ठंडे आटे की रोटी* – अर्चना नाकरा

रवि देख ‘तेरी बहू  ‘गीता’ मुझे खाने में क्या खिलाती है’

यह कहकर मां ने थाली रवि के आगे सरका दी..

मां जो आप खा रही हो वही तो मुझे दी है

पहले आपको..’ फिर मुझे’

ना.. ना, देख  रवि ‘रात के ठंडे आटे की रोटी’

नहीं मां अभी ताजा आटा लगाकर रोटी बनाई है

मेरे ऑफिस का खाना पैक किया है

अरे नहीं रे ..’तुझे कुछ नहीं पता चलता’

तुझे रसोई की चीजों का थोड़ी पता है

मैं तो मुंह में एक गस्सा डालकर ही बता देती हूं कि ताजा  है कि रात का..!

नहीं मां ‘मैं जानता हूं तुम्हारी बहू को’…

और रात का आटा  तो वो,रात को ही खत्म कर देती है

उतना ही लगाती है…

अरे तू नहीं समझता रे!

एक साथ पूरे दिन आटा लगा कर रख देती है

फिर’ बनाती रहती है’

फिर उसी में से.. मुझे खिलाती है

रवि झूठ नहीं बोल रहा था

पर मां को कैसे समझाता?

 अगले दिन पहली थाली ‘गीता.. रवि को दे गई’

वह मां के कमरे में बैठकर खाना..’ जैसे खाने लगा’ उसने कहा गीता!

‘ यह थाली मां को दे दो ‘

मेरे लिए दूसरी ले आना!

गीता चुप रही!

मां फिर शुरू हो गई..

तू खा ले… तेरे लिए ताजे आटे की रोटी होगी!

मेरे लिए आती होगी बासी रोटी.. मतलब बासी आटे की रोटी!!



गीता की ‘आंखों में आंसू आ गए’

कितना ही मां को समझा लो, मां नहीं समझती थी

रवि ने अपनी थाली मां के आगे रख दी

मां ने जैसे ही पहला निवाला, मुंह में डाला कुछ नहीं बोली’ चुप करके खा गई ‘

दूसरी थाली जो ‘मां के लिए आई थी’ उसमें से रवि ने खाना शुरू किया, लगभग यही होता

मां के लिए जो थाली आती वो वही खाता।

रवि के लिए परोसी थाली मां..!!

थोड़ा अबोला चल रहा था

पर ‘मां चुप रहती’

वो कभी मानने को तैयार नहीं होती थी कि उन्हें ताजा खाना मिला है

कई बार तो रवि मजाक मजाक में ‘एक ही थाली में दोनों का खाना डाल देता’

यूं तो मां की भी मजबूरी थी’ पैर जवाब दे गए थे’ ज्यादा चल फिर नहीं सकती थी

और” रसोई में तो कभी भी नहीं झांकती थी”

रात का खाना भी ऐसे ही होता था, एक ही थाली में…

वो, मां के साथ खाता और फिर हंसता .. कहता, मां एक बात बताओ?

एक हफ्ते का आटा भी लगाएं तो क्या खराब हो जाता है?

मां  ‘आंखें दिखाती ‘

और कहती चुप रह.. अभी तुझे दीन दुनिया की समझ नहीं है!

एक दिन उसने मां के हाथ में सुबह-सुबह  चार रोटियां देकर कहा.. चलो उठो !!

गाय को रोटी दे कर आते हैं!

 मां बोली,हट.. ‘मसखरी मत कर’

मुझसे,कहां चला जाता है  वो जिद पर उतर आया था

आज तो आप ही के हाथ से गाय को रोटी जाएगी

वह भी तो खा कर बताएं ‘ताजे आटे की है या बासी की’

जबान मत लड़ाया कर मेरे साथ..  मां ने कहा …

रवि बोला, मैं  आपको,समझा समझा कर हार गया हूं लेकिन आप हो कि समझती नहीं!!

‘ घर में कलेश होता है’

गीता का व्यवहार खराब होता है

और मैं ‘इससे ज्यादा क्या करूं’?

मैंने गीता को कह रखा है रात को जितना आटा बचे उसकी रोटी बना करके रख दें, ताकि सुबह गाय माता को भी कुछ मिले !

मां कुछ नहीं बोली

लेकिन धीरे-धीरे रवि का सहारा लेकर सड़क तक आई और ‘गाय को बड़े आराम से रोटी खिला दी’

अब दोनों ने एक नियम बना लिया।

इस बहाने मां का चलना भी हो जाता और मां को तसल्ली भी हो जाती…

कभी’ दो रोटी दो कभी चार रोटी’

मां को ‘समझाने का तो फायदा था नहीं था’

इसी बहाने सही..

मां थोड़ी शांत हो गई थी और गीता यह सोच रही थी अपनों को सच्चाई बता कर वो बार-बार खुद शर्मिंदा हो रही है

इससे तो अच्छा है वह चुप रहे और मां खुद समझे…

अब चलने लगेंगी तो खुद एक दिन रसोई में आकर भी झांक जाएंगी..

लेखिका अर्चना नाकरा

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