कैसा खूबसूरत था वह दिन जब धरती का चाँद अपनी धड़कनें समेटे मेरे आँगन में उतरा था , मगर मेरा दुर्भाग्य मुझसे दस कदम आगे चल रहा था। मैं नहीं जानता था सुख के मुट्ठी भर पल ही मेरे हिस्से में आने हैं।
तुम मुझे छोड़ कर चली गईं। लाल साड़ी में लिपटा तुम्हारा निष्प्राण तन ठंडी जमीन पर पड़ा था। घर की कुछ औरतों ने मिलकर तुम्हें दुल्हन-सा सजा दिया था। तुम सुहागन गई थी इसलिए तुम्हारा श्रृंगार किया गया। माथे पर लाल बिंदी, मांग में सिंदूर और हाथों में लाल, हरी चूड़ियाँ पहने ,लगता था गहरी नींद सो रही हो। तुम्हारा गोरा रंग और भी ज्यादा सफेद लग रहा था।
मैं एकटक तुम्हें देख रहा था। हृदय में दर्द और आँखों में आँसू जम गए थे। लग रहा था तुम अभी उठ कर गले लग जाओगी और कहोगी, यह सब मजाक था। तभी किसी ने मुझे तन्त्रा से जगाया,धीरज धरो भाई और कांधा दो। मैं यन्त्रचालित -सा नीचे झुका और तुम्हारे निर्जीव तन को अपने एक काँधे का सहारा दे बढ़ चला उस पथ पर, जहाँ से तुम्हारी वापसी असम्भव थी।
ठंडे हाथ -पैरों और भीगी हथेलियों से मैंने तुम्हें चिता पर लिटाया। मैंने आखिरी बार तुम्हें देखा और लड़खड़ा गया। मुझे कौन,कब घर लाया, मैं नहीं जानता। अगली सुबह जब नींद खुली तो उठकर सारे घर का चक्कर लगाया। तुम कहीं न दिखी तो सब्र का बांध टूट गया और मैं जोर से तुम्हारा नाम लेकर रो पड़ा। उसके बाद किसी ने भी एक पल के लिए भी मुझे अकेला नहीं छोड़ा।
दिन गुजरते रहे,तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार और परिवार वाले मुझे समझा -बुझा कर चले गए। आज घर में सन्नाटा है। कल से ऑफिस जाना होगा। दिल में कितना भी दुख हो,जीने के लिए कुछ खाना भी पड़ता है। इस जिद्दी पेट में सुबह का बचा कुछ डालकर मैंने सोने का उपक्रम किया। तरह – तरह के ख्याल मुझे सोने नहीं दे रहे थे। सामने की दीवार एकटक देखते , नींद ने पलकों के दरवाजे बंद करने शुरू किए और मैं बत्ती बुझाकर बिस्तर पर सीधा लेट गया। अचानक रात के दो बजे मेरी नींद खुल गई। ऐसा लगा तुमने मुझे जगाया। मेरी बगल का बिस्तर खाली और ठंडा था और मैं पसीने से लथपथ था। मैंने बत्ती जलाई,तुम कहीं नहीं थी। मैं फिर सो नहीं पाया और सुबह ऑफिस भी नहीं जा सका।
सुबह अखबार के साथ तुम्हारा चाय का कप पकड़ाना , बढ़िया -सा नाश्ता बनाना सब याद आया। घर में तुम्हारी गन्ध बसी हुई है । मुझे लगता है तुम मेरे आसपास हो। कभी बिस्तर की सिलवटों में दिखती हो, कभी अलमारी के पास खड़ी मेरे कपड़े निकाल रही हो, कभी रस्सी पर गीले कपड़े सुखाती दिखती हो, कभी दीवार पर टँगी अपनी तस्वीर से मुझे
मुस्कुरा कर देख रही हो। अगर तुम हो तो सामने क्यों नहीं आती। मेरा व्याकुल मन तुम्हें पुकार रहा है। मैं किसी चमत्कार की आशा में दरवाजे के पास कुर्सी डालकर आँखें बन्द कर तुम्हें महसूस करता हुआ चेतना- विहीन सा बैठा हूँ । तभी अमलतास के पेड़ से होता हुआ ठंडी हवा में घुला सुगन्ध का झोंका मुझे सहला कर गुजर गया।
सरिता गर्ग