अब अपमान बर्दाश्त नहीं – वीणा

सुमित्रा ने सोंठ के लड्डू, काजू-किशमिश, गाय के दूध से निकाला शुद्ध घी सब अटैची में भर लिया था। बहू की पहली जचगी थी, सुमित्रा और रामनाथ दोनों बहुत खुश थे। बेटा डॉक्टर था, इसलिए चिंता की कौनो बात नहीं थी लेकिन शहर में जाकर पता नहीं तुरन्त घरेलू चीज़ें मिले की नहीं, इसीलिए उसने सब इंतज़ाम यहीं से कर लिया था।

नियत समय पर बहू के लड़का हुआ, सबके चेहरे पर खुशी झलक आई। सुमित्रा ने सोचा चलो सब राज़ी-खुशी हो गया, अब बहू और पोते की देखरेख करनी है बस। वह जी-जान से दोनों की सेवा में लग गयी। महीने भर में ही जच्चा-बच्चा दोनों के चेहरे पर उसकी सेवा की छाप दिखाई देने लगी। धीरे-धीरे उसके जाने का समय आ रहा था। बेटे ने उसके जाने की बात सुन मनुहार कर कहा ”माँ अभी रुक जाओ न कुछ दिन और”, माँ  उसके लाड़ को देख रुक जाने पर राजी हो गयी। रात में सुमित्रा पानी पीने के लिए रसोई में जा रही थी कि बहू की आवाज़ कानों में पड़ी – क्या ज़रूरत थी तुम्हे माँ को रोकने की, अब तो मैं मुन्ने को संभाल सकती हूँ। तभी बेटे की आवाज़ सुन वह अवाक रह गयी – अरे! दो चार महीने और रहती तो तुम एकदम स्वस्थ हो जाती और काम पर जाना शुरू हो जाता तुम्हारा। वैसे भी नौकरानी रखो तो इतने ही काम के लिए 5000 रुपये लेगी और यहां तो सब मुफ़्त में मिल रहा है, बस जाते समय एक सस्ती सी साड़ी पकड़ा देंगे, वह भी खुश और हम भी । कह दोनों हंसने लगे। माँ के प्यार का ये सिला दे रहे हैं दोनों,सोच सुमित्रा अवाक रह गई। सुबह उनके उठने से पहले उसने कागज के एक टुकड़े पर ‘प्यार अनमोल है,इसे 5000 रूपये और सस्ती साड़ी से नहीं तौला जा सकता’ लिख डाइनिंग टेबल पर रखा और अपना सामान बाँध स्टेशन की ओर चल पड़ी।

#अपमान

वीणा

झुमरी तिलैया

झारखंड

 

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