“माँ ,जल्दी करो ,देर हो जाएगी।”
“हाँ हाँ आ रही हूँ,” बेटे की आवाज़ सुनते ही मेरे हाथ तेज़ी से चलने लगे।पूजा करती हुई मेरी सासु माँ ने भी जाने का इशारा किया और मैं बैग पकड़ती हुई तेज़ी से बरामदा पार करती हुई बाहर पहुंची जहाँ वह कार में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था।जल्दी से दरवाज़ा खोल कर मैं उसके साथ वाली सीट पर बैठ गई।
“माँ ,आप भी ना ,”बनावटी गुस्सा दिखते हुए वह बोला। कुछ देर बाद एक बिल्डिंग के बाहर गाड़ी रोक कर उसने कहा ,”अच्छा माँ ,रिया आपको लेने आएगी।”
मैं मुस्कुराते हुए नीचे उतरी और वह हाथ हिलाते हुए गाड़ी मोड़ने लगा।
मैं , मंजु ,नई दिल्ली में रहने वाली एक मध्यमवर्गी परिवार की बहू। बीस साल पहले जब ब्याही आयी थी तो धीरे धीरे सासू माँ ने घर की सारी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी जिसे मैंने पूरी ईमानदारी से निभाया। दिल से सास ससुर की सेवा की और छोटी ननद को बहन सा प्यार दिया।
कहना ग़लत न होगा कि उनकी तरफ़ से भी पूरा मान सम्मान मिला। धीरे धीरे मैं सबकी ज़रुरत बनती गई। दो प्यारे बच्चों की माँ बनी बेटा अनिकेत और बेटी रिया। मुझसे किसी को कोई शिकायत न हो बस इसी कोशिश में लगी रहती।
सुबह से शाम हो जाती पर मेरा काम न खत्म होता। पति अपने व्यवसाय में इतने व्यस्त रहते कि घर बाहर के अधिकाँश काम मुझे ही करने पड़ते। बच्चों की पैरेंट टीचर मीटिंग ,बैंक जाना ,सास ससुर का ध्यान,बेटी को डांस क्लास और बेटे को फुटबॉल क्लास ले जाना भी मेरे ही कामों में शामिल था।
इसी बीच ननन्द की शादी भी हो गई। नाते रिश्तेदार भी आते रहते। बच्चों की पढाई की जिम्मेदारी भी मेरे हिस्से में थी। कभी बेटे को डिबेट की तैयारी करवानी होती तो कभी बेटी का प्रोजेक्ट पूरा करवाना पड़ता। पति भी बीच बीच में मेरी मदद कर देते।
मेरे इन अथक प्रयासों का परिणाम यह था कि दोनों बच्चे हर कक्षा में बहुत अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होते।
बेटे की बारहवीं कक्षा की तैयारी में तो मैंने अपने आप को पूरा झोंक दिया। ऐसा लगता था जैसे मुझे ही कोई परीक्षा देनी थी और सच कहूँ तो वह मेरी परीक्षा ही थी। उसके सोने -जागने, खाने – पीने की सारी ज़िम्मेदारी मैंने उठा ली थी।
नतीजा यह रहा कि ना वह सिर्फ अच्छे नंबरों में पास हुआ बल्कि उसका दाखिला दिल्ली विश्वविद्यालय के एक बहुत अच्छे कॉलेज में भी हो गया ।
सब कुछ अनवरत चलता रहा. एक दिन मेरे बचपन की सहेली परिवार सहित आई। हम सब बैठकर बचपन की यादें ताजा कर रहे थे
उसी दौरान उसने मेरे बच्चों को बताया कि कैसे मैं बचपन में सुंदर पेंटिंग बनाया करती थी बच्चे यह सुनकर हैरान रह गए कि उनकी माँ कभी पेंटिंग भी कर सकती है ।सहेली तो चली गई पर बच्चों ने मुझे पकड़ लिया और पूछने लगे,
“माँ ,और क्या शौंक हैं आपके ? ”
“अरे, क्या शौंक ? वह तो बस ऐसे ही। ”
“माँ बताइए ना।“ बेटी ने तो जैसे आज मेरे शौंक जानने की ठान ही ली थी ।
“ मुझे कंप्यूटर चलाना सीखने का बहुत मन करता है,” मैंने भी उससे जान छुड़ाते हुए बोला ।
बात आई गई हो गई । कुछ दिनों बाद दोनों भाई बहन मेरे पास आए और बोले, “मां कल सुबह दस बजे तैयार रहना, आपको कल से पेंटिंग क्लास में जाना है ।“
“अरे, अचानक ऐसे कैसे, घर का काम कैसे चलेगा?” मैं हैरान सी बोली ।
“माँ , सब कुछ हो जाएगा । दादा दादी ने भी कहा है कि वह राधा से सारा काम ठीक से करवा लेंगे और राधा भी थोड़ी देर ज्यादा रुक जाया करेगी । कुछ मैं और भाई मदद करेंगे सब हो जाएगा, बस आप तैयार रहना,” बेटी बोली ।
“ और कुछ मदद तो मैं भी कर सकता हूं ,”मेरे पति बोले जो कि काफी देर से हमारी बातें सुन रहे थे।
“हां बहू,इस घर के लिए तूने बहुत त्याग किए हैं..अब हमारी बारी है” मेरे सास ससुर भी इकट्ठे बोले जो मेरे पति के पीछे ही खड़े थे।तय यह हुआ कि अनिकेत कॉलेज आते हुए मुझे छोड़ता जाएगा और आते वक्त में किसी ऑटो रिक्शा से आ जाऊँगी।
एक हफ्ते बाद ही बच्चों ने एक और सरप्राइज दिया, पेंटिंग क्लास के बाद मुझे कंप्यूटर सीखने जाना था।
अब तो हफ्ते में 5 दिन मेरी यही दिनचर्या होती अनिकेत मुझे कॉलेज जाते समय पेंटिंग क्लास छोड़ता और वहाँ से कंप्यूटर क्लास मैं खुद ही चली जाती और कोचिंग से आते समय रिया मुझे अपनी स्कूटी पर बिठा लाती।
मुझे कभी कभी छोटा अनिकेत और छोटी रिया याद आते जिन्हें मैं हाथ पकड़ कर स्कूल की बस तक छोड़ने और लेने जाती थी। ऐसा लगता है जैसे अब वह यह काम कर रहे हैं।
अब सब अच्छा चल रहा है। मेरी बनाई पहली पेंटिंग को मेरे सास ससुर ने अपने कमरे में लगाया है। माँजी घर आये हुए मेहमानों को मेरी सारी पेंटिंग खूब शौंक से दिखाती हैं। जैसे कभी मैं अनिकेत और रिया का काम सबको दिखाती थी।
अनिकेत हर इतवार को मुझसे पूछता है कि मैंने कंप्यूटर की क्लास में क्या सीखा?और अब तो मैं काफ़ी कुछ सीख भी गई हूँ।
मुझे लगता है सब कुछ पहले जैसा ही है ,बस पात्र बदल गए हैं।
स्वरचित
#त्याग
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।