आज ताई की तेरहवीं है। तेरह ब्राह्मण भोजन के लिए बैठे थे । तभी किसी ने कहा आज तो पूरा भोजन ताई की पसंद का बना होगा क्योंकि कहते हैं कि मरने वाले की पसंद का भोजन ब्राह्मणों को खिलाने से अप्रत्यक्ष रूप से दिवंगत आत्मा को मिल जाता है।
मैं भी वही पास में बैठी थी। उसके शब्द मेरे दिल में कहीं उतरते चले गए और मैं उन दिनों में खो गई जब आज से 13 दिन पहले ताई जिंदा थी।
ताई घर में अकेली रहती थी, ताऊ कई साल पहले चल बसे थे। उनके बच्चे नहीं थे ताऊ जी के कहने पर उन्होने अपने ससुराल वाले परिवार का कोई बच्चा ना लेकर अपने भाई के बेटे को गोद ले लिया था। उसको पढ़ाया- लिखाया उसका विवाह किया। मगर वह कुछ दिन बाद ही ताई और उसकी पत्नी के आपसी मतभेद के कारण , पत्नी को साथ लेकर अलग रहने लगा था। इस वजह से उनका अपना परिवार उनके तीन देवर उनसे दूर होते चले गए।
मेरी माँ उनसे छोटी थीं मतलब उनकी देवरानी, और मायके से भी उनके किसी रिश्ते में आती थीं। इसलिए हमेशा ताई की सेवा करने के लिए तैयार रहती थीं। ताई बहुत पूजा पाठ करने वाली धार्मिक प्रवृत्ति की थी। लड्डू गोपाल को हमेशा अपने साथ रखती थी, अकेले में भी उनसे बातें किया करती थी। मैं जब भी उनके घर जाती है तो कहती आज मेरा मन खाना बनाने को नहीं था, लेकिन क्या करें मेरे लड्डू गोपाल भूखे रह जाते हैं, इसलिए बनाना पड़ता है। ऐसा लगता लड्डू गोपाल जी उनके बच्चे हैं। ताऊ जी के मरने के बाद ताई की पूजा में और बढ़ोतरी हो गई। टी॰ वी॰ पर सत्संग देखती थी,कोई भजन कीर्तन उनके मन को भा जाए तो उसको तुरंत लिख लेती थी। कहीं भजन कीर्तन में जाती तो मजाल कि ढोलक की थाप पर उनके पैर ना थिरके, मीरा सी बन जाती। ताई 80 बसंत पार कर चुकी थीं । लेकिन उनके अंदर जीने की इच्छा प्रबल थी। कभी बीमार पड़ती तो ऐसा लगता उनके जीने की इच्छा और मजबूत हो गई। लेकिन हर बात की सीमा होती है जीवन की सीमा तो ईश्वर पहले ही निश्चित कर देता है चाहे कितनी भी जीने की इच्छा प्रबल हो। ये और बात है कि मनुष्य को पता नहीं चलता। उनके भी जीवन के अंतिम दिन नजदीक आ रहे थे। इस बार वह बीमार पड़ी तो उठी नहीं, एक दिन मैं उनको देखने गई , तब भी उन्होंने अपने जीवन के दीपक को और रोशन करते हुए चिंतित स्वरों में बोली – “कुछ दिन बाद ठंड आने वाली है। कैसे सवेरे उठकर स्नान ध्यान कर पाऊंगी। मैंने कहा – “ताई पहले ठीक तो हो जाइए, फिर सब हो जाएगा।
तब पहली बार ताई ने गहरी सांस लेते हुए कहा- “लग रहा है कि जीवन का हंसा अब उड़ने वाला है।”
और फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी- “चल उड़ जा रे हंसा, अब यह देश ना रहा अपना,,,
मैंने इनकी यह लाइन अपनी पाॅकेट डायरी में नोट कर लिया।
तब वह बोली- मेरी भजन माला की किताब है ,तुम ले लो”।
मुझे लगा, ताई ने मुझे अपनी कीमती वसीयत दे दी। मेरी आंखें भर आई मैंने कहा-” ताई ऐसे मत बोलो अभी तो आपको बहुत जीना है।
वो मेरी तरफ सूनी आंखों से देखने लगीं, मानो कह रही हों कि तुम मुझे बहला रही हो, सत्य मैं जान गई हूँ।
धीरे-धीरे उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही थी , जो भी खाती तुरंत पेट खराब हो जाता पहले खुद उठ लेती थीं, मगर धीरे-धीरे असहाय होने लगी हर वक्त लेटे रहने से उनकी पीठ में छोटे-छोटे घाव हो गए थे। उनकी सेवा के लिए कोई नहीं था। मेरी मां के कई बार फोन करने के बाद उनका बेटा अपनी पत्नी के साथ आया । मगर अब उनकी दशा ज्यादा खराब हो गई, बेटे की बहू ने उनको खाना देना बंद कर दिया, वह कहती कि इनको खाना दिया जाएगा तो बिस्तर खराब होगा और मै सफाई नही कर सकती। ताई को भूख लगती थी , जो भी उनको देखने जाता उससे इशारे से खाने को मांगती थीं।
उनकी हालत देख कर लगता कि क्या उनकी अपनी औलाद होती,तो क्या वो भी ऐसा ही करती? पूरे जीवन ना करता लेकिन अंत में तो मां के लिए हृदय रो ही पड़ता ।
आखिर एक दिन सुबह जब मां उनको देखने गईं तो उनकी आंखें ढपक रही थीं, मां को कुछ समझ में आ गया होगा इसलिए उन्होंने तुरंत उनको बेड से नीचे उतारने के लिए कहा। इस पर उनका बेटा भड़क उठा – यह क्या फालतू की बात कर रही हैं,अम्मा ठीक हैं।”
मां ने कहा- फालतू की बात नहीं कर रही हूं, समझो इस समय को। तुम्हारी मां जा रही हैं , और देखते ही देखते ताई का जीवन रूपी हंसा इस दुनिया से उड़ गया ।
तभी किसी ने कहा- नेहा चलो तुम भी खा लो। और मैं अपनी सोच से बाहर आ गई । मेरी नजर सामने मेज पर रखी ताई की दूसरी पुस्तक भजन माला पर गई । जिसके पन्ने फड़फडा रहे थे। अगर सच में आत्मा उस दिन भोजन करने के लिए आती है तो आज मेरी ताई ने भरपेट भोजन किया होगा ।
उषा भारद्वाज