भावनात्मक बंधन – कंचन श्रीवास्तव

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उम्र के चौबीस बसंत पार करने के बाद आज जब ब्याह की तैयारी हो रही तो रेखा का मन जहां भावी पति को लेके जहां गुदगुदा रहा वहीं दूसरी तरफ नए परिवेश को लेके चिंतित भी हो रहा ,होना स्वाभाविक भी है  अभी तक जिन लोगों के बीच रही वो दादी- बाबा ,बुआ- फुफा,चाचा -चाची, मां- पापा, भाई -बहन जैसे रिश्तों को महसूस किया।

जैसे जैसे बड़ी होने लगी तो आस पड़ोस और फिर स्कूल , कालेज के साथ साथ सखी सहेलियों के बीच रही ।

अमूमन यही तो सभी की जिंदगी में होते हैं। फिर एक उम्र के बाद जब दूसरी दुनिया में कदम रखते हैं तो वहां पति सास, ननद, भाभी जैसे रिश्तों को जीते हैं।

अब देखा जाए तो यही सबसे करीबी रिश्ते होते हैं।

वहीं आज इसके साथ ही हो रहा।

चारों तरफ ब्याह की धूम है तैयारियां जोरों पे है सब लगे हैं कोई कुछ कर रहा तो कोई कुछ।अब घड़ी रस्मों की आई तो।हंसी ठिठौली के बीच वो भी निभ गई।

इसी बीच वक्त मिला तो मां की गोद में सर रखकर लेट गई।और पूछ बैठी,पूछती भी क्यों न लाजमी भी है डेढ़ महीने बाद स्वतंत्रता दिवस जो है।

कि मां ये बताओ जब तक हम यहां रहे तो तुम लोगों के कठोर शासन अनुशासन में रहे।

जो तुम लोगों ने कहा हम किए ,और अब वहां जा रहे तो उन लोगों  के हिसाब से रहना होगा।

फिर हम आजाद कहां हुए।

स्वतंत्र भारत में रहकर भी हम अपने हिसाब से नहीं जी सकते तो ये कैसी स्वतंत्रता है।

इस पर मां ने बालों में उंगलियां फिराते हुए कहा – बेटा

हम सब स्वतंत्र  ही है इसे गुलामी नहीं कहते गुलामी तो वो है जो अत्याचार से और जबरदस्ती की जाए ये तो

भावनात्मक  बंधन  हैं जो हमें एक दूसरे से बांधे रखता है और संस्कारी बनाता है।

कहती हुई चल उठ बहुत बड़ी बड़ी बातें करने लगी है ,कह गोद से सिर हटा  बोली चल पार्लर जाने की तैयारी कर,

कल बारात है तेरी। और काम करने चली गई,और ये भावी राजकुमार के सपनों में खो गई।

मौलिक और अप्रकाशित

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव

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