आकाश को न तो तारों में सौंदर्य नज़र आ रहा था और चांदनी तो मानो बदन को जला रही थी,, आज उन्हें लग रहा था सर पर छत कितनी जरूरी होती है और उसके नीचे कितना सुरक्षित महसूस करते हैं हम,,
खुशी के समय प्यारे लगने वाले तारे आज गम की काली रात में दहकते हुए अंगारे लग रहे थे और वो सुहानी रात कालरात्रि प्रतीत हो रही थी,,
#कभी_खुशी_कभी_गम
कमलेश राणा
ग्वालियर