साध्वी जी के यहां शादी की खासी रौनक है,उनके इकलौते बेटे सुयश की शादी जो थी।
आज बहू की मुं दिखाई और नामकरण का कार्यक्रम है ।मोहल्ले पड़ोस में नाई से बुलावा लगा दिया है और पहले से ही घर में कुछ रिश्तेदार भी रुके हुए हैं ।
” बहू ,तुम तैयार हो जाओ , मुझे बाज़ार से कुछ जरुरी सामान लाने हैं।”
कहकर वो बेटी के साथ स्कूटी से बाजार चली गईं।
साध्वी जी नौकरीपेशा महिला हैं ,अपने पति की मृत्यु के बाद उन्होंने अकेले ही दोनों बेटे और बेटी की परवरिश की है।
यूं तो परिवार में तीन ननद और दो देवर भी हैं । जब तक पति जीवित थे ,सभी रिश्ते उनके अपने से थे , मां से पहले वो किसी की बहू ,किसी की पत्नी तो किसी की भाभी ….और जाने कितने अनोखे बंधनों से बंधी थीं लेकिन जैसे ही पति की मृत्यु हुई ….
सारे बंधन एक झटके में ही मुंहबोले होकर रह गए थे।
ये तो साध्वी जी की कोशिशें ही थीं कि परिवार को समय समय पर एकसाथ कर ही लेती थीं लेकिन उम्मीद किसी से न थी।
आज उनके दोनों बच्चे आत्मनिर्भर हो चुके हैं।बेटे की शादी बड़ी धूमधाम से संपन्न हुई और साध्वी जी रिश्तेदारों के लिए कुछ उपहार लेने बाजार पहुंचीं थीं ।
‘मीता’………
ओ ‘मीता’….
‘तुम मीता ही हो न….?’
पीछे से किसी ने आवाज लगाई।
साध्वी जी ,यकायक पलटीं तो देखकर उछल पड़ीं…
सधे हुए बालों में ,काटन की साड़ी पहने ये सुंदर सी महिला कोई और नहीं ,उनकी अपनी बचपन की सहेली प्रभा थी , दोनों ने दसवीं तक की पढ़ाई साथ की थी और उसके बाद प्रभा अपने पिता के साथ दूसरे शहर चली गई।
इसके बाद भी एकबार दोनों मिले थे लेकिन तब शादी नहीं हुई थी।
‘अरे प्रभा …तू ….?? यहां कैसे? इतने दिनों बाद ….तू तो बिल्कुल भी नहीं बदली ‘
साध्वी जी बोलीं।
‘और तू …कबसे मीता मीता …किए जा रही हूं ,तू है कि सुन ही नहीं रही।’प्रभा ने कहा।
“अरे आंटी जी ,मम्मी को सभी साध्वी नाम से पुकारते हैं न ……शायद इसलिए “
बिटिया बीच में बोली।
‘इसका मतलब ये थोड़े न है कि अपना नाम ही भूल जाओ।
मां बाप ने कितने लाड़ प्यार से हमें एक नाम दिया है ,ऐसे कैसे हम वही भूल सकते हैं।’
सुनते ही साध्वी जी को मानो झटका सा लगा।
‘सच ही तो है , माता-पिता का दिया एक नाम ही तो है जिसपर एक बेटी का पूरा हक है,इस नाम के साथ ही तो उसने अपने अस्तित्व को पहचाना है ,उनके वजूद से अपने वजूद को जाना है।
अपने मां बाबा के आंगन में हजारों दफा जो शब्द परवरिश बन कानों से दिल में जा घुले थे ,वो ससुराल आते ही कितनी आसानी से उससे जुदा हो गए थे।
जिस दिन ब्याहकर आई ,विदाई में चांवल के साथ जैसे अपना वजूद भी पीछे ही छोड़ आई थी वो।
शादी के बाद ससुराल में सभी ने प्यार से एक नया नाम दिया -‘साध्वी’
तबसे वो सबकी साध्वी बहू ,साध्वी भाभी ,साध्वी चाची,साध्वी मामी………ही होकर रह गई थी।
कुछ सालों तक हफ्ते भर मायके जाती तो फिर भी कोई मायके के नाम से पुकार ही लेता था लेकिन मां बाबा के देहांत के बाद वो भी छूट सा गया था।वक्त के बाद तो वो ‘मिसेज वर्मा ‘या’ वर्मा मैडम ‘भी हो चुकी थीं।अब तो’ मीता ‘बस कागज़ में सिमटा एक शब्द था बस।
आज कितनी सुखद अनुभूति हुई थी उसे ,सालों बाद अपना नाम किसी अपने के मुख से सुनकर …..
मानो किसी ने उसके सोए हुए अस्तित्व को पुकारा हो,किसी ने एहसास कराया हो कि तुम सिर्फ एक मां बहू और सास नहीं …..
तुम ‘तुम ‘हो …वही तुम जिसकी अपनी एक पहचान है ,अपना वजूद है , हां तुम हो…..इस दुनिया में जब तक हो ,यही तुम्हारा वास्तविक नाम है, जिसे सुनकर तुम्हें सच्ची खुशी मिलती है।’
साध्वी जी मन ही मन सोच रही थीं।
‘कहां खो गई …’प्रभा ने लगभग हिलाते हुए कहा।
‘कहीं नहीं रे…चल घर चल ….तुझसे ढेर सारी बातें करनी हैं,मेरे बेटे की शादी थी ,आज बहू की नामकरण रस्म है,तू रहेगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।’
प्रभा अपनी सहेली को ‘न’ नहीं कर पाई।
सभी घर पहुंचे। वहां साध्वी जी की ही प्रतिक्षा हो रही थी।
बारी आई ,बहू के नामकरण की…
काव्या
भव्या
राशि
गौरी
तनु मनु….
जाने कितने ही नाम के प्रस्ताव बहू के सम्मुख थे।
साध्वी जी ने अपनी बहू की ओर देखा ,उसके चेहरे से साफ झलक रहा था कि उसे ‘नये नाम ‘में कोई रुचि नहीं……
इस दुनिया में ऐसा कोई नाम नहीं ,जो अपने मां बाबा के दिए नाम से ज्यादा, अपना लगे,अब जिसे जो लगे वो पुकारे,सामने वाले की खुशी के लिए प्रत्युत्तर दे भी दिया जाए तो क्या ???
न वो एहसास होगा ,न अपनापन।
‘बहू …. निश्चिंत रहो…तुम्हारा जो नाम है ,हम सब उसी नाम से तुम्हें पुकारेंगे ,बिल्कुल वैसे ही जैसे तुम्हारे अपने घर में सब तुम्हें बुलाते हैं….ताकि तुम भी हमसे वैसा ही जुड़ाव महसूस करो ‘
साध्वी जी….ओह ,मीता जी अपनी सहेली प्रभा को देखकर बोलीं।
उन्होंने भी हामी में सिर हिलाकर अपनी सहेली के इस कदम में स्वीकृति दी।
मेरी इस रचना को अपना अमूल्य समय देने के लिए हृदय की गहराइयों से आपका आभार व्यक्त करती हूं।
पुष्प ठाकुर