वो एक थप्पड़ – सरिता गर्ग ‘सरि’ 

       बरसों बाद अपने इस पुराने शहर लौटा तो मन में अजीब से भाव कोलाहल मचा रहे थे। बस से उतरते ही देखा आसमान में बादल के काले  -सफेद टुकड़े दौड़ लगा रहे थे। ठंडी हवा बेलौस मतवाली नार सी बह रही थी। मैं चाह रहा था

जल्दी घर पहुंच जाऊँ मगर मैने वो रास्ता चुना जो मेरे मन की भावनाओं  को सहलाता हुआ तुम्हारे घर के सामने से गुजरता था। तुम्हारे घर के ठीक आगे मैं ठिठक गया, पैर जम से गए। घर की बन्द खिड़की से देखा ,अंदर अंधेरे की  काली चादर बिछी थी ,

कोई आहट नहीं। घर के बाहर की पीली दीवार पर तुम्हारे नाम की तख्ती आज भी  टँगी थी। मन ने समझाया रिश्ते कांच से नाजुक होते हैं टूट जाऐं तो फिर नहीं जुड़ते। मैं धीरे धीरे  बोझिल कदम बढ़ाता घर की ओर चल दिया। मन का सारा उत्साह कमल पर पानी की बूँद सा उतर गया।

          माँ को अपने आने की खबर पहले ही दे दी थी। घर में घुसते ही माँ ने कलेजे से लगा लिया। मन की उदासी और माँ के नेह से दो बूँद उभरी मगर मन की शुष्क धरा ने उन्हें तुरन्त सोख लिया। खाना तैयार था। माँ ने बहुत प्यार से खिलाया मगर मेरा मन उचाट था।  

              कपास जैसे बादलों को हवा उड़ा कर जाने कौन से देश ले गई थी और चाँद आसमान से उनींदा सा झाँक रहा था। उमस से मन और बेचैन हो उठा।चटाई उठाकर छत पर आ गया। कुछ देर यूँ ही इधर -उधर देखता रहा फिर चटाई बिछाकर छत पर ही लेट गया।

आज खुले में अकेले लेटकर मन की रेशमी उलझनों को सुलझाने और खुद से बातें करने का मन कर रहा था। याद आ गई तुम्हारी वही बात ‘अब हम एक साथ नहीं रह सकते, हमें अलहदा होना होगा’ और  मेरा खंडहर दिल दूर पुरानी यादों में खो गया। मैं एकटक तुम्हें देख रहा था यह सोचते हुए की ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था हमारे बीच जो तुमने इतना बड़ा फैसला ले लिया।



तुम्हें माँ के साथ रहना पसन्द नहीं था और मैं माँ को नहीं छोड़ सकता था । मैं यह भी जानता था ,तुम्हें मेरी कुछ आदतें सख्त नापसंद थीं और तुम बार बार मुझे टोका करती थी पर मैं  भी नादान ,अंजाम से बेखबर वही गलतियाँ दोहराता रहा ।

मैंने तुम्हें कितना समझाया था, क्योंकि तुम्हें प्यार बहुत करता था पर दिखाता नहीं था। पर तुम लगातार अपनी जिद पर अड़ी रहीं अचानक तुम्हारी हठधर्मी पर बहुत गुस्सा आया और एक झन्नाटेदार थप्पड़ तुम्हारे गाल पर निशान छोड़ गया।

चिंगारी बरसती हुई  तुम्हारी लाल आँखों से टपकते आँसू ज्वालामुखी की लपट से मुझे झुलसा गए । मैने हाथ मलते हुए मुँह दूसरी ओर घुमा लिया ,मेरे होंठ चिपक गए , शायद डर और पश्चाताप और आत्मग्लानि से। तुम तुरन्त अटैची उठा घर से निकल गई।

मैं शिला बना खड़ा देखता रहा तुम्हें रोक न पाया। उस रात तुम अपने घर चली गईं जो हमारे घर के पास ही था। अगली सुबह मैं तुम्हें मनाने गया मगर तुम जा चुकी थी। दो साल गुजर गए, मैने तुम्हें बहुत ढूँढा मगर तुम इस दुनिया की भीड़ में जाने कहाँ खो गईं।

            तुम्हें खोने के बाद ग्लानि और प्रायश्चित की अग्नि में जलता मैं सूखे रेगिस्तान में मृग सा ,पपडाए होठों पर तृषा लिए भटकता रहा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने भी अपना तबादला यहाँ से दूर करवा लिया । कई स्थानों पर भटका ,

सोचा था यहाँ आकर शायद कुछ सुकून मिले ,शायद तुम अपने घर लौट आई हों ,पर किसी अभिशप्त दरवेश की भटकन मेरा नसीब बन गई। लगा जीवन उद्देश्य-हीन हो गया है। किसी मरीचिका में भटकते कब नींद आ गई पता नहीं चला।

रात भर उस गफलत में तुम मेरे पास ही थीं। मन की दीवारों पर सजे भित्ती-चित्रों सी हर बार नए स्लोगन के साथ तुम मुझे दिखती रहीं।

   अलसाई भोर ने नन्हा जल-कण मेरे गाल पर टपकाया और मेरी आँख खुल गई। आकाश पर मेरे मन की सारी व्यथा अपने अंदर समेटे घने काले बादल घिरे थे। मैं किसी अनजान ,अंधेरी गुफ़ा से गुजरकर जिंदगी के ठोस धरातल खड़ा अपने पैरों में चुभे काँटे बीन रहा था ,

और सोच रहा था उस एक दहकते अंगारे से थप्पड़ के बदले अगर वो सौ दहकती सलाखों से भी मुझे दागे मैं उसे गले लगा लूंगा। मगर उसने मुझे आत्मग्लानि के दहकते अग्नि-कुंड में झोंक कर प्रतिकार ले लिया था।

सरिता गर्ग ‘सरि’

जयपुर

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