“अरेsss ओ sss साहब, टिकट !”
तेज़ आवाज़ से नरेश की तंद्रा टूटी। उसने हड़बड़ा कर देखा, सर पर कंडक्टर खड़ा था और उसे ही घूर रहा था।
“ओह !! माफ करना भैया मेरा ध्यान कहीं और था …ये रहे टिकेट, एक मेरा और एक इनका, अपनी मां वसुंधरा जी की तरफ़ इशारा करते हुए नरेश ने टिकेट कंडक्टर की तरफ़ बढ़ा दिए। “
” क्या साssब! चार बार चिल्ला के पूछा तब जाके आपने सुना ,थोड़ा ध्यान देना चाहिए ना, बताओ आज कल लोग खुली आंखों से सोते हैं!”
सिर झटकता हुआ और बड़बड़ाता हुआ कंडक्टर आगे बढ़ गया।
नरेश ने एक गहरी सांस ली और एक नज़र बगल वाली सीट पर बैठी अपनी मां की ओर देखा।
विसुंधरा जी बस की खिड़की से बाहर एक टक जैसे शून्य को निहार रही थीं।
नरेश ने झट से मुंह फेर लिया। दो आंसू ,आंखो से लुढ़कते हुए उसके गालों को भिगो गए।
“बहुत हिम्मत कर के यहां तक आया है नरेश , अब इस मोड़ पर कमज़ोर नहीं पड़ सकता।”
आंसू पोंछते हुए वो खुद से ही बातें कर रहा था। मन बहुत विचलित था उसका , पर इस बार वो दृढ़ निश्चय के साथ निकला था। घर में हो रहे आए दिन के कलेशों से वो तंग आ गया था। सब खत्म करने का यही एक तरीका था जो उसे उसकी पत्नी प्रिया ने सुझाया था।
“हम कहां जा रहे हैं बेटा,?” पूरे सफ़र में करीब पांचवी बार ये सवाल अपनी मां से सुन ,इस बार नरेश खीज कर बोला, उफ्फ हो मां तुम और तुम्हारी ये बीमारी। तंग आ गया हूं मैं। कितनी बार बता चुका हूं कि कुंभ का मेला देखने ले जा रहा हूं तुम्हें…. बहुत इच्छा थी ना तुम्हारी ,ये मेला देखने की? “
“कुंभ का मेला? अरे सच में तू मुझे कुंभ के दर्शन कराएगा ?
वाह वाह। जुग जुग जी मेरे लाल। गंगा जी में स्नान करूंगी मोक्ष मिलेगा मुझे मोक्ष।”
दरअसल वसुंधरा जी अल्जाइमर रोग से ग्रसित थीं। एक ऐसी बीमारी जिसमें व्यक्ति केवल कुछ चीज़ों को छोड़ कर बाकी सब भूल जाता है। यहां तक कि थोड़ी देर पहले बताई गई बातें भी, कुछ ही पलों बाद उसे याद नहीं रहती।
वसुंधरा जी का भी यही हाल था।
प्रायः सब कुछ भूल जाती थीं। उन्हे याद रहता था तो केवल उनका पुत्र नरेश क्योंकि एक मां सब भूल सकती है पर अपनी औलाद को नहीं, और दूसरा उनकी कुंभ का मेला देखने की तीव्र इच्छा। बस इन्हीं दो बातों में जैसे संसार सिमट कर रह गया था उनका।
लेकिन उनकी इसी बीमारी की वजह से घर में आए दिन कलेश होते थे।
नरेश की पत्नि प्रिया को वसुंधरा जी एक फूटी आंख नहीं भाती थीं। वो रोज़ नए बहाने ढूंढती उनसे निजात पाने के, पर लोक लाज के डर से कुछ कर ना पाती।
कुछ कर पाती थी तो बस अपने पति नरेश के साथ अपनी सास को लेकर आए दिन झगड़े। वो रोज़ रोज़ कोई झूठा किस्सा गढ़ कर नरेश को सुनाती ओर उसे वसुंधरा जी के खिलाफ़ भड़काती। धीरे धीरे अपने पति को प्रिया ने पूर्णतः अपने रंग में रंग लिया। अब तो नरेश को भी अपनी मां की उपस्थिति खलने लगी।
एक दिन प्रिया ने नरेश को सुझाया।
” सुनो जी, तुम्हारी मां से छुटकारा पाने का एक तरीका सोचा है मैने।
तुम इन्हें इस बार कुंभ के मेले में ले जाओ और वहीं छोड़ आओ। अल्जाइमर की पेशेंट तो है ही ये। अपने आप वापस घर आने का तो सवाल ही नहीं है… और तो और किसी को कुछ बता भी नहीं पाएंगी, कि कौन हैं ये कहा से आई हैं?
यहां रिश्तेदारों को हम कोई झूठी कहानी गढ़ कर बता देंगे कि कुंभ में ये कहीं खो गईं। लाख कोशिश की ढूंढने की ,पर मिली नहीं । “
प्रिया हाथों को नचाते हुए बोली।
” दिमाग तो खराब नहीं हो गया है तुम्हरा? ऐसे कैसे छोड़ आऊं मां को अकेले, अनजान जगह पर? ये नहीं होगा मुझसे ” नरेश दांत पीसते हुए बोला ।
“अरे वहां कुंभ में कई साधु सन्त और भले लोग घूमते हैं , कोई ना कोई सहारा दे ही देगा इन्हें। पर एक बात कान खोल कर सुन लो। अगर तुमने मेरी बात न मानी तो मैं अपनी जान दे दूंगी, बताए दे रहीं हूं हां….. और सुन लो चिट्ठी छोड़ कर जाऊंगी कि तुमने और तुम्हारी मां ने मिल कर मुझे इतना प्रताड़ित किया कि मैं अपनी जान दे रहीं हूं। फिर खाते रहना दोनों मां बेटे ,जेल की हवा।”
कहते हुए, प्रिया पैर पटकती हुई कमरे से बाहर चली गई।
नरेश वहीं सर पकड़ कर बैठ गया। ऐसे ही लड़ाई झगड़ों में कुछ दिन बीत गए।
शुरु में तो नरेश कतई नहीं माना, लेकिन स्त्री के त्रियाचरित्र से तो विश्वामित्र जैसे महान ऋषि भी न बच पाए तो नरेश किस खेत की मूली था। आखिर पत्नी के आगे उसे नतमस्तक होना पड़ा।
आज बस में रह रह कर उसे अपनी मां के साथ बिताए अनगिनत प्यारे पल याद आ थे। पर उसने खुद को किसी तरह संयत रखा था।
कुछ ही देर में, मां बेटा हरिद्वार पहुंचे , साधु संत और गंगा नदी के दर्शन कर मां गदगद हो रही थी। प्लान के मुताबिक मां को वहीं भीड़ में छोड़ कर नरेश पास ही के एक होटल में चला गया। जहां अगले 5…6 दिन वो रुकने वाला था, ताकि घर जाकर लोगों , रिश्तेदारों को बता सके कि 5.. 6 दिन वो मां को मेले में पागलों की तरह ढूंढता रहा, पर ढूंढने में विफल रहा।
किसी तरह वो भारी हृदय लिए होटल पहुंचा। कहने को तो वो होटल कुछ ही दूरी पर था पर नरेश को वहां पहुंचने में घंटो लग गए l आत्मग्लानि से उसका सांस लेना भी दूभर हो रहा था। उसे अपनी मां का चेहरा हर जगह दिखाई देने लगा। उसे लग रहा था वो किसी भी पल गश खाकर गिर जाएगा। ध्यान भटकाने के लिए नरेश ने होटल रूम में रखा टी. वी खोला। काफी देर तक चैनल पर चैनल बदलता रहा पर कहीं मन न लगा। तभी एक न्यूज़ चैनल में लाइव न्यूज़ फ्लैश हुई और न्यूज़ एंकर चिल्ला चिल्ला कर ख़बर सुना रहा था l
“ब्रेकिंग न्यूज़….. अभी अभी खबर मिली है कि हरिद्वार में कुंभ के मेले के दौरान मची भगदड़ । किसी तरह पुलिस प्रशासन ने स्तिथि को संभाला पर कई लोगों के घायल व कुछ लोगों के मृत्यु की ख़बर सामने आ रही है।”
ये ख़बर सुन नरेश के होश उड़ गए। अब उसे काटो तो खून नहीं।
वो डर से थर थर कांपने लगा। बड़ी मुश्किल से उसने खुद को संभाला और किसी तरह हरिद्वार घटना स्थल पर पहुंचा।
वहां मचे चीख पुकार और क्रंदन से उसका कलेजा मुंह को आ रहा था। वो पागलों की तरह अपनी मां को ढूंढने लगा। काफ़ी समय बीत जाने पर वो डरते डरते पुलिस के पास गया और अपनी मां का हुलिया उन्हें बताया। पुलिस वालों ने उसे पहले मृतकों और घायलों में उन्हें ढूंढने की सलाह दी।
दुर्भाग्य से मृतकों में एक चेहरा उसकी बूढ़ी मां का भी था।
मां का मृत शरीर देख नरेश गश खाकर गिर पड़ा।
कुछ देर बाद उसे होश आया तो वो पागलों की तरह रोने लगा। कुछ लोगों ने उसे संभाला।
अगले दिन वो अपनी मां के मृत शरीर के साथ घर पहुंचा।
आस पड़ोस इक्ट्ठा हो गया था और रिश्तेदार भी पहुंच चुके थे। प्रीति वहां बैठी रोने का ऐसा नाटक कर रही थी कि बड़ी बड़ी अदाकाराएं भी उसके आगे फेल थी।
मां का अंतिम संस्कार पूरे रीति रिवाज़ के साथ सम्पन्न हुआ । इस पूरी प्रक्रिया के दौरान नरेश एक शब्द ना बोला। सभी लोग सोच रहे थे, मां से कितना अधिक प्रेम था, देखो तो बिचारे की ज़ुबान ही सिल गई है। भगवान ऐसी औलाद सबको दे।
किन्तु असलियत तो प्रीति और नरेश ही जानते थे।
समय चक्र अपनी गति से चलता रहा। कुछ महीने बीत गए। नरेश ने किसी से भी बात चीत करना छोड़ दिया था। खाना भी अनमाना होकर नाममात्र का ही खाता, उसका शरीर तो मानों सूख कर कांटा हो गया था। प्रीति की बातों का भी वो केवल हां या ना में जवाब देता। हर वक्त न जाने कहां खोया रहता और कभी भी फूट फूट कर रो पड़ता। पति की ऐसी हालत देख अब प्रीति को भी अपनी गलती का एहसास हो चला था।
कुछ समय बाद नरेश की नौकरी भी चली गई। घर की स्थिति अत्यंत खराब हो गई। प्रीति भी अब अकसर बीमार रहती।
किसी ने सलाह दी कि पंडित को जन्मपत्री दिखाओ।
जन्मपत्री देख पंडित बोला, पितृ दोष है। घर में पूजा कराओ, दान पुण्य करो और कम से कम सौ ब्राह्मणों को भोजन कराओ। यही प्रायश्चित है। सब ठीक होगा।
पण्डित की बात सुनते ही नरेश पागलों की तरह हंसने लगा। उसके चेहरे पर रोने और हसने जैसे मिले जुले भाव तैरने लगे। पंडित और प्रीति हैरान होकर उसका चेहरा देख रहे थे पर नरेश पागलों की तरह हंसता जा रहा था, उसे पता था कि जो पाप उसने किया है। उसका प्रायश्चित इस जन्म में तो क्या किसी जन्म में, कैसे भी मुमकिन नहीं है।
काल्पनिक एवं स्वरचित
ऋचा उनियाल बोंठियाल