छोटी छोटी कहानियां लिखने वाली मैं एक अदना सी लेखिका हूं। पर आजकल जो भी लिखती हूं, वो ना जाने क्यों सच हो जाता है।
अब तो अपने ही लेखन से डर सा लगने लगा है, कौन सी ऐसी शक्ति है जो जबरदस्ती अपनी मनमर्ज़ी का लिखाने लगती है मुझ से, अभी कुछ देर पहले ही न चाहते हुए भी दो पंक्तियां लिख बैठी हु…..
“आज की रात है भारी,
जाने किसकी है बारी”
डर लगने लगा तो कांपते हाथों से लिखना बंद कर दिया। सर भी भारी होने लगा है अब मेरा। घर भी तो कितना फैला हुआ है, जैसे बहुत समय से सफाई ही नही हुई है, सब काम बाकी है अभी करना। पता नही कोई भी “बाई” मेरे घर काम क्यों नहीं करने आती ।
गार्ड भी तो मेरी बिल्कुल नही सुनता, खैर फिर मैने सोचा की चलो नीचे वाले माले पर अपनी सहेली से ही मिल आती हूं , पर वो भी मुझे अनदेखा कर गई, मेरी बात का भी कोई जवाब नही दे रही। अब कमजोरी महसूस होने लगी है, कुछ खाया पिया नहीं है बहुत समय से, शायद इसीलिए।…. घूमने का विचार भी आ रहा है तो सोचा आज शाम को पार्क जाऊंगी, पर उससे पहले अंधेरे शांत कमरे में आकर चैन से सो गई।
अब शाम गहराने लगी थी। मुझे भी अच्छा लगने लगा, साथ ही भूख और प्यास भी लगने लगी, पर पहले मैने पार्क जाने की सोची और लिफ्ट में इधर उधर देखते हुए नीचे आ गई।
पार्क आकर चक्कर लगाते हुए देखा कोई शराबी नशे में धुत, एक पेड़ के नीचे बेसुध पड़ा है।….अब रात भी गहराने लगी और पार्क भी खाली हो चुका है। रह गए तो सिर्फ “में”और बेसुध सोया हुआ “शराबी”….मेरी भूख और प्यास बढ़ती ही जा रही है।।।।
अगले दिन लोगो ने पार्क में बड़ा ही विचलित करने वाला दृश्य देखा, बिना सर वाले किसी इंसान का बुरी तरह नोचा हुआ शव पड़ा हुआ था, पर हैरानी की बात यह थी की वहा खून का एक कतरा नही था, ऐसे लग रहा था जैसे किसी ने पूरा खून ही निचोड़ डाला हो।
बहुत दिनों के बाद आज मेरी भूख और प्यास बुझी है, सुकून से सोने जा रही हूं अब मैं, क्योंकि कल फिर से अपने भोजन की खोज में निकलना होगा।
अरे डरे नहीं!! में सिर्फ दिखाई नहीं देती, पर लिखती तो बहुत अच्छा हूं।आप लोगो की तरह अन्न, फल और सब्जी नहीं खाती,में तो सिर्फ लोगो का “खून” पीती हू और “मांस” खाती हूं। कोई भी डर के मारे यहां फ्लैट नंबर “1301”में आता ही नहीं है, क्योंकि जो भी आता है , वो फिर कभी वापस नहीं जाता।….. चलो अब बता ही देती हु, मैं एक “अतृप्त आत्मा “हूं।…… अज्ञात लेखिका हूं!!!!!
बरसों से बंद फ्लैट नंबर “1301” में आज भी भटकती हूं। या तो लिखती रहती हूं या जब मन करे तो निकल जाती हूं ढूंढने अपना अगला शिकार!!!!!
इसलिए जरा ध्यान से निकलना रात में, कही तुम से ही ना टकरा जाऊ किसी सुनसान सड़क पर, पार्क में, किसी लिफ्ट में या तुम्हारे ही घर के द्वार पर!!……
“रात हो जायेगी भारी,
कही आ ही ना जाए
अगली बारी तुम्हारी”।।।।
स्वरचित, काल्पनिक रचना
कविता भड़ाना