जहर का घूंट पीना – मीनाक्षी गुप्ता

 एक बड़े से शहर के बीच में कहीं एक छोटा-सा घर था। इस घर में राधा अपने पति रमेश और तीन मासूम संतानों— गीता (9), कोमल (7) और अमन (5)— के साथ रहती थी। एक समय था जब यह लोअर-मिडिल क्लास परिवार सुख-शांति से भरा था। रमेश एक कंपनी में काम करता था, पर उसकी नौकरी चली गई। महीनों की बेरोज़गारी के बाद मिली कम सैलरी वाली नौकरी और वहाँ की गलत संगत की वजह से उसे शराब पीने की बुरी लत लग गई। रमेश अपनी नौकरी और कमाई दोनों शराब में उड़ाता और रोज़ देर रात घर आकर बिना कारण कलह करता।

घर का चूल्हा अब ठण्डा पड़ने लगा था। रमेश ने घर खर्च के लिए पैसे देना लगभग बंद कर दिया था। कभी मन में आता तो थोड़ा-बहुत पैसे दे देता, नहीं तो सब अपने ऊपर खर्च कर दिया करता था। घर में कभी खाना बनता था कभी नहीं। राधा पढ़ी-लिखी नहीं थी, उसे कोई हुनर भी नहीं आता था, फिर भी बच्चों को भूख से तड़पता देखना उसे हर पल दुखी कर रहा था। रमेश से राशन या किसी भी ज़रूरत के लिए पैसे माँगने पर, वह भड़क उठता और कहता, “अपना और अपने बच्चों का ख़र्चा ख़ुद उठाओ!” कई बार तो वह गुस्से में आकर राधा के ऊपर हाथ भी उठा दिया करता था।

राधा के मायके वाले बहुत दूर एक गाँव में रहते थे। वे स्वयं खेती-मजदूरी करके मुश्किल से गुज़ारा करते थे। अब वे अपने बेटों और बहुओं पर आश्रित थे। राधा अच्छी तरह जानती थी कि अगर उसने अपनी परेशानियों के बारे में अपने माता-पिता को बताया, तो वे आर्थिक मदद तो कर नहीं पाएँगे, बल्कि उसके भाई और भाभियों को उसकी गरीबी और शहर में आकर बसने की बात बिल्कुल पसंद नहीं आएगी। वह अपने माता-पिता को पारिवारिक कलह और सामाजिक अपमान से बचाना चाहती थी, क्योंकि गाँव में सबका यही मानना था कि बेटी मायके से डोली में बैठकर विदा होती है और ससुराल से उसकी अर्थी उठती है। और राधा के परिवार में भी सब लोग यही बात मानते थे।

इसलिए, उसने अपने माता-पिता से झूठ बोला कि सब ठीक है। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह यह लड़ाई अकेले ही लड़ेगी, और जब तक वह स्वयं सफल नहीं हो जाती, तब तक अपने मायके वालों को कुछ भी नहीं बताएगी।

बच्चों की भूख और रमेश के अत्याचार जब बर्दाश्त के बाहर हो गए, तो राधा ने मजबूरी में काम करने का निश्चय किया, लेकिन राधा के पास कोई खास हुनर नहीं था। इसलिए वह परेशान थी कि क्या करना चाहिए, तभी उसकी पड़ोसन ने बताया कि पास ही एक अम्मा जी के घर में कामवाली की सख़्त ज़रूरत है।

यह सुनकर राधा को गहरा आघात लगा, उसका स्वाभिमान बुरी तरह आहत हुआ। मगर, बच्चों की आँखों की भूख, पति का अत्याचार और भविष्य की चिंता के आगे स्वाभिमान छोटा पड़ गया। भारी मन से, राधा ने अम्मा जी के घर का काम स्वीकार कर लिया। उसने अपने दर्द और अपमान का पहला ‘ज़हर का घूँट’ पी लिया था।

राधा ने तुरंत अम्मा जी के घर के साथ-साथ दो-तीन और घरों में काम शुरू कर दिया। उसका दिन सूरज उगने से पहले शुरू होता और रात को ख़त्म होता। उसकी बड़ी बेटी, गीता, सिर्फ 10 वर्ष की उम्र में ही समझदार बन चुकी थी। तीनों बच्चे अपनी माँ के संघर्ष को देखकर समय से पहले समझदार हो चुके थे।

जब रमेश को राधा के कामवाली बनने का पता चला, तो उसे बहुत ज़्यादा गुस्सा आया। उसने राधा से लड़ाई-झगड़ा किया, यहाँ तक कि मारपीट भी की, लेकिन राधा ने काम करना नहीं छोड़ा। राधा ने अब रमेश से पैसे माँगना और बात करना लगभग बंद कर दिया था। राधा ने जब काम करना शुरू किया, तो उसे जो पैसे मिलते थे, उनसे वह घर का राशन लाने लगी और अपने बच्चों की छोटी-मोटी ज़रूरतें पूरी करने लगी। शुरुआत में राधा के काम करने का जितना बुरा रमेश को लगा था, वह जल्द ही लालच में बदल गया। वह अपनी कमाई उड़ाने के बाद राधा से पैसे माँगता, और मना करने पर मारपीट करता। राधा ने बच्चों को रोज़ के झगड़े से बचाने के लिए, अपनी कमाई के कुछ पैसे छुपाकर अलग रखना शुरू कर दिया।

जब भी रमेश पैसे माँगता, तो वह बिना किसी बहस के, चुपचाप थोड़े पैसे उसे दे दिया करती थी। यह चुपचाप पैसे देना, यह विरोध न करना, यह मौन स्वीकृति ही राधा के लिए रोज़ ज़हर का घूंट पीने के बराबर था।

राधा की मौन उपेक्षा ने धीरे-धीरे रमेश पर असर करना शुरू कर दिया। रमेश अब जब भी घर पर आता, तो उसे घर में झगड़े की कोई वजह नहीं मिलती थी। राधा और तीनों बच्चे उससे कोई बात नहीं करते थे। घर में एक अजीब सी चुप्पी पसर गई थी, जो रमेश के भीतर के शराबी मन को खाने लगी। रमेश को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे अपने व्यवहार पर पछतावा भी था और बच्चों और राधा का उससे दूर जाना वह बर्दाश्त भी नहीं कर पा रहा था। अपने परिवार वालों का मौन उसे चुभने लगा था। वह जानता था कि वह मूल रूप से बुरा नहीं था, बल्कि परिस्थितियों का शिकार था।

कुछ महीनों के आंतरिक संघर्ष के बाद, उसने एक शाम चुपचाप राधा को एक पर्ची थमाई और नशा मुक्ति केंद्र जाने का फैसला किया। यह कदम सहज नहीं था, बल्कि उसके भीतर के आत्म-सम्मान की अंतिम चिंगारी थी।

कुछ महीनों बाद जब वह वापस लौटा, तो वह शांत था और उसने अपनी लत पर काबू पा लिया था। उसने राधा को अपनी तनख्वाह में से पैसे भी देने शुरू कर दिए। लेकिन, राधा अभी भी सिर्फ़ ज़रूरी ही बात करती थी, और बच्चे उससे थोड़ी दूरी बनाए रखते थे। रमेश अब सुधरने की कोशिश कर रहा था, लेकिन टूटा हुआ विश्वास इतनी आसानी से नहीं जुड़ता।

समय बीता, और राधा की मेहनत रंग लाई। गीता और कोमल अब युवा हो चुकी थीं। राधा की मेहनत से उन्होंने 12वीं तक पढ़ाई पूरी कर ली थी, पर आगे की उच्च शिक्षा के लिए पैसे नहीं थे और मोहल्ले का माहौल भी अनुकूल नहीं था, और आगे पढ़ने में दोनों बहनों की रुचि भी थोड़ी कम थी। गीता ने सिलाई में, और कोमल ने ब्यूटी पार्लर के काम में हुनर सीखा और आत्मनिर्भर बनने लगी थीं।

राधा के पास उनकी शादी के लिए पैसे नहीं थे, और वह कर्ज़ नहीं लेना चाहती थी। अम्मा जी की बहू की संस्था ने, दहेज़ और कर्ज़ से बचने के लिए, दोनों बेटियों का सामूहिक विवाह करवाया।

जब राधा ने बेटियों के सामूहिक विवाह की खबर गाँव में अपने माता-पिता को भेजी और उन्हें पहली बार रमेश के सुधार और अपनी मेहनत के संघर्ष के बारे में बताया, तो वे आर्थिक तंगी के बावजूद भावनात्मक समर्थन देने के लिए शहर आए। संस्था ने सामूहिक विवाह समारोह में आवास और भोजन की व्यवस्था की थी। अपने माता-पिता को उस सम्मानजनक समारोह में देखकर राधा के मन का सारा बोझ हल्का हो गया।

शादी के बाद भी बेटियों की आत्मनिर्भरता बनी रहे, इसके लिए संस्था ने उनके हुनर को महत्व दिया। गीता को संस्था ने अपने सिलाई केंद्र में टेलर की नौकरी दी। कोमल को कुछ अन्य प्रशिक्षित लड़कियों के साथ मिलकर चलाए जा रहे सामुदायिक ब्यूटी पार्लर में सैलरी पर काम मिला।

अमन अपनी दोनों बहनों से अलग था। वह पढ़ाई में मेधावी था। उसने 12वीं कक्षा अच्छे अंकों से पास की, लेकिन परिवार को आर्थिक स्थिरता देने के लिए, उसने उच्च शिक्षा का विचार अस्थायी रूप से छोड़कर, एक कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर से डेटा एंट्री और ऑफिस असिस्टेंट का कोर्स किया।

हुनर सीखने के बाद, अमन को एक स्थानीय अकाउंटेंट फर्म में जूनियर ऑफिस असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। अब गीता, कोमल और अमन तीनों अपनी मेहनत की कमाई घर लाते थे।

अमन ने एक दिन माँ से कहा, “माँ, अब बस। अब तू काम पर मत जाया कर,” यह कहकर अमन ने राधा के हाथ में अपनी पहली सैलरी थमाई।

राधा ने बेटे को प्यार से देखा और कहा, “नहीं बेटा, यह मेरी इज्जत की कमाई है। तू मेरी चिंता मत कर।” राधा ने आगे कहा कि, “बेटा, मैं तुझे कुछ अच्छा करते हुए देखना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि तू अपने जीवन में बहुत कामयाबी हासिल करे। इसलिए, तू अपनी सैलरी के पैसे बचाकर, उन्हें जोड़कर अपनी आगे की पढ़ाई पूरी कर।” उसने बाकी सब घरों का काम छोड़ दिया, लेकिन पहले चार घर, जहाँ से उसने यह संघर्ष शुरू किया था, वहाँ वह अब भी जाती थी।

राधा अब पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने स्वाभिमान के लिए काम करती थी। उसका ‘ज़हर का घूँट पीना’ व्यर्थ नहीं गया था। उसने उस अपमान को ताकत में बदला, और अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें समाज की शक्ति बनाया।

© मीनाक्षी गुप्ता2025

प्रतियोगिता के लिए कहानी विषय जहर का घूंट पीना

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