शपथ ग्रहण के बाद माननीय मंत्री महोदय घर आने पर सीधे अपनीं अठासी वर्षीया माता जी के कमरे में पहुँचे… ”माँ… माँ आपका बेटा आज मंत्री हो गया है… वो भी आपका आशीर्वाद
मिला तो समाज कल्याण विभाग ही मिलेगा…जिसके लिए मैं वर्षों से संघर्ष करता आया हूँ…” कहते हुए उन्होंने बिस्तर पर लेटी माँ के चरण स्पर्श किये…
”वाह बेटा… तू ख़ूब तरक़्क़ी कर.. मैं कहती थी न, तेरे हाथ की लकीरों में चक्रवर्ती राजा बनने के चिन्ह हैं…”
यह कहते हुए माँ ने दोनों हाथों को उठाकर हाथ जोड़े और प्रभु को प्रणाम किया.. बेटे को आशीर्वाद देने हेतु उठने की कोशिश करने लगीं…बेटे ने सहारा देकर माँ को उठाया और पीठ के पीछे तकिया लगाकर बैठा दिया । माँ ने बेटे के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और ढेरों बलैयाँ लीं…
बेटे ने कहा, ”माँ अब आपकी सारी तकलीफ़ें दूर हो जाएँगी… अब आपके पेंशन के पैसे घर खर्च के लिए नहीं निकलेंगे… ”
”बेटा, मेरे पेंशन के पैसों का अब क्या करना..जितने दिन बचे हैं , बस किसी तरह बिता देना है.. वो तो तेरे बाबूजी नहीं रहे, मुझे अनुकम्पा पर शिक्षा विभाग में किरानी की नौकरी मिल गई थी..मेरी नौकरी तो तुम्हारे पिता की ही है..मैने तो कुछ किया नहीं …और वैसे भी तुम इक लौती संतान हो ,मेरे पेंशन पर तो तुम्हारा ही अधिकार है..” माँ ने बेटे को समझाते हुए कहा।
”अच्छा माँ ये सब छोड़िए, तीन दिनों बाद रक्षा बंधन है.. आपने मामा जी को कभी राखी बाँधी नहीं.. मेरी भी कोई बहन नहीं रही , न ही पिंटू को है.. हमारे घर में तो रक्षा बंधन का त्योहार कभी मनाया ही नहीं गया… मैं मामा जी को फ़ोन किए देता हूँ.. वो आ जाएँगे.. और इस बार हमारे घर में राखी मनाई जाएगी..”
कहते हुए मंत्री महोदय माँ के गले लग गए… ‘ठीक है बेटे, तू जैसा कह.. वहीं करुँगी , ख़ुशी का मौक़ा है..’ माँ ने कहा।
”ठीक है माँ , मैं आता हूँ, नीचे कुछ मेहमानों को बैठा रखा है… सब बधाई
देने आ रहे हैं..”मंत्री महोदय ने माँ को कहा।
हाँ बेटे जा देख ले।
ओह… फिर बोतलें, ग्लासों की आवाज़ें आने लगीं… पता नहीं ये लड़का क्यों नहीं समझता… उसके पिता बड़े ओहदे ( ज़िला शिक्षा पदाधिकारी)पर थे.. तो बड़ा सा घर बना दिया.. पर बेटे को चरित्रवान नहीं बना पाए..माँ को कहता कि आपके पेंशन से ही घर चलता है… पेंशन की अल्प राशि से
तो चार लोगों का परिवार नमक रोटी खाकर भी नहीं चल सकता… फिर ये शराब कबाब का तो प्रश्न ही नहीं है… रात में देर सबेर जब आता, तो माँ के पूछने पर कहता, माँ , नेतागीरी ऐसे नहीं होती, समय देना होता है… साम दाम दंड भेद सब करने होते हैं…एक बार तो लकड़ी की चोरी में जेल भी हो गया था.. माँ ने जमानत पर किसी तरह छुड़वाया…
देर रात तक मंत्री महोदय की पार्टी चलती रही…बहूँ ने माँ को कमरे में ही खाना लाकर दे दिया, माँ खाना खा कर सो गईं।दूसरे दिन समाचार पत्रों में छपा… ”माननीय मंत्री महोदय के घर अठासी वर्षों बाद रक्षा बंधन का त्योहार मनाया जाएगा…उनकी अठासी वर्षीया पूजनीया माता जी अपने इकलौते भाई, श्री राम कृष्ण शर्मा जी को राखी बाँधेंगी और एक पावन समारोह आयोजित किया जाएगा..”
माता जी आह्लादित.. ,चलो, बेटे ने माँ की ख़ुशी के लिए कुछ तो किया । रक्षा बंधन का दिन आ गया। आया की सहायता से माता जी सबेरे सबेरे नहा धो कर तैयार हो गईं…’बेटा, राम को फ़ोन कर दिया था न, कितने बजे तक आने को कहा है उसने?’माँ ने बेटे को आवाज़ लगाते हुए पूछा।
‘माँ दस बजे तक गाड़ी भेज दूँगा.. कुछ तैयारी हो जाए…’
‘कुछ तैयारी हो जाए… कैसी तैयारी बेटा?’
‘बस… थोड़ी बैठने की व्यवस्था हो जाए, मीडिया वाले आ जाएँ…’
‘बेटा तैयारी करने की ज़रूरत नहीं थी.. और फिर मीडिया वाले क्या करेंगे?’ये सब माँ के समझ से परे था..फिर भी दबी आवाज़ में उन्होंने बोला..।
माँ को मंत्री महोदय ने स्वयं पकड़ कर सीढ़ियों से उतारा..साथ साथ बहू और दस वर्षीय पोता पिंटू भी उतरे। बैठक कमरे में आते ही माँ कीं आँखें फटी रह गईं… कमरे में दस बारह लोग बैठे थे, दो- तीन कैमरा लिए खड़े थे…छोटे सा मंच भी बनाया गया था… जिसपर पाँच सजीली कुर्सियाँ लगी हुई थीं..एक पर राम कृष्ण जी बैठे थे, चार ख़ाली थे। अपनी दीदी को देखते ही उन्होंने नीचे उतर कर उनका चरण स्पर्श किया, फिर पकड़ कर मंच पर बैठाया। ये सब वीडियो कैमरे में रिकॉर्ड किया गया..कई तस्वीरें उतारीं गईं..माँ कुछ समझ नहीं पा रही थीं.. ये सब क्यों और कहाँ से हो रहा है…तभी मंत्री महोदय ने अपना भाषण प्रारंभ किया…तालियाँ बजती रहीं.. तस्वीरें उतरती रहीं..
अब रक्षा बंधन का कार्यक्रमों प्रारंभ किया जाए, मंत्री महोदय ने पत्नी को इशारा करते हुए कहा।बहू ने माँ को आरती की थाली लाकर दी.. उन्होंने भाई की आरती उतारी, रोली अक्षत लगाया, मिठाई खिलाई और राखी बाँधी। भाई ने अविलंब बग़ल में रखे ट्रॉली बैग को उठाकर दीदी की ओर बढ़ाया..दीदी ने प्रश्न भरी निगाहों से भाई की ओर देखा.. आँखों में ही कुछ बाँते हुईं, फिर शांति छा गई। सभी आगन्तुकों को प्लेट में मिठाई- नमकीन बाँटे गये..। थोड़ी देर में सभा समाप्त हो गई । सभी ऊपर आये, लंच करवा कर मामा जी को उनके घर पहुँचवा दिया गया।
माँ ने बहू को बुलवाकर ट्रॉली बैग खुलवाया.. ‘ज़रा देख तो बहू, राम कृष्ण ने सूटकेस में दिया क्या है?’…बहू ने खोला…पतली सी जरी लगी सिल्क की सफ़ेद चमचमाती साड़ी और एक गोल सा ज़ेवर का लाल डब्बा…’खोल तो बहू उसमें क्या दिया है?’ बहू ने वो भी खोला…’ माँ जी ये देखो…’ बहू ने दिखाया.. दो सोने की चमचमाती चूड़ियाँ… माँ की आँखें फटी की फटी रह गईं.. आख़िर राम कृष्ण इतना लाया कहाँ से? उसके तो अपने घर के ख़र्चे नहीं चल पाते.. फिर वो ये सब क्यों..और कहाँ से किया.. मैं तो ऐसी साड़ी अब पहनती भी नहीं.. कहाँ जाना है हमें ये सब पहन कर?… फिर उसने क्यों किया ये सब? माँ ने तुरंत राम कृष्ण जी को फ़ोन लगाया… ” बबुआ तू ई सब का करलअ ?… तू जाने ल, हम इह कुल साड़ी अब ना पहनी ला..और इह ज़ेवर…?का करब हम एकर?फिर तोहरा ता ख़ुद ही दिक़्क़त बा… फिर काहे के इह कुल करलअ..?” माँ ने कनेक्ट होते इतने सारे प्रश्न एक साथ कर डाले।
”ना दीदी, हम इह कुल ना करनी ह.. बबुआ ( मंत्री महोदय) ख़ुद ही भेजवा दइले रहन.. हम कहाँ से कीनब? चाह के भी हम ना कर सकअ तानी!” रामकृष्ण जी ने जवाब दिया ।
”बबुआ कहाँ से करिहें?…हमार पेंशन के पइसा से का का हो सके ला?”दीदी ने कहा।
”कहलन कि लकड़ी के काम करे लन.. और पहिले के पइसा भी बा…”राम कृष्ण जी ने कहा।
अच्छा… कहते हुए उन्होंने लम्बी उच्छवास ली… सामने देखा तो मंत्री महोदय खड़े सब सुन रहे थे… बिना पूछे वो माँ को सफ़ाई देने लगे… ”माँ, आप क्या समझती हैं,चार लोगों की ज़िम्मेदारी, और इतने लम्बे लम्बे खर्च क्या केवल आपके पेंशन के पैसे से हो सकते थे? चुनाव लड़ना क्या आसान होता है…? मैं लकड़ी का काम नहीं करता.. या आपके पैसों को नहीं छूता, तो क्या ये सब हो सकता था?….अब आप चिंता न करें… केवल आशीर्वाद दें कि हमें समाज कल्याण विभाग ही मिले…बहुत पैसे हैं वहाँ…हम सब मिल के भी पैसे गिन नहीं पाएँगे!” एक साँस में मंत्री महोदय ने मन की बातें कह दी…माँ अपलक बेटे को देखती रहीं…इसे क्या कहें…कृतघ्न, स्वार्थी या मूर्ख? ये रक्षा बंधन है या रक्षा मर्दन!
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रंजना बरियार