सिमरन जनवरी की कड़कती सुबह में रजाई के भीतर बैड पर लेटी हुई थी । उसका दिल व् दिमाग दोनों सुलग रहे थे । रात भर वह इसी तरह उलझनों के चक्रव्यूह में चक्कर लगाती रही थी। आज न उसका ऑफिस जाने का प्रोग्राम था और न ही पतिदेव हर्ष के लिए चाय बनाने का । इंतज़ार था उसे हर्ष के जागने का। हर्ष की नींद टूटी तो उसकी नज़र सामने दीवार पर लगी घड़ी पर गयी।
अनायास ही ऊंघते हुए उसके मुंह से निकला- ‘ ओह नो साढ़े नौ ……सिमरन ..”ये कहकर नज़र दौड़ाई तो पाया सिमरन बराबर में ही बैड पर रजाई से मुंह ढंके लेती हुई थी। हर्ष ने सिमरन के सिर की ओर से रजाई हटाने का प्रयास करते हुए कहा -” अरे अब तक सो रही हो ….तबियत तो ठीक है ? …..कही कल रात के झगड़े के कारण तो नहीं ?….
तुम भी ना हर बात पर मुंह फुलाकर पड़ जाती हो। ” सिमरन ने कोई जवाब न देकर करवट लेकर मुंह दूसरी ओर कर लिया। हर्ष बैड से उतरा और सिमरन को मनाने के लिए बैड की दूसरी साइड पहुँच गया। सिमरन ने तेजी से रजाई को एक ओर किया और उठकर बैठते हुए बहुत आक्रोश के साथ बोली -” हर्ष अब ये सब रहने दो ….दो साल हो गए हमारी लव -मैरिज को पर तुम्हें हर वक्त बस यही चिंता रहती है कि तुम्हारी पत्नी का किसी और मर्द से कोई अफेयर तो नहीं चल रहा।
तुम्हारे शक्की स्वभाव के कारण ऑफिस के पुरुष -सहकर्मियों से , सोशल-मीडिया से , व्हाट्सएप्प से सबसे दूरी बना ली है मैंने और तुम हो कि कोई न कोई कारण निकल ही लेते हो शक करने का। बस करो हर्ष !!! मुझे लगता है कि इन झगड़ों का कोई अंत नहीं होने वाला।
मैं इसी निर्णय पर पहुंची हूँ कि हमें अलग हो जाना चाहिए। ” सिमरन की इस बात पर हर्ष बौखलाता हुआ बोला -” अलग हो जाना चाहिए …नॉनसेंस …मैं सॉरी बोल देता हूँ और क्या ! अरे भई पति हूँ तुम्हारा …कुछ पूछ लेता हूँ तो क्या गुनाह कर देता हूँ ?
रात को ग्यारह बजे तुम्हारे पास किसी का फोन आएगा तो पूछकर क्या गलत कर दिया …. बताओ जरा तुम …इस पर इतना गुस्सा करने की क्या बात थी कि तुमने जवाब न देकर फोन ही पटक डाला। सीधे-सीधे बता देती कि तुम्हारे पिता जी का फोन है ..शक नहीं कर रहा था पर पूछने का हक़ तो है मेरा….नहीं है क्या ?” हर्ष के यह कहते ही सिमरन बिफरते हुए बोली -” हक़ …..सारे हक़ तुम्हारे ही हैं। शक नहीं करते ….जब भी किचन में होती हूँ मेरा फोन उठाकर हिस्ट्री खंगालने लगते हो …..दूधवाले से इतनी देर तक क्या बात हो रही थी ?
पडोसी श्रीवास्तव जी तुमसे क्या पूछ रहे थे ? क्या समझते हो मुझे ….बस यही काम रह गया है मुझे। ..एक बार प्यार करने की …लव-मैरिज करने की सजा भुगत रही हूँ …..अरे जब विश्वास ही नहीं है तब पति-पत्नी का टैग चिपटाये फिरने से क्या फ़ायदा !!!!
तुम और पतियों की तुलना में पत्नी को एक चीज़ न समझकर एक इंसान का दर्ज़ा दोगे यही सोचकर लव-मैरिज की थी पर विवाह के बाद से तुम्हारा रुख ही पलट गया। मर्द सिर्फ मर्द ही होता है धीरे-धीरे समझ पायी हूँ। खैर इस दो साल के इस जबरदस्ती के बंधन को तोड़ ही डालना ठीक रहेगा क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी मर्द की नहीं केवल और केवल इस औरत की ही गलती है ….हाँ ….वो मेरी ही गलती थी ! ”
– डॉ शिखा कौशिक ‘नूतन’