सिया की आँखों में आँसू नहीं थे, बस खामोशी थी। वही सिया, जो कभी हँसी से घर भर देती थी, आज चुपचाप रसोई की खिड़की से बाहर झाँक रही थी। शादी को पाँच साल हुए थे, पर खुशियाँ जैसे किसी पुराने एलबम में कैद हो गई थीं। पति रवि दिन-रात ऑफिस और दोस्तों में व्यस्त, और सिया की बातों को “ड्रामा” कहकर हँसी में उड़ा देता।
सिया ने कभी किसी से शिकायत नहीं की। मायके वालों से भी नहीं—क्योंकि वो जानती थी, “सब ठीक है” कह देना ज़्यादा आसान है, बजाय सच बताने के। रोज़ वो अपनी भावनाएँ दबाकर मुस्कुराने की कोशिश करती, पर भीतर कहीं वो टूट चुकी थी।
एक शाम रवि ने कहा, “तुम्हें समझ नहीं आता, मैं कितना थक जाता हूँ। अब तुम्हारे ताने मत दो।”
सिया बस मुस्कुरा दी। वही मुस्कान, जो अब आदत बन चुकी थी—दर्द छिपाने की आदत। उस रात उसने चाय बनाई, और सामने रखी। रवि फोन पर बिज़ी था, उसने नज़र तक नहीं उठाई।
सिया ने धीरे से कहा, “रवि, अगर मैं न रहूँ तो तुम्हें फर्क पड़ेगा?”
रवि ने हँसकर कहा, “ड्रामा मत करो सिया, टीवी सीरियल देखो जाकर।”
बस इतना ही। सिया के भीतर कुछ टूट गया।
वो कमरे में गई, आईने में खुद को देखा—थकी, उदास, पर अब भी ज़िंदा। उसी पल उसने फ़ैसला किया कि अब वो “ज़हर का घूंट” नहीं पिएगी।
न वो ज़हर जो बोतल में होता है, बल्कि वो ज़हर जो रोज़ रिश्तों की बेरुख़ी से आत्मा में उतरता है।
अगली सुबह, रवि ने देखा सिया बैग लेकर दरवाज़े पर खड़ी थी।
“कहाँ जा रही हो?”
सिया ने शांत स्वर में कहा—“अपने हिस्से की ज़िंदगी ढूँढने। अब और ज़हर नहीं पीना।”
वो चली गई। किसी होटल में नौकरी मिली, फिर अपनी पहचान।
धीरे-धीरे उसने खुद को सँभाला, अपनी मुस्कान वापस पाई।
कभी-कभी रात में वो सोचती है, “अगर उस दिन मैंने हार मानी होती, तो शायद सच में मर जाती।”
सिया ने दुनिया को नहीं, खुद को जीता।
आज उसकी कहानी हर उस औरत के दिल में गूँजती है, जो चुपचाप रिश्तों का ज़हर पीती है — और जीने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
ज़हर सिर्फ़ बोतल में नहीं होता — कभी-कभी वो शब्दों, चुप्पियों और उपेक्षा के रूप में रोज़ पिलाया जाता है। उसे पहचानो… और खुद को आज़ाद करो
सुदर्शन सचदेवा ।