24 कैरेट – अंजु पी केशव

 “सुनो आज तो मुझे रोज चाहिए ही चाहिए।” उखड़ गई नेहा और नीरज की शामत आ गई। सोलह सालों में जिसनें कभी खुद से कोई तोहफा न दिया, उसके लिए क्या रोज डे और क्या प्रपोज डे…. लेकिन इस बार तो मांँग कर लूँगी। यही सोच कर पीछे पड़ गई नीरज के।

  “मेरे लिए क्या सौ-दो सौ रुपये फालतू के खर्च नहीं कर सकते”, वह रुआँसी हो रही थी।

  “एक-एक पैसे की वैल्यू होती है हम मिडिल क्लास वालों के लिए… और तुम…. “, बात अधूरी छोड़ कर चुप हो गया नीरज।

 ” मैं कुछ नहीं जानती.. मुझे तो इस बार रोज चाहिए। मैं भी आज देखूँगी कि तुम्हारी जिंदगी में मेरी क्या अहमियत है।” बात खतम करते-करते नेहा नें नीरज को टिफिन पकड़ा दिया।

” यार! इतना प्रेशर मत डाला करो मेरे उपर। मैं तो यूँ ही….” नीरज नें बाइक स्टार्ट करते हुए कुछ कहा तो नेहा नें बात बीच में काट दी और आवाज में जरा बल दे कर कहा,” रोऽऽज”

 बात जहाँ हुई थी वहीं खत्म हो गई और नेहा रोज के कामों में लग गई। बरसों से जानती है नीरज को। उसे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। न उसकी इगो हर्ट होती है। न कोई कांप्लेक्स जगता है। जानती है नेहा कि एक-एक रुपया दाँत से पकड़ने वाला नीरज एक रोज के लिए सैकड़ों रुपये कभी खर्च नहीं करेगा।

हाँ अगर खाने-पीने या दूसरी कोई मतलब की फरमाइश हो तो वो नहीं टालता।रोमांस की एक लकीर तक उसे कहीं से छू कर नहीं गई है। उसे  स्वीट वाले डायलॉग्स भी नहीं आते और कभी जुबान पर कोई बुरी बात भी नहीं आती।

काम करती हुई नेहा लगातार नीरज के बारे में सोचे जा रही थी। शादी की पहली रात पर रेड रोज दिया था नीरज नें। तब मालूम नहीं था कि ये पहला और आखिरी रोज होगा। खैर नेहा का दिन भी  रोजमर्रा के काम निबटाने में गुजर गया

और वो अपनी ही कही बात भूल गई।शाम को नीरज वापस आया और नेहा के हैरत की हद न रही जब उसने बैग से निकाल कर एक ताजा-ताजा रोज उसकी तरफ बड़ी अदा से बढ़ाया। ये अलग बात थी कि रोज रेड नहीं था।

सफेद और गुलाबी रंग के धूपछाही रंग का एक फ्रेश रोज था। नेहा और उसकी चौदह साल की बेटी दोनों की आँखें फटी रह गईं नीरज के हाथ में रोज देख कर। नेहा को तो लगा जैसे हवाओं में उड़ रही है। काफी देर तक रोज को निहारती रही फिर उसे बालों में लगाने की कोशिश की लेकिन बड़ी सी डंडी बालों में अटक रही थी और वो अभी रोज को कोई नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती थी इसलिए टेबल पर गुलदान में रख दिया।


 रात को खाना खाते वक्त बेटी नें पूछा, “सच बताना पापा! फूटपाथ से खरीदा न रोज? शाॅप के रोज तो ऐसे नहीं होते। रैप किये होते हैं और स्टाइलिश लुक देते हैं।”

 बेटी का सवाल सुन नेहा नें नी भी झटके से नीरज की ओर देखा। दोनों की नजरें मिली और नीरज मुस्कराने लगा।

   “बोलिए ना पापा! रास्ते से खरीदा है न”, बेटी उतावली हो रही थी।

   “नहीं, रास्ते का नहीं है।” नीरज नें जोर देकर कहा।

   “अच्छा तो कितने का है बताइए?” बेटी नें अगला सवाल दागा। पापा मम्मी के लिए रोज लाये, ये बात उसे भी गुदगुदा रही थी।

    “न फूटपाथ का है न शाॅप का है…. बल्कि पसीना बहा कर लाया हूँ इसे।” नीरज नें अदाकारी करते हुए कहा।

” मतलब…? ” माँ-बेटी दोनों के मुँह से एक साथ निकला।

  ” मतलब ऑफिस से निकलते समय बाहर क्यारी में दिखा ये।” नीरज नें कहा तो दोनों के हाथ खाते-खाते रुक गये और आँखें चौड़ी हो गई।

  “ऐसे क्या देख रही हो तुम दोनों?” नीरज नें बारी-बारी से दोनों को देखते हुए कहा, ” चारों ओर देख कर… कितनी सावधानी से…. सबकी नजरें बचा कर तोड़ा मैने इसे। बहाया पसीना कि नहीं?”

   नीरज की बात सुन कर नेहा नें अपना सर पीट लिया और बेटी के मुँह से तो जो हँसी का फव्वारा छूटा कि मुँह का सारा निवाला टेबल पर बिखर गया।

  किचन समेटती हुई नेहा की सोच फिर से रफ्तार पर थी। उत्तर और दक्षिण की तरह मिजाज है दोनों का फिर भी उनके अंडरस्टेंडिंग की मिसाल दी जाती है। नहीं है उसका पति दूसरे पतियों जैसा। मजनुओं वाले चोंचले नहीं हैं

उसके स्वभाव में। कभी-कभी नेहा को बहुत बुरा भी लगता है और दिल भी दुखता है उसका। वो कहते हैं न कि…. ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता……’ लेकिन उसके सम्मान के खिलाफ एक शब्द न तो कभी खुद के मुँह से निकले न किसी और के ,

इसका खयाल बखूबी रखता है वह। ऐसा ही है उसका नीरज। सीधा, सच्चा…… । थोड़ा अनगढ़ है लेकिन एकदम खरा। बिना मिलावट का….. 24 कैरेट।

@अना

 

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