सागर किनारे – विजया डालमिया 

सबको आता नहीं दुनिया को सजा कर जीना।

जिंदगी क्या है मोहब्बत की जुबां से सुनिए ।

मेरी आवाज ही पर्दा है मेरे चेहरे का

मैं हूँ खामोश जहाँ मुझको वहाँ से सुनिए।

तृप्त तन और सुप्त मन दोनों एक जैसे ही होते हैं। तृप्ति का भाव भीतर तक लिए वैशाली आज समुंदर की लहरों को देखते शांत चित्त लिए बैठी थी। होठों पर आती मुस्कान को आज उसने रोकने की भी कोशिश नहीं की। हँसी हमें नभ के छोर तक ले जाती है और रोना हमें मन की गुफाओं तक ले जाता है। रोने से मन का आँगन धुल जाता है और हँसने से मन का आसमान खुल जाता है। हमारे होंठ फैल कर किसी भी अजनबी को अपनी दुनिया का हिस्सा बना सकते हैं और हमारी आँखें बहकर किसी अजनबी के दुनिया का हिस्सा बन सकती हैं। इसी सोच के साथ एक लट जो बार-बार आकर उसके होठों से शरारत कर रही थी वह भी उसे बेहद सुकून दे रही थी। एक लंबे अंतराल के बाद वह बाहर व भीतर दोनों से ही तृप्त थी। सब के पास अपने अपने हिस्से का समुंदर होता है। वैशाली के पास भी था। विराट के नाम का। नाम के अनुसार ही विराट लंबी जुदाई लेकर अमेरिका जा बसा था, पर खयालों के पंख भी तो विराट ही होते हैं। वैशाली उन्हीं पंखों के सहारे उड़ जाती वहाँ,जहाँ उसका प्यार था ।

विराट भी वहाँ जाकर उसे कभी भूल नहीं सका। कितने ही हसीन चेहरे, दिलकश अदाओं के साथ उसके सामने से गुजरे ।पर उसने किसी को भी पनाह नहीं दी ।वैशाली के अलावा और कोई चेहरा उसे नजर आता भी तो कैसे ?वैशाली जो उसकी हर साँस साँस में बसी थी।

मुंबई…. जिसके लिए कहा जाता है कि कभी नहीं सोती ।वहीं तो वह मिला था वैशाली से। चौपाटी पर। रात का समय,काम निपटाने के बाद उसने सोचा मुंबई आकर चौपाटी पर चाट नहीं खाई तो क्या खाया? खाने पीने का वह शौकीन था ही। बस वहीं नजर आ गई थी उसे वह गुपचुप वाले से उलझी हुई ….”भैया, थोड़ा तीखा ज्यादा करो पानी में और मसाला भी ज्यादा भरो”। अजीब सा लगा ,पर वह पाव भाजी खाने में मशगूल  हो गया ।तभी उसके कानों में फिर वही आवाज ….”भैया ,एक वड़ा पाव देना। गरमा गरम “।उसने देखा ….अरे यह तो वही है ।एक तरफ हटता इतने में तो उसके करीब से गुजर कर सामने खड़ी हो गयी ।उसने देखा लंबी,छरहरी चुलबुली सी उस लड़की को। पर वह लड़की थी या महिला ,यह वो तय नहीं कर पा रहा था ।आवाज से तो लड़की ही …… सोच ही रहा था कि एक कुत्ता भौंकते हुए आया और गरमा-गरम पाव भाजी घबराहट में मुझ पर गिर पड़ी ।मेरे मुँह से अचानक निकल गया….” अरे यार “।तभी वह पलटी ….”क्या हुआ”? …



“कुछ नहीं “।…उसने घूर कर देखा ।माथे पर सल  डाले हुए और बोली…. “शुक्र है आपकी भाजी आपके टीशर्ट से ही लिपटी है। अगर हाथों पर गिरती तो पता चलता “। मैं  झेंप कर टीशर्ट साफ करने लगा ।इस कोशिश में भाजी और ज्यादा फैला दी मैंने । उसने कुछ टिशू पेपर उठाये।पानी का जग उठाया और बोली…..” क्लीन कर लो”। फिर तुरँत …..”आप यहाँ  के तो नहीं लगते”। मैंने कहा …..” बेंगलुरु से काम के सिलसिले में आया हूँ “।…”ओके “कह कर वो फिर पलटी और बोली….” भैया, पाव भाजी तैयार नहीं हुई क्या अभी तक “?पाव भाजी लाकर मुझसे कहने लगी….” लो “।मैंने कहा….” नहीं, मेरा हो गया “।उसके माथे पर फिर सल पड़ गई। पर उसने कहा …”ओके। नो प्रॉब्लम”।

कहकर अकेली खाने लगी मुझे भूख तो थी ही ,पर अब शर्म भी आड़े आ रही थी कि कहीं यह लड़की कह ना दे कि, मैंने पूछा तब तो मना कर दिया ,और अब…..। तभी बिंदासी से उसने कहा…. “यह मत सोचो कि मुझे मना कर दिया तो कैसे खाऊं ?खा लो”। मैं तो धक रह गया ।बाप रे…. इतनी दिव्यदृष्टि ।अंदर तक वाली ।अपनी झेंप मिटाते हुए मैंने बात संभाली….” वह तो आपको कंपनी देने के लिए “।वह हँस पड़ी और कहने लगी…..” हाँ,दिल बहलाने को यह जवाब अच्छा है “। खाना तो हो गया ,पर बात यहीं खत्म नहीं हुई ।यह तो शुरुआत थी ।हमारी बातों का दौर समुंदर की लहरों से शुरू होकर ,एक दूसरे का पूरा परिचय पाकर ही खत्म हुआ। हमने दूसरे दिन और तीसरे दिन का भी प्रोग्राम फिक्स कर लिया। ऐसा भी कहीं होता है सिवाय पिक्चरों के ?पर हमारी कहानी में ऐसा हुआ ।पहली मुलाकात ही दिल से दिल तक वाली हो गई ।जिस दिन मेरी वापसी थी वह एकदम खामोश थी ।लहरों के अलावा और कोई शोर नहीं ।

मुझसे उसकी खामोश उदासी देखी नहीं गयी।मैंने कहा ….”मैं जल्दी ही आऊँगा ।भरोसा रखो “।उसकी आंखों के कोर गीले हो गये ।उसने कहा …..”तो फिर “?मैंने शरारत से कहा …”क्या “?उसने कहा…” कुछ नहीं”। मैंने चाहा कि वह कुछ कहे। पर बड़बोलेपन की चरम परिणिती है खामोशी। यह मैंने तब  पहली बार महसूस किया। मिडनाइट की फ्लाइट से मैं चला आया ।

वैशाली की जिंदगी जो मस्त थी अपने आप में, वह एकदम से सूनी हो गई। अचानक ही मानो चलता फिरता शहर थम सा गया ।अब ना ही चौपाटी में कोई मौज थी, ना ही समुद्र की  लहरों  मे जोर।नाही गुपचुप के पानी में चरपरापन रहा। नाही भाजी में तीखापन। सब कुछ फीका फीका। जैसे स्वाद की खुशियाँ और बातों के मसाले सारे विराट के साथ ही चले गए। हालाँकि फोन के माध्यम से जुड़े रहे। पर दीदार की प्यासी आँखों को इतना काफी नहीं था। बीच-बीच में विराट आता तो अपने साथ वही मस्ती और स्वाद ले आता ।लहरों की तरह मचल उठती थी वैशाली की खामोशी। अबकी बार आया तो कहने लगा ….”अमेरिका चलना है”? मैंने देखा और पूछा …” क्यों “?….”क्योंकि मैं जा रहा हूँ” मेरे हाथ से पानी की बोतल छूट गई। रेत में मैं जो हमारा नाम लिख रही थी ,वह मिट गया ।



उसने पूछा ….”क्या हुआ”? मैंने कहा…” रेत पर लिखा था मिट गया” ।  उसने अपनी उंगलियां घुमाई और कहा…..” देखो ,फिर से लिख दिया “।मैंने कहा… “लहरें आएंगी तो फिर मिट जायेगा”।उसने मुझे अपनी बाँहों में भर कर कहा ….”कभी नहीं। आजीवन के लिए अमिट। हमारा बँधन अटूट है ।हम कल ही मंदिर में शादी कर लेंगे ।सात फेरों का बंधन जिसमें तन से तन का, मन से मन का और आत्मा से आत्मा का मिलन होता है उसकी कल्पना मुझे रोमांचित कर गयी । हमारा वह सफर भी सिंदूर से फ्लाइट तक वाला ही रहा क्योंकि उसके अलावा और कोई चारा नहीं था।  एक पल में ही सदियों का सफ़र जैसे तय कर चुके थे हम। ना मैं दुल्हन बनी। ना ही बाराती आये।

फिर भी पवित्र अग्नि को साक्षी बनाकर हम मंत्रोचार के साथ पति पत्नी बन गये ।”अब खुश हो ना “?जब विराट ने मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर पूछा तो मैं जवाब में आँसुओं के अलावा और कुछ ना दे सकी। पर उसने जाते-जाते मेरे अधरों पर अपने  अधर रख दिये और मेरे आँसुओं को रोक दिया। फिर वह चला गया। उसे जाना ही था ,पर इतना लंबा। लेकिन उसके साथ बिताया गया हर लम्हा मैं  जी रही थी उसी के साथ। कहाँ नहीं था वो? चौपाटी के चप्पे-चप्पे में। समुंदर की लहरों में। पानीपुरी के पानी से लेकर हर चाट के स्वाद में मेरे साथ साथ ही तो था ।देखते-देखते दो साल बीत गये।रोज की तरह चौपाटी में समुंदर की लहरों से मेरी खामोश बातचीत  चल रही थी। तभी एक जानी पहचानी खुशबू आवाज की शक्ल में मेरे कानों तक चली आयी ।मैं पलटी  तो आँखों पर यकीन नहीं। सामने विराट ।

कुछ समझ पाती उसके पहले विराट ने उस दिन की तरह बाँहों में ले लिया और हम खामोशी से एक दूसरे की धड़कनों को सुनते रहे, जिसका शोर उस रात लहरों से भी ज्यादा था। सच है प्यार के लम्हे भी कुछ सेकंड के ही होते हैं पलक झपकते ही बीत जाते हैं। पर उस रात का नया अनुभव तन और मन के साथ जीवन को भी महका गया ।वो रात बहुत छोटी थी। सुबह बहुत जल्दी हो गयी।मैं चलकर फिर समुंदर की लहरों के पास उनसे अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए चली आयी हमेशा की तरह ।तृप्त तन और सुप्त मन के साथ।

मन भी यही कह रहा है :

आ अब पुरानी कलम से जज्बात नये लिखते हैं।

ऐ जिंदगी तू साथ चल मेरे, अब कहानी नयी लिखते हैं।

विजया डालमिया  

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!