नारायण जी आगरा शहर के एक बहुत बड़े व्यापारी,, सुनीता जी उनकी धर्मपत्नी एक सभ्य, सुशील, आदर्श नारी….
बेटा जो पिता के व्यवसाय में मालिक बनने की इच्छा नहीं रखता बल्कि उसी व्यवसाय से संबंधित एक कंपनी में नौकरी करके अनुभव अर्जित कर रहा है,, बेटी जिसने अभी पढ़ाई पूरी की है और बच्चों के खिलौने का ऑनलाइन बिजनेस करके आत्मनिर्भर बन रही है और इसी शहर में उसी के पसंद के लड़के से उसकी शादी तय हो चुकी है। इस परिवार की सबसे बड़ी और अहम सदस्य “अम्मा जी” व्यवहार की थोड़ी कड़क लेकिन दिल से सभी को बहुत प्यार करती हैं।
नारायण जी___ सुनती हो भाग्यवान,, आज हमारी शादी को पूरे 25 साल हो गए वो बच्चे क्या कहते हैं….. “सिल्वर जुबली”
वैसे तो तुमने मुझसे कभी कोई मांग की नहीं लेकिन आज के खास मौके पर मैं जानना चाहता हूं तुम्हारी कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तो बताओ मुझे,, मैं पूरी कोशिश करूंगा अपने आखिरी समय से पहले अपनी पत्नी की हर ख्वाहिश पूरी कर सकूं।
अजी, कैसी बात करते हो आप…. आज के शुभ दिन पर कोई ऐसे मनहूस शब्द अपने मुंह से निकालता है क्या…?? जाओ मुझे नहीं चाहिए आपसे कुछ भी… सुनीता जी तुनक कर, मुंह फुला कर, घुटने मोड़कर बेड पर बैठ गयीं।
नारायण जी अपनी उसी पुराने अंदाज में सुनीता जी को थोड़ा प्यार से छेड़ते हुए गाना गाने लगे….
“कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है”
सुनीता जी शरमाते हुए मंद मंद मुस्काने लगीं,, नारायण जी ने उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, “सुनीता मैं जानता हूं तुमने जीवन के हर उतार-चढ़ाव में मेरा साथ दिया है, कभी किसी मुश्किल में अकेला नहीं छोड़ा, अम्मा की तीखी जुबान और कटु व्यवहार को भी तुमने बड़ा दिल रख कर हमेशा हंसते मुस्कुराते हुए उनकी सेवा की है।
आज जीवन के इस मोड़ पर जब हमारे दोनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं,, बिटिया की तो जल्दी ही शादी भी हो जाएगी और फिर तुम्हारी भी बहू आ जाएगी,, लेकिन आज तुम सिर्फ मेरी पत्नी हो और मैं तुम्हारा पति…. एक पत्नी कि कोई आशा, कोई इच्छा, कोई ख्वाहिश रही होगी अपने पति से…. बस आज वही जानना चाहता हूं।
नारायण जी के मनुहार प्रेम पूर्ण व्यवहार से सुनीता जी थोड़ा विचलित सी हो गईं…..
“देखिए आप मुझे गलत ना समझिएगा…. मैं अपने जीवन में बहुत खुश हूं। बस एक बात जो हमेशा से दिल को खटकती रही….
“मेरा घर” जब शादी हो कर विदा हुई मां ने कहा, “पति का घर ही तुम्हारा घर होगा और उस पर ही तुम्हारा संपूर्ण अधिकार होगा,,
जब शादी के बाद रसोई या घर की किसी भी चीज में कोई छोटा सा भी बदलाव करना चाहा तो अम्मा जी ने दुत्कार दिया, “बहुरिया यह मेरा घर है और जैसा है वैसा ही रहेगा मेरे घर में अपने नियम कायदे चलाने की कोशिश ना करना.. जब तक मैं जिंदा हूं मेरे ही नियम कायदे चलेंगे।”
मायका मतलब मां का घर….. ससुराल मतलब सास का घर…..
मेरा घर कौन सा है…. कभी जान ही नहीं पाई,, कभी आपसे अपने दिल की बात करने की कोशिश की तो जवाब मिला, ” अरे अम्मा की बात का क्या बुरा मानना…. अम्मा कौन सा हमेशा रोक टोक करती रहेंगी,, कुछ दिन की बात है फिर तो सब तुम्हारी मर्जी से होगा।”
“ईश्वर की कृपा है कि हमारे सर पर अम्मा का साया ऐसे ही बना रहे,, ईश्वर उन्हें बहुत लंबी उम्र दें।”
आपने मुझसे पूछा ना कि “मेरी क्या ख्वाहिश अधूरी रह गई”
मेरी ख्वाहिश “मेरा अपना घर”
नारायण जी बहुत ध्यान से सुनीता जी की हर बात सुन रहे थे,, हैरान थे कि कि जो इतने बड़े बंगले में रहती है,, उसकी ख्वाहिश क्या है “एक छोटा सा अपना घर”….
सुनीता सही कहा तुमने…. मैंने तुम्हें सब कुछ दिया इतने बड़े बंगले की मालकिन कहलाने का अधिकार, रुपया पैसा, गहने जेवर लेकिन फिर भी कमी रह गई….
लेकिन माफ करना…. मैं तुम्हें यह तोहफा नहीं दे सकता!!
कोई बात नहीं जी,, यह तो बस मेरे पागल मन की एक छोटी सी ख्वाइश थी…. आज आपसे कह कर दिल हल्का हो गया…. मुझे कुछ भी नहीं चाहिए,, आप, अम्मा जी बच्चे सब बहुत खुश रहें… यही मेरी ख्वाहिश है।
शाम को एक आलीशान होटल में शादी की 25वीं सालगिरह की पार्टी मनाई जा रही है।
सुनीता जी सभी मेहमानों से बधाइयां और तोहफे लेने में व्यस्त हैं,, न जाने नारायण जी कहां रह गए… फोन पर किसी से बात कर रहे थे, कोई जरूरी मीटिंग निकल आई थी लेकिन अभी तक नहीं आए, केक काटने का समय हो रहा है, सभी इंतजार कर रहे हैं….
अचानक ही सारी लाइट्स ऑफ हो जाती हैं,, सिर्फ सुनीता जी पर लाइट पड़ती है और नारायण जी की आवाज आती है….
“सुनीता आज तुमने मुझे एक बहुत जरूरी और अहम बात समझाई… हम पुरुष अपनी पैतृक संपत्ति को अपनी जायदाद मानकर कभी सोच ही नहीं पाते कि हमारी पत्नियां भी किसी जायदाद की हकदार हैं…. हम तो अपने ही घर में रहते हैं लेकिन एक लड़की जिसका अपना घर उसका मायका बन जाता है और जिस घर में ब्याह कर आती है उसका ससुराल होता है।
आत्मसम्मान के साथ जीवन बिताने का अधिकार तुम को भी है,,,, आज मैं तुम्हें तुम्हारा अपना घर दे रहा हूं,, तुम्हें याद है कुछ साल पहले जब हम मथुरा वृन्दावन गए थे। तुमने इच्छा जताई थी कि काश कुछ दिन यहां पर होटल में नहीं अपने घर की तरह बिता पाती…..
“मैंने वृंदावन में तुम्हारे नाम पर एक छोटा सा घर बुक किया है,, तुम जब चाहे अपने घर में जाकर अपनी मनमर्जी का समय बता सकती हो।”
नारायण जी ने आगे बढ़कर सुनीता जी को एक सुनहरे कागज में लपेटा हुआ गिफ्ट दिया।
सुनीता जी ने खोला तो वह एक सुनहरी चमचमाती हुई घर की नेम प्लेट थी।
“सुनीता का घर”
सुनीता जी की आंखों से खुशी के आंसू बह रहे थे और सिर्फ उनकी ही आंखों से नहीं, उनकी बेटी- बेटा, अम्मा जी और जितने भी रिश्तेदार थे वह सभी इस प्रेम से अभिभूत होकर गदगद हो रहे थे।
प्रत्येक स्त्री की ख्वाहिश होती है “अपना घर”….. मायके में “पराई हो,, एक दिन अपने घर चली जाओगी”
ससुराल में “पराए घर से आई हो, अपने घर जाकर अपने नियम कायदे चलाना”
आधे से ज्यादा जीवन अपना घर खोजने में ही निकल जाता है।
मेरी दिली ख्वाहिश है कि हर किसी स्त्री को मिले उसका “अपना घर”
स्वरचित एवं मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
नीतिका गुप्ता