“दिव्या! आज स्कूल नहीं जाना क्या? अभी तक सोकर नहीं उठी,” दिव्या की मां ने किचन से आवाज़ लगाते हुए कहा।
दिव्या उठ तो बहुत पहले ही गई थी,शायद सुबह के 6 बजे,पर आज उसका विद्यालय जाने का मन बिलकुल नहीं कर रहा था जबकि उसको पता था कि आज फिजिक्स की मैम उसके क्लास को “प्रकाश”( लाइट) संबंधी कुछ नए एक्सपेरिमेंट करके दिखाएंगी और उनको करना सिखाएंगी भी फिजिक्स लेब में।
दिव्या नवीं क्लास में पढ़ने वाली चौदह वर्षीय एक सुंदर,कुशाग्र बुद्धि की चंचल किशोरी थी।उसके पिता देवेंद्र बाबू की छोटी सी एक परचूनी की दुकान थी जिससे होने वाली आय से वह अपने परिवार का पालन पोषण करते थे।परिवार में पत्नी सुधा,एक बूढ़ी मां सरला देवी, उन्नीस वर्षीय पुत्र दीपक और पुत्री दिव्या ही थे।एक छोटे पुराने मोहल्ले में उनका पुराना जीर्ण शीर्ण पुश्तैनी मकान था। देवेंद्र की आय इतनी न थी कि अपने पुराने मकान की मरम्मत ठीक से करवा पाते।बेटी दिव्या को इसीलिए गली के बाद वाली मुख्य सड़क पे बने सरकारी स्कूल में डाल दिया था।वहां फीस भी ज़्यादा नहीं थी और दिव्या पांच मिनट में ही पैदल घर से स्कूल पहुंच जाती थी इसलिए रिक्शा इत्यादि का भाड़ा देने की भी समस्या नहीं थी।दीपक पॉलीटेक्निक कर रहा था और इस जल्दी में था कि कोर्स पूरा करते ही उसकी कहीं नौकरी लग जाए तो घर चलाने में वह अपने पापा की मदद कर सके।
पिछले कुछ महीनों से दिव्या को गली के नुक्कड़ पे खड़े कुछ आवारा लड़के रोज़ परेशान कर रहे थे।कभी उसपे छींटाकशी कसते,गंदी फब्तियां कसते,किसी हिरोइन का नाम लेके उससे उसकी तुलना करते,कभी उसके ऊपर फूल फेंकते।कई तो उसके पीछे पीछे स्कूल तक आ जाते। उनमें से कुछ इसी मोहल्ले के थे और कुछ शायद बगल वाले मोहल्ले के आवारा लड़के लगते थे।गली के नुक्कड़ पे खड़े होके सिगरेट फूंकते रहते,पान मसाला चबाते रहते और स्कूल जाने के समय वहां से गुजरती लड़कियों को छेड़ते, उनके उपर फब्तियां कसते।वहां से रोज़ गुजरने के कारण आते जाते कई के नाम दिव्या के कानों में सुनाई पड़ चुके थे,जब वे आपस में एक दूसरे का नाम लेकर कुछ बातें कर रहे होते थे।राकेश,अनिल,फरीद,बंटी, ज़फ़र इत्यादि कई नाम वह जान चुकी थी।
कल तो हद ही हो गई थी।दिव्या जब स्कूल से वापस घर लौट रही थी तो सड़क पे बाइक पे बैठा हुआ वही बंटी नाम का लड़का दिख गया।अपनी सहेली रेनू के साथ वह जल्दी जल्दी कदम बढ़ाती हुई घर की तरफ लौटने लगी तो बंटी बाइक धीरे धीरे चलाता हुआ उसके नज़दीक आ गया और और एक लव लेटर उसके ऊपर फेंक कर यह कहता हुआ चला गया कि वह उसका जवाब अवश्य दे वरना अच्छा नहीं होगा।
दिव्या ने वो लेटर वहीं नाले में फेंक दिया।घबराहट में वह पसीने से नहा गई।
” तू अपने पापा और भैया को क्यों नहीं बताती कि ये गुंडे रोज़ तुझको छेड़ते हैं,” रेनू उससे बोली।
” नहीं रेनू,ये बड़े आवारा किस्म के लड़के लगते हैं ।क्या पता चाकू छुरी भी रखते हों।अभी उसी दिन मैंने न्यूज में किसी टीवी चैनल पे देखा था कि गुंडों द्वारा किसी लड़की को छेड़े जाने पर जब उसके भाई और पिता ने उनका विरोध किया तो गुंडे दोनों के चाकू घोंप के भाग गए।बेचारे दोनों की ही डेथ हो गई। मैं अपने भाई और पापा को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहती।अपनी समस्या का हल मैं खुद ही खोजूंगी।,” दिव्या बोली।
दिव्या को पता था कि आज ज़रूर बंटी गली के अगले मोड़ पर उसका इंतज़ार कर रहा होगा,इसलिए आज उसने स्कूल न जाने का मन बना लिया था।पर ऐसे कब तक चलेगा,दिव्या लेटी लेटी सोचती रही।
अचानक उसके मन में एक विचार आया और वह ब्रश करने वाशरूम की तरफ चल दी। मां बहुत देर से उसको नाश्ता करने के लिए बुला रही थीं।
अगस्त का महीना था। तीन दिन बाद उन्नीस अगस्त को रक्षाबंधन का त्योहार आने वाला था। उस दिन दिव्या के विद्यालय की छुट्टी थी।
अठारह अगस्त को पूर्व की भांति दिव्या तैयार होके स्कूल यूनिफॉर्म में स्कूल जा रही थी।साथ में रेनू भी थी।पहले की ही तरह गली के नुक्कड़ पे वही आवारा लड़कों का झुंड खड़ा हुआ था।रेनू को वहीं रुकने का इशारा करके,दिव्या उन लड़कों की तरफ बढ़ चली।लड़के अभी उसपे कुछ भद्दी फब्तियां कसने जा ही रहे थे,पर उसको अपनी तरफ ही आता देख कर सब चुप हो गए और हैरानी से उसकी ओर देखने लगे।
” अरे,आप लोग मुझे देख के चुप क्यों हो गए? मैं तो आपको अपने घर आने का इन्विटेशन देने आई हूं”,कहते हुए दिव्या ने स्कूल बैग से निकाल कर कुछ छोटे छोटे हाथ के बने हुए इन्विटेशन कार्ड्स उनको बांट दिए।
” कल रक्षाबंधन है न? मैंने मम्मी से कहा कि इस बार वो छोले भटूरे बनाएं,और खीर भी,खूब सारी,मेरे बहुत से भाई कल आयेंगे मेरे घर, वो सब छोले भटूरे और खीर खायेंगे और वो मुझको मेरी मनपसंद चॉकलेट कैडबरी डेयरी मिल्क का गिफ्ट भी देंगे।
आप सब लोगों का नाम तो मैं नहीं जानती पर हां,फरीद भैया, अनिल भैया को पहचानती हूं।आप लोग आएंगे न? मुझे बहुत खुशी होगी आप सबसे दोस्ती करके,आपको अपना राखी भाई बना के।
और वो आपके दोस्त बंटी कहां हैं।इतने अच्छे परिवार के दिखते हैं पर मुझे उनके लक्षण ठीक नहीं दिखते। बताओ,मोहल्ले की लड़की तो बहन जैसी होती है ,पर वो जनाब कल मुझे लव लेटर दे रहे थे।ऐसा भी होता है क्या? आप सब उनको अच्छे से समझा देना कि आगे से ऐसा न करें।मैं कोई ऐसी वैसी लड़की नहीं।” दिव्या एक सांस में सब बोल गई।
” क्या? बंटी की यह मजाल कि हमारी बहन को लव लेटर दे?”मिलने दो उसको,अच्छे से सबक सिखाते हैं हम उसको ,” फरीद ने अचानक गुस्से से कहा।
सभी उसकी हां में हां मिलाने लगे।
” अच्छा ,अब मैं चलती हूं,स्कूल को देर हो रही है।कल आप सारे भैया लोग को आना है घर,वरना मम्मी के इतनी मेहनत से बनाए हुए छोले भटूरे,खीर सब बेकार हो जायेंगे।कौन खायेगा फिर इतना सारा? आप सबको छोले भटूरे पसंद हैं न?” दिव्या बोली।
” हां,बहुत,” कई आवाजें एक साथ आईं।
कल कितने बजे आना है दिव्या तुम्हारे घर,मुझे तो सुबह ही राखी बंधवाने का शौक है।मैं चॉकलेट ज़रूर लेके आऊंगा,” फरीद पीछे से बोल रहा था।
दिव्या सबको टा टा बाय करके स्कूल की तरफ बढ़ गई,हल्के मन से।
अपनी समस्या का समाधान उसने स्वयं ही बहुत अच्छे तरीके से खोज लिया था।
स्वरचित और अप्रकाशित
नीति सक्सेना