ये गवार औरत मेरी मां है। – दीपा माथुर

शाम का वक्त था। बड़े-बड़े झूमर जल उठे थे और घर में हर ओर हलचल थी। कीर्ति इधर-उधर दौड़ रही थी, कभी किचन में जाती, कभी हॉल में सजावट देखती। गुब्बारे, रंग-बिरंगे पर्दे, फूलों की खुशबू और तरह-तरह के पकवान—सबकुछ मिलकर घर को एक महफ़िल बना रहे थे।

आज विभु का जन्मदिन था। उसकी कामयाबी का जश्न भी। ऑफिसर बन चुका था वह, और कीर्ति चाहती थी कि यह दिन यादगार बने।

“लक्ष्मी, जूस की बोतलें फ्रिज में रख दो और गिलास साफ़ कर लो। समोसे भी गरम कर दो, मेहमान आते ही सर्व करने होंगे।” कीर्ति ने आवाज़ लगाई।

लक्ष्मी, जो सुबह से काम करते-करते थक चुकी थी, फिर भी मुस्कुराई और बोली, “हाँ मेम साहब, सब कर दूँगी।” उसके माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं, पर चेहरे पर संतोष था कि आज उसके विभु का बड़ा दिन है।

धीरे-धीरे गाड़ियाँ रुकने लगीं और विभु के दोस्त घर में दाख़िल हुए। किसी ने महँगा गुलदस्ता लाया, किसी ने गिफ़्ट। घर ठहाकों से गूंज उठा। लक्ष्मी ट्रे में जूस लेकर आई। जैसे ही उसने एक दोस्त को गिलास थमाया, उसका हाथ हल्का सा काँप गया और कुछ जूस आशीष की सफेद शर्ट पर छलक गया।

“अरे! ये कैसी मेड रखी है आपने? गँवार कहीं की! कपड़े खराब कर दिए।” आशीष झल्लाकर बोला।

बाक़ी दोस्त हँस पड़े। लक्ष्मी सहम गई। “माफ़ करना बेटा, हाथ फिसल गया।” उसकी आँखों में आँसू तैर आए।

विभु यह सब देख रहा था। उसे दोस्तों के सामने झेंप मिटाने की जल्दी थी। “मम्मी, मैंने आपसे कितनी बार कहा है, अब इसे काम पर मत रखिए। करती कुछ नहीं, बस मुझे घूरती रहती है। हर वक्त टोकती है—‘विभु बेटा ऐसे पढ़ो, ऐसे खाओ।’ आप भी इतना नहीं टोकतीं जितना ये। कल से इसे हटा दीजिएगा।”

लक्ष्मी का चेहरा पीला पड़ गया। उसका दिल जैसे किसी ने मसल दिया हो। आँसू पोंछती हुई वह धीरे-धीरे दूसरे कमरे में चली गई। घर में सन्नाटा छा गया।

कीर्ति के माथे पर गहरी सलवटें उभर आईं। उसने गुस्से में कहा, “बस करो विभु! तुम किसी की इंसल्ट करने वाले कौन होते हो? मेड है तो क्या, इंसान ही है।”

विभु चौंक गया। “लेकिन मम्मी…”

कीर्ति काँपती आवाज़ में बोली, “जिसे तुम मेड कहते हो न, असलियत में वही तुम्हारी माँ है।”

विभु जैसे सुनकर पत्थर हो गया। “क्या! हो ही नहीं सकता। मेरी माँ इतनी गँवार नहीं हो सकती। आप झूठ बोल रही हैं।”

कीर्ति की आँखों में आँसू थे। “नहीं बेटा, यह सच है। जब मेरी कोख सूनी रह गई थी, जब डॉक्टरों ने कहा कि मैं कभी माँ नहीं बन सकती, तब लक्ष्मी की गोदी में चौथी संतान थी—तुम। मैंने उसी समय उससे विनती की थी कि तुम्हें मुझे दे दो। मैंने वादा किया था कि तुम्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगी। पहले तो उसने मना कर दिया, लेकिन जब मैंने कहा कि तुम हमेशा उसकी नज़रों के सामने रहोगे, और वो इस घर में काम करती रहेगी, तब उसने आँसू बहाकर तुम्हें मेरी गोद में सौंप दिया।”

विभु की आँखों के सामने एक-एक दृश्य तैरने लगे। बचपन में जब वह बीमार पड़ा था, तो वही औरत रात भर उसके सिर पर पट्टियाँ रखती थी। जब परीक्षा में असफल हुआ था, तो वही कहती थी—“बेटा, असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी है।” जब भूख लगी थी, तो वही रोटी सेंक कर खिलाती थी।

उसकी आँखों से आँसू बह निकले। पैर खुद-ब-खुद लक्ष्मी के कमरे की ओर बढ़ने लगे।

लक्ष्मी चारपाई पर बैठी थी। आँसू उसके गालों पर बह रहे थे और हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना कर रही थी। विभु दौड़कर उसके पैरों में गिर पड़ा।

“माँ… मुझे माफ़ कर दो। मैंने आपको नहीं पहचाना। मैं दोस्तों के सामने स्मार्ट बनने चला था, लेकिन अपनी असली पहचान खो बैठा।”

लक्ष्मी ने काँपते हाथों से उसका सिर उठाया। “बेटा, माँ को कभी पहचानने की ज़रूरत नहीं होती। माँ तो बस माँ होती है। गँवार कहने से माँ का दर्जा नहीं घटता, लेकिन बेटे का संस्कार ज़रूर छोटा हो जाता है।”

विभु फूट-फूटकर रोने लगा। “अब से मेरी पहचान यही होगी कि मैं तुम्हारा बेटा हूँ। ऑफिसर हूँ या नहीं, उससे पहले मैं तुम्हारा हूँ।”

कीर्ति दरवाज़े पर खड़ी थी। उसकी आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर हल्की मुस्कान थी। उसका सपना पूरा हो गया था—आज विभु ने अपनी असली माँ को पहचान लिया था।

आशीष, जिसने लक्ष्मी को गँवार कहा था, आगे आया। “माँ जी, मुझे माफ़ कर दीजिए। हमें लगता था कि सभ्यता कपड़ों और पढ़ाई में है। असल में सभ्यता तो आप जैसी औरतों में है, जो बिना किसी स्वार्थ के बस देती हैं।”

लक्ष्मी ने उसके सिर पर हाथ रखा।

फिर सब लोग वापस हॉल में आए। इस बार केक काटने का मौका लक्ष्मी को दिया गया। काँपते हाथों से उसने चाकू पकड़ा। विभु ने उसका हाथ थाम लिया।

जब केक कटा, तो तालियों की गड़गड़ाहट गूँजी। लेकिन इस बार तालियाँ महज़ औपचारिकता नहीं थीं—उनमें माँ के प्रति सम्मान और बेटे के सच्चे प्रेम की गूँज थी।

उस दिन से विभु की पहचान बदल गई। लोग उसे ऑफिसर कहकर बुलाते रहे, लेकिन वह हर जगह कहता—“पहले मैं अपनी माँ का बेटा हूँ, फिर कुछ और।”

👉 माँ चाहे गरीब हो, अनपढ़ हो या किसी और के घर काम करती हो, उसका त्याग और प्रेम अनमोल होता है। असली सभ्यता माँ का सम्मान करना है, न कि उसे नीचा दिखाना।

दीपा माथुर

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