राखी की सही हकदार – आरती झा”आद्या”

दिल्ली से सटा छोटे से गाँव में दो हजार एक की 13 जुलाई  की सुबह बीस साल की स्नेहा अपने कमरे से निकल रेलिंग पकड़े नीचे आँगन में बैठे माता पिता को देख रही थी। दो साल पहले की हो तो बात है, उसके चौबीस साल के उम्र के भाई शिवम ने आर्मी जॉइन किया था और मई के महीने में करगिल युद्ध शुरू हो गया था।

पापा मैंने कहा था ना आप लोग फिक्र मत करना। सब ठीक रहेगा। हम जीत कर ही लौटेंगे। समाचार में तो देखा ही होगा आपने पाकिस्तानी सेना पीछे हट गई। अब मैं भी घर जल्दी ही आऊँगा अपनी कंपनी के साथ युद्ध के मैदान में जाने से पहले की बातों को दुहराते हुए 13 जुलाई, 1999 की संध्या बेला में फोन पर बातें करते हुए शिवम ने अपने पिता से कहा था।

हाँ बेटा..काँपते हाथों से फोन का रिसीवर रखते इतना ही कह सके शिवनाथ सिंह।

क्या हुआ जी.. क्या कह रहा था शिवम। अब तो सब ठीक है ना.. कब आ रहा है वो। हमसे भी बात करा देते।तुम्हारा चेहरा क्यूँ उतर गया है। अपने आँचल में हाथ पोछती माँ सीता देवी पापा का हताश हो उठा मुखारबिंद देख चिंतित हो उठी थी। 

नहीं नहीं.. सब ठीक है। कह रहा था अब युद्ध समाप्त हो गया है। जल्दी ही आएगा। ऐसे माहौल में ज्यादा बातें नहीं कर  सकता ना इसीलिए हाल चाल देकर बात बंद कर दिया उसने। अच्छा तुम चाय बनाओ.. आँगन में यथास्थान रखी खाट पर बैठते हुए शिवनाथ सिंह ने कहा। 

शुक्र है भगवान का.. सीता देवी मन ही मन ढ़ेर सारी मनौती मांगती हुई कहती हैं। 

पता नहीं क्यूँ। मन उद्विग्न सा हो उठा है। जाने ऐसा क्यूँ लगा कि शिवम की आवाज बहुत दूर से आ रही हो। सब ठीक रखना भगवान.. आसमान की ओर देखते हुए शिवनाथ सिंह के हाथ प्रार्थना में खुद ब खुद जुड़ गए। 



बहुत चिंतित लग रहे हो? शिवम ने ऐसा क्या कह दिया है.. सीता अपने पति से पूछती है। 

सोच रहा था युद्ध के समाप्त होते ही जब शिवम आएगा तो उसकी शादी की भी बात कर लेंगे… शिवनाथ सिंह ने पत्नी का मन बहलाने के लिए उसका प्रिय मुद्दा उठाया था। 

हाँ.. हाँ और क्या ।बहू आ जाएगी तो घर में भी रौनक आ जाएगी और सुनो जी कोई कंजूसी नहीं चलेगी। सोना चांदी कपड़े सब बहू की मनमुताबिक ही होगा। एक ही तो बेटा है हमारा .. सीता देवी कहती है। 

ठीक है शिवम की माँ जो इच्छा हो कर लेना पर ये भी मत भूलना कि बेटी के हाथ भी पीले करने होंगे… शिवनाथ सिंह कहते हैं। 

ये भी कोई भूलने वाली बात है। अभी तो स्नेहा की शादी में काफी समय है। अच्छी खेती है हमारी, कारोबार है और अब शिवम भी कमाने लगा है। तुम दोनों मिलकर करना धूमधाम से बेटी की शादी। नौकरी वाला ही करना। गाँव देहात वाला नहीं.. सीता देवी ने फरमान जारी किया।

क्यूँ भाई.. हमारा शिवम भी तो गाँव देहात का ही बच्चा है। क्या कमी है भला उसमें.. शिवनाथ सिंह गाँव देहात सुन तुनक गए थे।

देखो हमारे शिवम की तुलना तो करो मत किसी से। चिराग लेकर ढ़ूँढ़ने पर भी ऐसा बच्चा नहीं मिलेगा कहीं शहर हो या गाँव… सीता देवी ने सीधे शब्दों में पति को चेता दिया।

रेलिंग पकड़े खड़ी स्नेहा के चेहरे पर हल्की सी स्मित की रेखा खींच गई। शिवम हमेशा से माँ का लाडला था, शांत सौम्य माँ के कहे अनुसार चलने वाला। दो साल पहले की सारी बातें चलचित्र की भाँति उसके सामने चल रही थी।

शिवनाथ सिंह के चाय खत्म करते ही पुलिस की सायरन बजाती गाड़ी आ खड़ी हुई।

देखो तो जी किसके घर आई है पुलिस। किसने क्या कांड कर दिया। आजकल के लड़के भी चैन से नहीं रह सकते हैं.. कहकर सीता देवी घर के दरवाजे को जब तक खोलती, उनके द्वार पर ही दस्तक होने लगती है।

लगता है पुलिस से बात करने के लिए तुम्हें बुलाने आया है कोई… कहती सीता देवी द्वार खोलती हैं तो दो तीन वर्दी धारी अपनी कैप हाथ में लिए सिर झुकाए खड़े होते हैं।

जी.. शिवनाथ सिंह.. उनमें से एक कहता है।

जी.. मैं ही हूँ शिवनाथ सिंह.. कहिए.. कहते हुए शिवनाथ सिंह उनके सामने खड़े हो जाते हैं।

शिवम आपका ही बेटा है.. एक और ने पूछा।

जी हमारा ही बेटा है.. क्यूँ क्या हुआ.. सीता देवी आशंका से काँप उठती हैं।

नहीं नहीं.. अभी तो बात हुई थी उससे.. खुद को तसल्ली देती हुई सोचती हैं।



जी अभी थोड़ी देर पहले खबर मिली है कि एक घुसपैठ में वो शहीद हो गए हैं.. एक ने हकलाते हुए कहा।

वो दिन है और आज का दिन है। पापा उस दिन ही कितने अशक्त और बूढ़े हो गए और माँ तो सब कुछ करती हुई भी जाने किस दुनिया में रहती है। कभी कभी तो लगता है जैसे किसी को पहचानती भी नहीं है। ना किसी से बोलना ना दोनों का कहीं जाना।

क्या मिलता है इस लड़ाई झगड़े से। घर के घर उज़र जाते हैं। अनुदान से जिंदगी तो चल जाती है पर इन बुढ़ी आँखों को खुशियाँ कौन देगा। यहाँ या वहाँ के आम आदमी ही तो मारे जाते हैं। एक के जाने के बाद पूरे परिवार की मौत हो जाती है, घर के अंदर की स्थिति तो कोई नहीं देखता है।

पता नहीं कब समझेंगे लोग। हमारा भी तो खेती बारी कारोबार सब खत्म हो गया। कैसे बात करूँ पापा से कि दिल्ली में स्टेनोग्राफर की नौकरी के लिए मैंने आवेदन किया था, इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है। ये तो अच्छा है कि कल डाकिया चाचा से दरवाजे पर मेरी ही मुलाकात हो गई। जो भी हो कहना तो है ही। कुछ पैसे हाथ में होंगे तो माँ का इलाज करा सकूँगी.. सोचती हुई स्नेहा सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी।

पापा वो.. मुझे कुछ बात करनी थी आपसे.. स्नेहा शिवनाथ सिंह के बगल में बैठती हुई उनका हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाती हुई कहती है।

शिवनाथ सिंह सूनी सूनी आँखों से बेटी की तरफ देखने लगते हैं।

पापा मैंने दिल्ली में नौकरी के लिए आवेदन किया था। परसों इंटरव्यू के लिए जाना है। अगर आप उचित समझे तो मैं जाना चाहती हूँ।चाचा के पास रुक जाऊँगी.. स्नेहा अपने पापा की सूनी आँखों में सवाल पढ़कर कहती है।

ठीक है बेटा हो आना.. शिवनाथ सिंह काँपते हाथों से स्नेहा के सिर पर हाथ रखते हुए कहते हैं।

डॉ ये थी सारी कहानी। समझ ही नहीं आता है कि माँ कैसे स्वस्थ होंगी। उनके मुख से स्नेहा सुनने के लिए मेरे कान तरस गए हैं। अगर कभी कहती भी हैं तो शिवम कहती हैं और मेरी आवाज सुनते ही जार जार रोती हैं। कब स्वस्थ होंगी मेरी माँ.. स्नेहा मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉ अस्थाना के समक्ष बैठी सारी बातें बताते बताते भावुक हो उठी।

उन्हें बेटे के खोने का सदमा लगा है। थोड़ा समय लगेगा लेकिन ठीक हो जाएंगी। अब आप उन्हें अंदर ले आइए.. डॉ अस्थाना ने स्नेहा से कहा।

स्नेहा नौकरी मिलते ही दिल्ली में एक कोठरी की व्यवस्था कर शिवनाथ सिंह और सीता देवी को काफी मान मानोव्वल के बाद दिल्ली लाने में सफल हो सकी और अब वो माँ के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी।



आज 12 अगस्त, 2003 की सुबह की बेला, रक्षाबंधन का दिन स्नेहा कमरे से निकल रेलिंग पकड़े आँगन में बैठे अपने पापा और माँ को साथ साथ राखी की थाली सजाते देख चिंतित हो उठी थी। माँ और पापा राखी की थाली क्यूँ सजा रहे हैं। डॉक्टर के अनुसार तो शिवम अब हमारे बीच नहीं है..माँ ये सच्चाई स्वीकार कर चुकी हैं। भले ही माँ ने अभी तक मुझे मेरे नाम से ना पुकारा हो पर शिवम भी तो नहीं कहती हैं। डॉक्टर को कोई गलतफहमी तो नहीं हो गई है और पापा इतने खुश होकर उनका साथ कैसे दे रहे हैं.. स्नेहा बुदबुदाती हुई सीढ़ियां उतरने लगी। 

पापा माँ आप ये… स्नेहा अपनी बात पूरी करती उससे पहले ही शिवनाथ सिंह अपनी बिटिया को कंधे से पकड़ उसी खाट पर बिठा देते हैं। तब तक सीता देवी भी राखी की थाल लेकर आ गई। 

हाथ आगे कर.. पापा की बात पर अचंभित सी स्नेहा ने हाथ आगे कर दिया। 

स्नेहा के हाथ आगे करते ही माँ ने उसके हाथ पर राखी बाँध तिलक कर दिया। 

स्नेहा मेरी बिटिया कह उसे गले लगा लिया। स्नेहा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन बिना कुछ बोले अश्रुधारा बहाती माँ के कलेजे से लगी वो अपने कलेजे में पड़ रही ठंडक को महसूस कर रही थी।

धन्य हो गया मैं… बेटे ने बिना डर के मातृभूमि के लिए अपनी कुर्बानी दे दी और बिटिया अकेलेपन से लड़ती बिना डर के जिंदगी से लोहा लेती हमारी जिंदगी भी लौटा लाई। रक्षाबंधन के दिन राखी की सही हकदार है तू… शिवनाथ सिंह स्नेहा के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख गौरवांवित होते हुए अश्रु से अवरुद्ध होते स्वर में कहते हैं।

 

आरती झा”आद्या”

(स्वरचित व मौलिक)

दिल्ली

 

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